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________________ अग्नि और विद्युत् के गुणधर्म एक नहीं है पदार्थों का अपना अस्तित्व अपने गुणधर्मों के अनुसार होता है। इस कसौटी पर जब कसते हैं तो अग्नि और विद्युत् के गुण-धर्म एक सिद्ध नहीं होते। अग्नि और जल परस्पर विरोधी हैं। जल में अग्नि नहीं रह सकती है। जल तो अग्नि का परकाय शस्त्र है।" अतः वह उसे बुझा देता है, प्रदीप्त नहीं करता। और विद्युत् बादलों में प्रत्यक्षतः ही जल में रहती है, और इसीलिए अन्नभट्ट जैसे दार्शनिक उसे अबिन्धन कहते हैं, अर्थात् जल को बिजली का ईंधन बताते हैं। यहाँ धरती पर भी पानी विद्युत् का चालक है। जल में तथा जल से भींगी हुई वस्तुओं में विद्युत्धारा अच्छी तरह प्रवहमान हो जाती है। अतः सिद्ध है कि विद्युत् अग्नि नहीं है। यहाँ अग्नि और विद्युत् जैन धारणा के अनुसार भी दो विपरीत केन्द्रों पर स्थित है। जैनाचार्य वनस्पति का परकाय शस्त्र अग्नि को मानते हैं। और यह प्रत्यक्षसिद्ध भी है। काष्ठ को अग्नि भस्म कर डालती है। परन्तु विद्युत् का स्वभाव अग्नि के उक्त स्वभाव से भिन्न है। काष्ठ (लकड़ी) विद्युत् चालक नहीं है। लकड़ी पर खड़े होकर विद्युत् के तार को छूते हैं तो विद्युत का प्रभाव स्पर्शकर्ता पर नहीं पड़ता है। लकड़ी में विद्युत् धारा नहीं आ सकती है। यह बात आज सर्वसाधारण लोगों में प्रत्यक्षसिद्ध है। यदि विद्युत् अग्नि होती तो वह काष्ठ पर अवश्य अपना प्रभाव डालती। अग्नि को जलने के लिए आक्सीजन (प्राणवायु) आवश्यक है। यदि आक्सीजन न रहे तो अग्नि का प्रज्वलन समाप्त हो जाए। जलती हुई मोमबत्ती को काँच के गिलास या बेलजार आदि से ढंक दें तो कुछ समय पश्चात् मोमबत्ती बुझने लगेगी और उसका प्रकाश कम हो जाएगा। जब मोमबत्ती बुझने लगे, उसी समय यदि बेलजार आदि के ढक्कन को थोड़ा सा ऊपर उठा दिया जाए तो मोमबत्ती पुनः जलने लगेगी। बुझती हुई मोमबत्ती, बेलजार आदि के उठाने पर इसलिए जलने लगती है कि बेलजार में बाहर से आक्सीजन अन्दर चली जाती है। फलतः पहले की आक्सीजन खत्म होने पर भी नई आक्सीजन मिलते ही वह प्रज्वलन पुनः सक्रिय हो जाता है। यदि बेलजार के ढक्कन को न उठाया जाए तो आक्सीजन समाप्त होते ही मोमबत्ती अवश्य बुझ जाएगी। यह प्रयोग विज्ञान के छात्रों को प्रत्यक्ष में करके दिखाया जाता है और इस पर से अग्नि प्रज्वलन 100 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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