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आचार विचार के प्रश्न उपस्थित किये थे। तब गुरु गौतम ने ऐसे प्रश्नों का निर्णय किस आधार पर करना चाहिये यह अत्यंत स्पष्टता से बताया है। उन्होंने महापुरुषों की परम्परा अथवा शास्त्रों की दुहाई नहीं दी। उन्होंने कहा -
पण्णा समिक्खए धम्मं तत्तं तत्त विनिच्छय।। (उत्तराध्ययन 23/25) विनाणे समागम्म धम्म साहणमिच्छिय।। (उत्तराध्ययन 23/31)
"अपनी निजी प्रज्ञा से काम लो। देश काल के परिवेश में पुरागत मान्यताओं को परखो। प्रज्ञा ही धर्म के सत्य की सही समीक्षा कर सकती है। तत्त्व और अतत्त्व को परखने की प्रज्ञा एवं विज्ञान के सिवा और कोई कसौटी नहीं है"।
प्रज्ञा याने गहराई से तत्त्व को जानने की क्षमता। विज्ञान याने चिंतन और अनुभूतिजन्य विशेष ज्ञान। इनको उपार्जन करने के लिए सत्यनिष्ठा से, तटस्थ भाव से, उन्मुक्त चिंतन मनन करना चाहिये। यह वे ही कर सकते हैं, जिन्होंने विविध तत्त्वज्ञान प्रणालियों का गहराई से तौलनिक अध्ययन एवं सतत मंथन किया हो और जिनकी वृत्ति गंभीर, शिव और सौम्य हो
'ससमय परसमय विऊ गंभीरो दित्तिमं शिवो सोमो' । परमपूज्य गुरुदेव उपाध्याय कविश्री अमर मुनिजी प्रगाढ़ विद्वान एवं मूलग्राही प्रखर विचारक है। ज्ञान तथा विज्ञान के अथाह सागर की गहराइओं में उतरकर उन्होंने अपनी प्रखर प्रज्ञा से, अनुभूतियों से चिंतन, मनन तथा मंथन करके रसग्रहण किया हैं आप प्रज्ञामहर्षि है। आपकी विचारधारा सत्यान्वेषी, स्वतंत्र एवं क्रांतिकारी है।
वर्तमान में धर्म के नाम पर परम्परा और क्रियाकाण्ड के जंजाल खड़े कर भ्रांतियाँ फैलायी जाती हैं। पूज्य गुरुदेव ने ऐसे अनेकों विषयों एवं मामलों की अपनी प्रखर प्रज्ञा से समीक्षा कर विचार प्रवर्तक एवं प्रमाणों के साथ समय समय पर लिखा है। ऐसे कुछ लेखों का संग्रह प्रकाशित किया जाय ऐसी जिज्ञासुओं की बड़े प्रमाण पर मांग रही है। उसकी पूर्ति के लिये 'वीरायतन' का यह अल्प प्रयत्न है।
आशा है समाज को संभ्रमित करने वाली अनेक भ्रांत मान्यताओं एवं विवाद्य विषयों को समझने में इस प्रकाशन का ग्राह्य होगा।
-नवलमल फिरोदिया
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