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"णावोवयग तं पि जतणाए। "बृहत्कल्प भाष्य, 5655 "कारणे यत्र नवाऽप्युदकं तीर्यते तत्रापि यतनया संतरणीयम्।....
परिहारपरिमाणानामभावे नावा लेपोपरिणा लेपेन संघटेन वा गम्यते न कश्चिद्दोषः।
-बृहत्कल्प भाष्य टीका, 5656 उक्त पुरातन कथन पर से स्पष्ट है कि परिस्थिति विशेष में नावादि के द्वारा जल-यात्रा करने में भी कोई दोष नहीं है।
प्रस्तुत में नदी पार करने के अशिव, भिक्षा का अभाव आदि अनेक कारण बतलाए हैं। प्रश्न है, यदि इन्ही कारणों से नदी पार की बात है, तब फिर परिगणना कैसी? दो-तीन वार के बाद भी ऐसे ही कारण उपस्थित हो सकते हैं। तब भिक्षु क्या करे? क्या उक्त निषेध को एकान्त मानकर वहीं प्रणान्त की स्थिति प्राप्त कर ले? यदि जीवन-रक्षा के लिए नदी पार करना है, तो अन्य विकट प्रश्न उपस्थित होने पर परिगणना से अधिक भी अपवाद स्वरूप नदी पार की जा सकती है। अस्तु, उक्त परिगणना के पाठ को सामान्य रूप से ही ग्रहण करना अपेक्षित है, एकान्तवाद के रूप में नहीं। समुद्र-यात्रा
यद्यपि समुद्र-गामिनी नौका द्वारा समुद्र-यात्रा का निषेध किया गया है, पर यह भी एकान्त नहीं है। लंका के इतिहास से पता चलता है कि लंका के राजा खल्लतांग (ईसा से 109 वर्ष पूर्व से लेकर 103 वर्ष पूर्व तक) काल में अभयगिरि आदि पर जैन मुनियों के संघ पहुँच चुके थे। और, राजा वट्टगामि तक यह संघ लंका में रहा। पश्चात् परिस्थिति विशेष के कारण लंका से श्याम (थाइलैंड) के लिए प्रस्थान कर गए। यह यात्रा समुद्र गामिनी नौकाओं के द्वारा हुई है। प्रस्तुत प्रसंग के लिए 'टाइम्स ऑफ इंडिया' एवं श्री अमर भारती, अगस्त 84, पृष्ठ 32 में सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ पी. बी. राय चौधरी का प्रकाशित लेख दृष्टव्य है।
अस्तु। समुद्र-यात्रा भी एकान्तः प्राचीन काल में निषिद्ध नहीं थी। जैन-दर्शन एकान्तवादी है भी नहीं। उसका समग्र आचार और दर्शन अनेकान्त की धुरी पर अवस्थित है। एकान्तवादी को सम्यक्-दृष्टि नहीं, मिथ्या-दृष्टि माना गया है।
72 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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