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________________ तथाकथित अहिंसाव्रती संयमी मुनिराजों के काष्ठ पात्रों के लिए हरे वृक्ष कट सकते है।' साधुओं के निमित्त खरीदे हुए पात्र आवश्यकतानुसार सामान्य रूप से दीक्षा के बहाने ग्रहण किए जा सकते हैं। शिष्यों को अध्ययन कराने के लिए पंडितों के रूप में निजी नौकर रखे जा सकते हैं। पत्र व्यवहार आदि के लिए स्थायी नौकर के रूप में पी.ए. या क्लर्क की नियुक्तियाँ भी हो सकती है। अपने या दिवंगत गुरुजनों के नाम पर संस्थाएँ खड़ी की जा सकती हैं और उनके लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष अपने प्रभाव का उपयोग कर लाखों की संपत्ति भी जमा की जा सकती है। तार, टेलीफोन, पत्र व्यवहार हो सकता है। अर्थहीन पुस्तकें छप सकती हैं। हजारों दर्शनार्थी इकट्ठे किए जा सकते हैं। शिष्य बनाने के लिए काफी बड़ी रकमें दिलाई जा सकती हैं। दिनभर एक-दूसरे की झूठी निन्दा-बुराई का बाजार गर्म रख सकते हैं। जाने दीजिए –और भी बहुत कुछ ऐसी-वैसी बातें होती रहती हैं। मेरे महानुभावों का इन सबमें तो संयम नहीं जाता, संयम जाता है केवल ध्वनिवर्धक से और इसका दर्द एक बहुत बड़ा दर्द है, उनके मन में। संयम का खटका जो ठहरा। ___ कुछ गृहस्थ भी ऐसे हैं, जिनकी मानसिक स्थिति बड़ी विचित्र है। दुकानें चलती हैं, कारखाने धड़ल्ले से चलाये जाते हैं, घर पर बाल-बच्चों की भीड़ है और इसके लिए चौका-चुल्हा-चक्की सब चलता है। रेल, मोटर, तांगा, रिक्शा, जहाज सब सवारियों का उपयोग होता है। क्या करते हैं, क्या बोलते हैं, कोई खास विचार नहीं। परन्तु भाषण देने खड़े होते हैं, तो ध्वनिवर्धक सामने आते ही बिदक जाते हैं। वहाँ उनका श्रावकत्व सुदूर आसमान पर चढ़ जाता है। कुछ नहीं, विचार शून्य आचार एक तमाशा बन गया है। जैन परम्परा का इससे बढ़कर और क्या उपहास होगा? अब जनता सब समझने लगी है, कम से कम शिक्षित तो समझने लगे हैं। ये संयम के नाम पर दम्भ के प्रदर्शन कुछ लोगों को ही भुलावे में डाल सकते हैं। खेद है, ध्वनिवर्धक के साधारण से प्रश्न को कितना तूल दे दिया गया है। यह तो एक बड़ा महाभारत ही हो गया। सत्य स्थिति क्या है, इधर कुछ ध्यान ही नहीं दिया जाता। मैं जानता हूँ, मुझसे कुछ महानुभाव नाराज तो होंगे ही, पर मैं अपने विचार प्रकट कर ही देना चाहता हूँ। ताकि वास्तविकता क्या है, इसका कुछ थोड़ा-बहुत अता-पता सर्वसाधारण जनता को लगे तो सही। ध्वनिवर्धक का प्रश्न हल क्यों नहीं होता? क्या विद्युत अग्नि है? 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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