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________________ "इय सत्तरी जहण्णा , असिती णउई दसुत्तरसयं च।" -बृहत्कल्प भाष्य, 4285 “ये किल आषाढ़पूर्णिमायाः सविंशतिरात्रे मासे गते पर्युषणयन्ति तेषां सप्ततिदिवसानि जघन्यो वर्षावासावग्रहो भवति। भाद्रपदशुक्लपंञ्चम्या अनन्तरं कार्तिकपूर्णिमायां सप्ततिदिनसद्भावात्... भाद्रपदामावास्यां पर्युषणे क्रियमाणे पंचसप्ततिर्दिवसाः, भाद्रपदबहुलपञ्चम्यां पञ्चासीतिः श्रावणशुद्धदशम्यां पञ्चनवतिः, श्रावणामावास्यां पञ्चोत्तरं शतम् श्रावणबहुलपञ्चम्यां पञ्च दशोत्तरं शतम्। आषाढपूर्णिमायां तु पर्युषिते विंशत्युत्तरं दिवस-शतम्।" -बृहत्कल्प, भाष्य टीका, 4285 इयणिं पंचगपरिहाणिमधिकृत्य कालावग्रहोच्यतेइय सत्तरी जहण्णा असिती, नउती दसुत्तरसयं च। जति वासति मग्गसिरे, दसरायं तिन्नि उक्कोसा। चउण्हं मासाणं वीसुत्तरं दिवससतं भवति। सवीसतिमासो पण्णासं दिवसा ते वीसुत्तरसयमज्झाओ सोहिया, सेसा सत्तरी। जे आषाढ़चाउम्मासियातो सवोसतिमासे गते पज्जोसवेंति, तेसिं सत्तरी दिवसा जहण्णो वासकालोग्गहो भवति...." -निशीथ भाष्य, चूर्णि, 3154 कल्पसूत्र में जो भगवान् महावीर के नाम से 'समणे भगवं महावीरे... के रूप में एक महीना बीस रात्रि वाला पाठ ळे, वह कल्पसूत्रकार के स्वयं के शब्दों में कारणिक है, अतः अपवाद है, उत्सर्ग नहीं। उक्त पाठ के अनंतर शिष्य के द्वारा प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रमण भगवान् महावीर ने एक महीना 20 रात्रि बीतने पर पर्युषण वर्षावास किया, यह किस हेतु से कहा जाता है-से केण?णं भंते एवं वुच्चई-समणे भगवं महावीरे वासाणं...?' उक्त शंका के उत्तर में कल्प सूत्रकार 'जओ' शब्द का, जिसका अर्थ संस्कृत में 'यतः, और हिन्दी में 'क्योंकि' होता है, प्रयोग करते हुए कहते हैं कि “जओ णं पाएणं अगारीणं अगाराई कडियाई, कंपियाई, छन्नाइं, लित्ताई, घट्टाई, मट्ठाई, संपधूमियाई, खाओदगाई, खायनिद्धमणाई, अप्पणो अट्टाए परिणामियाइं भवंति से तेण्डेणं एवं वुच्चई-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइराए मासे विइकूते वासावासं पज्जोसवेइ।" पर्युषण : एक ऐतिहासिक समीक्षा 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003409
Book TitlePragna se Dharm ki Samiksha Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherVeerayatan
Publication Year2009
Total Pages204
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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