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तरह के सहयोग या सेवा की अपेक्षा नहीं रखता था। अधिक से अधिक स्वाश्रयी रहने की उसकी भावना थी। अतः वह केशकर्तन की समस्या का हल भी स्वयं बालों को उखाड़कर कर लेता था। जैन साधक के लिए केशलोच बाह्य तप है, परंतु वह अंदर के समभाव, कष्टसहितष्णुता, धैर्य, अनाकुलता, अहिंसा एवं स्वतंत्र जीवन आदि के परीक्षण की एक कसौटी भी है, अतः वह बाह्यतप की दृष्टि से अनिवार्य नहीं होते हुए भी साधना का एक अनिवार्य अंग है, अनिवार्य नहीं तो अनिवार्य जैसा अवश्य है। जिनकल्प और स्थविरकल्प
प्राचीन काल में जैन श्रमणों में दो परंपराएँ थीं-एक जिनकल्प परंपरा और दूसरी स्थविरकल्प परंपरा। जिनकल्पी के लिए वर्ष के बारहों महीने प्रतिदिन लोच करना, अनिवार्य था। प्रतिदिन शिर और ठोडी पर हाथ फेरना और जहाँ भी कहीं कोई बाल हाथ में आये, उसे झट उखाड़ देना। इसका अर्थ है-जिनकल्पों के शिर पर कभी कोई बाल रह ही नहीं पाता था।
स्थविरकल्पी मुनि के लिए प्रतिदिन लोच का विधान नहीं था। परंतु वर्षावास में-अर्थात् चातुर्मास में उसके लिए भी प्रतिदिन लोच का विधान था। यह ठीक है कि देशकाल की बदलती परिस्थितियों के कारण आजकल यह परम्परा नहीं रही है, आज कोई भी साधु-साध्वी चातुर्मास में प्रतिदिन लोच नहीं करता है। परंतु प्राचीनकाल में यह परंपरा थी, जिसका उल्लेख प्राचीन साहित्य में आज भी उपलब्ध है। निशीथ भाष्य (3173) में लिखा है
___'धुवलोओ य जिणाणं, णिच्च थेराण वासवासासु।'
-उडुबद्धे वासावासासु वा जिणकप्पियाणं धुवलोओ-दिने दिने कुर्वन्तीत्यर्थः। थेराण वि वासासु धुवलोओ चेव-निशीथ विशेष चूर्णि।
__जो भिक्षु या भिक्षुणी तरुण होते थे, समर्थ एवं निरोग होते थे, उन्हें वर्षाकाल में तो प्रतिदिन ही लोच करना होता था, किन्तु शेष-काल में, जिसे आगम में ऋतुबद्ध काल कहा है, चार-चार महीने के अनन्तर लोच करना होता था। -यदि समर्थस्तदा वर्षासु नित्यं लोचं कारयेत्
- कल्प० सुबोधिका 9-57
138 प्रज्ञा से धर्म की समीक्षा - द्वितीय पुष्प
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