________________
तप भी गत वर्ष के अन्तमें एवं नववर्ष के प्रारम्भ में आषाढ़ी पूर्णिमा को ही किया जाता था। 'वरिसंते उववासो कायव्वो, (गाथा 3208)-निशीथ चूर्णि। वरिसाकालस्स आदीए मंगलं कतं भवति, सड्ढाण य धम्मकहा कायव्वा। पज्जोसवणाए जइ अट्टमं न करेइ तो चउगुरु.... निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा, 3216-17 ।
पर्युषण पर वार्षिक आलोचना एवं क्षमापना का विधान है। वह भी वर्ष के अन्त में ही करणीय है। इसी प्रसंग में जिनदास महत्तर ने कहा है-“पज्जोसवणासु वरिसिया आलोयणा दायव्वा। वरिसाकालस्स आदीए'-निशीथ चूर्णि, भाष्य गाथा, 3216 'उड्डबद्धे वासासु य दुच्चरियं तं वासासु खिप्पं आलोएव्वं'
____ -निशीथ चूर्णि, गाथा, 3179 । 'वरिसेण पुढविराती' -
निशीथ भाष्य, 3189 'जो दिवस-पक्ख-चाउमासिएसु अणुवसंतो संवच्छरिए उवसमति सो पुढविराइसमाणो'
-निशीथ चूर्णि, गाथा, 3189 पर्युषण पर कल्पसूत्र के पठन की परंपरा है, जो आज भी पर्युषण के समय प्रचलित है। प्रश्न है, प्राचीन काल में कल्पसूत्र कब पढ़ा जाता था? कल्पसूत्र में साधु- साध्वी के लिए वर्षाकाल-सम्बन्धी गमनागमन आदि विशिष्ट सामाचारी-नियमों का उल्लेख है, अतः उसे पर्युषणा कल्पसूत्र कहते हैं, जो उसे बृहत्कल्प आदि कल्पसूत्रों से पृथक् करता है। पर्युषण पर कल्पसूत्र के पाठ का स्पष्ट आशय है कि वर्षा के आरंभ में ही संघ को वर्षाकालीन विधिनिषेधों का परिबोध हो जाना चाहिए, स्मृति हो जानी चाहिए, ताकि प्रसंगानुसार नियमों का शुद्ध रीति से पालन हो सके। वर्तमान में पर्युषण भादवा सुदी पंचमी को होता है, जबकि वर्षा समाप्त होने को होती है और तब वर्षा सम्बन्धी विधिनिषेधों के श्रवण एवं पठन का क्या अर्थ रह जाता है? यह तो 'मुण्डनानन्तरं नक्षत्रपृच्छनं' अर्थात् सिर मुंडाने के बाद मुहूर्त पूछने जैसी बात हैं अतः प्राचीन ग्रंथों की साक्षी है कि पर्युषणा कल्प वर्षावास के आरंभ में आषाढ़ी पूर्णिमा के समय ही पढ़ा जाता था, फलतः उसी समय पर्युषण होता था। इस संबंध में निशीथ भाष्य है"आसाढ़ी पुण्णिमोसवणा", 3153। इसी भाष्य पर चूर्णि पाठ है- “तत्थ उ
14 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org