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जानकारों का कटु परिहास किया गया है कि एक व्यक्ति गधे के रोम (बाल) गिन रहा था। पूछा गधे के बाल क्यों गिन रहे हैं? उत्तर मिला, कुछ नहीं, जानकारी के लिए गिन रहा हूँ कि इस गधे के शरीर पर कितने बाल हैं? इस प्रकार की जानकारी को आचार्य ने मूर्खता बताया है-'गर्दभे कति रोमाणीत्येषा मूर्ख विचारणा।
यदि ज्ञेय रूप में सिर्फ ज्ञान के लिए ही ज्योतिष ज्ञान की उपादेयता है साधक के लिए, तब तो एक ज्योतिष ही क्यों, रसायन, चिकित्सा, वाणिज्य, युद्ध, कामशास्त्र आदि का भगवान् को उपदेश देना चाहिए था, उन विषयों की जानकारी के लिए भी ग्रन्थों की रचना होनी चाहिए थी। सम्यग् दृष्टि के लिए वे भी सम्यक् श्रुत होते, विष न होकर अमृत होते। उक्त तर्क का सीधा और स्पष्ट भाव यह है कि अध्यात्म साधक के लिए विधि निषेध से शून्य कोरे ज्ञेय का कोई अर्थ नहीं है। इसलिए निशीथ सूत्र में इस प्रकार के रूप-दर्शनों का निषेध है।
प्रश्न-विज्ञान अधूरा है। वैज्ञानिकों ने पहले कुछ स्थापना की और बाद में कुछ और ही। उनकी बहुत सी बातें बदल गई हैं। उनकी चन्द्रलोक की बात भी आगे चलकर गलत सिद्ध हो सकती है? अभी तो उन्होंने खोज शुरू ही की है।
उत्तर-विज्ञान किस बात में अधूरा है? प्रकृति अनन्त है, उसका पूर्ण रूप से निरीक्षण अभी नहीं हो पाया है, क्या इसीलिए विज्ञान अधूरा है, अपूर्ण है? तब तो शास्त्र भी अधूरे हैं, अपूर्ण हैं। भगवान् का अनन्त ज्ञान, जड़-चेतन का अनन्त रहस्य समग्र रूप से उन्हीं में कहाँ वर्णित हो पाया है। प्राचीन आचार्यों ने कहा है, केवल ज्ञान के अनन्त सागर का एक बिन्दु मात्र जितना भी ज्ञान शास्त्रबद्ध नहीं हुआ है। यदि इस तरह शास्त्र अपूर्ण हैं तो विज्ञान भी अपूर्ण है। फिर केवल विज्ञान पर ही अपूर्णता का दोष क्यों? पूर्ण तो एकमात्र केवलज्ञान है और कोई ज्ञान नहीं।
वैज्ञानिकों ने पहले कुछ माना और बाद में कुछ और ही माना, इसलिए विज्ञान अधूरा या असत्य है, यह कहना ठीक नहीं है। वैज्ञानिक पहले केवल धारणा बनाते हैं, अन्दाज लगाते हैं और कहते हैं कि ऐसी सम्भावना है। बाद में प्रयोग करते हैं, जाँच करते हैं, फिर प्रत्यक्ष सिद्ध होने पर परीक्षित वस्तु के
क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 45
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