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________________ यह पृथ्वी है और इसकी अमुक स्थिति है, प्रकृति है, यह तो सिद्ध हो चुका हैं यही बात चन्द्रमा के सम्बन्ध में हैं वह आपका विमान नहीं, पत्थर की चट्टानों, पहाड़ों और गर्मों का एक वीरान प्रदेश हैं वहाँ आपके देवी-देवता कोई नहीं मिले, न विमान के उठाने वाले हाथी, घोड़े, बैल और सिंह ही कहीं दिखाई दिये। कल्पना के आधार पर लिखे गए इन ग्रन्थों को आप क्यों भगवदवाणी मान रहे हैं? और इसके लिए व्यर्थ ही क्यों परेशान हो रहे हैं? क्यों तर्कहीन तर्क देकर बचाव की लड़ाई लड़ रहे हैं। आपको क्या लेना-देना है इन चन्द्र प्रज्ञप्तियों से? आपके भगवान् की सर्वज्ञता को कहाँ चोट लगती है, यदि आपने इन शास्त्रों को भगवद्वाणी नहीं माना तो? चोट तो इन्हें भगवद्वाणी मानने से लगती है, न मानने से नहीं। प्रश्न-आपने अपने लेखों में जोधपुर चर्चा का कितनी ही बार उल्लेख किया है और कहा है कि जोधपुर में सर्व सम्मति से अंग बाह्य शास्त्र, जिनमें प्रज्ञप्ति आदि भी हैं, परतः प्रमाण माने गये हैं, अर्थात् साक्षात् भगवद् वाणी उन्हें नहीं माना है। इस सम्बन्ध में जोधपुर चर्चा में भाग लेने वाले दूसरे मुनिराज मौन क्यों हैं? उत्तर-यही तो आश्चर्य है ! सत्य का तकाजा तो यह है कि जो व्यक्ति जिस निर्णय से सम्बन्धित हों, यदि उस सम्बन्ध में कभी कोई चर्चा चले तो उन्हें वास्तविक स्थिति की स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए। मुझे आशा थी कि चर्चा से सम्बन्धित मुनि ऐसा करेंगे। परन्तु मेरी ओर से बार-बार जोधपुर चर्चा का उल्लेख होने पर भी सम्बन्धित मुनिराज मौन हैं-न इकरार और न इन्कार। इन्कार तो कैसे कर सकते हैं, सत्य महाव्रती सन्त जो हैं। फिर इकरार क्यों नहीं? यह मैं क्या बताऊँ? उन्हीं से पूछिए न। हाँ, 'मौनं स्वीकृतिलक्षणम्' के सिद्धान्त सूत्र से यदि आप वास्तविकता का दर्शन कर सकें तो बात दूसरी है। प्रश्न-पूज्य श्री हस्तीमलजी महाराज बार-बार उक्त विवादास्पद चन्द्रयात्रा संबंधी वैज्ञानिक उपलब्धियों की जैन शास्त्रों के साथ समन्वय एवं संगति बिठाने की बात करते हैं। इस सम्बन्ध में आपका क्या अभिमत है? उत्तर-पूज्य श्री संगति बिठा सकते हैं तो बिठाएँ। मुझे इससे क्या आपत्ति है? वेसे मैं भी कुछ शब्दों की आध्यात्मिक अर्थ में संगति बिठा सकता हूँ। परन्तु ये जो भूगोल-खगोल संबंधी लम्बे चौड़े वर्णन हैं, ग्रन्थ हैं, भला इनके अक्षर-अक्षर क्या शास्त्रों को चुनौती दी जा सकती है? शंका-समाधान 47 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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