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________________ नहीं है। अस्तु, नौका ही एक मात्र उक्त नदियों के जल सन्तरण का साधन था। इसीलिए भगवान् ने नौका पर बैठकर ही गंगा पार की। और जब भगवान् ने गंगा पार की तो उनके साथ जो हजारों साधु-साध्वी और थे, उन्होंने भी नौकाओं द्वारा ही गंगा पार की। भगवान् की नौका के साथ सैकड़ों ही अन्य नावों का विशाल काफिला गंगा के विशाल प्रवाह पर तैरता चला होगा, उसका जरा मन की आँखों के समक्ष कल्पनाचित्र प्रस्तुत कीजिए। आपके मन में सहज ही यह प्रश्न खडा होगा कि आखिर इन सब विशाल जल-यात्राओं का क्या उद्देश्य था? नौका भी जल-पथ का एक वाहन ही है। वाहन (सवारी) साधु के लिए निषिद्ध है। फिर बार-बार नौकाओं का क्यों प्रयोग किया गया? भगवान् के समक्ष जलसन्तरण से सम्बन्धित क्या वे ही समस्याएँ थीं, जो सामान्य साधुओं के लिए प्राचीन आगम एवं आगमेतर साहित्य में उल्लिखित हैं। क्या भगवान् को दुष्ट राजा या चोरों का भय था? क्या सिंह आदि खूखार जंगली जानवरों का खतरा था? क्या भीषण दुष्काल पड़ रहे थे कि भिक्षा नहीं मिल रही थी? क्या अनार्य-म्लेंछों का हमला हो रहा था? क्या किसी भंयकर रोग के लिए दुर्लभ औषधि की तलाश थी? आखिर क्या था ऐसा कि भगवान् को गंगा जैसी महानदियों को पार करना पड़ा? आज के एक मुनिराज ने तो संयम-साध ना के आवेश में यहाँ तक लिखा है कि मेरा वश नहीं चलता है, यदि मेरा वश चले तो मैं अचित्त पृथ्वी पर भी पैर न रखें, मैं अचित्त वायु का श्वास-प्रश्वास के रूप में प्रयोग भी न करूँ, मैं अचित्त जल भी न पीऊँ, और अचित्त आहार का भी सदा के लिए परित्याग कर दूं" एक ओर आज के मुनिजी अचित्त वस्तुओं के प्रयोग के लिए भी अपनी विवशता बतला रहे हैं और दूसरी ओर भगवान् महावीर हैं कि गंगा जैसी महानदियों के विशाल प्रवाहों को अपने विराट साधुसंघ के साथ नौकाओं द्वारा तैर रहे हैं। विशाल जल प्रवाहों को तैरने के लिए भगवान् को क्या विवशता थी, क्या मजबूरी और क्या लाचारी थी, जो आज के एक साधारण मुनि के वैचारिक स्तर से भी नीचे उतर गए। भगवान् बार-बार जलबहुल प्रदेशों में घूमते रहे, गंगा जैसी समुद्राकार महानदियों को नौकाओं द्वारा पार करते रहे, परन्तु जलकाय, निगोद और त्रस जीवों की इतनी बड़ी हिंसा की ओर ध्यान नहीं दिया। क्या भगवान् के पास आज के मुनियों जितनी भी विवेकदृष्टि नहीं थी? अहिंसा, संयम का इतना भी कुछ लक्ष्य नहीं था? कितनी विचित्र 58 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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