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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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* श्रीनेमिनाथाय नमः
जिनवाणी संग्रह
अर्थात्
वृहद् जैन सिद्धान्त संग्रह।
सम्पादक
व्याकरण रत्न, पं० सतीशचन्द्र जैन, न्यायतीर्थ पं० कस्तूरचंद छाबड़ा "विशारद "
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प्रकाशक
11
दुलीचंद पन्नालाल, परवार मालिक - जिनवाणी प्रचारक कार्यालय,
बड़ाबाजार, कलकत्ता ।
द्वितीय संस्करण १५०० दीपावली २०५२
मूल्य सवा दो रुपया ।
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प्रकाशक
दुलीचंद पन्नालाल परवार मालिक - जिनवाणी प्रचारक कार्यालय, पो० ब० ६७४८ कलकत्ता ।
प्रथम खंड हनुमान प्रसमें तथा द्वितीय खड लक्ष्मीप्रिंटिंग वर्क्सप्रेस में छपा है ।
मुद्रक :भोलानाथ बर्मन
लक्ष्मी प्रिटिंग वक्स, ३७०, अपरचितपुर रोड, कलकत्ता ।
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प्रकाशकीय वक्तव्य । बंधुओ! हम आपकी गहरी सहानुभूतिका अनुभव करते हुए सिर्फ तीन हो महिनेमें यह द्वितीयावृत्ति लेकर सेवामें उपस्थित होरहे हैं। हमें स्वप्नमें भी ऐसी आशा नहीं थी कि
आप लोग इतना प्रेम दिखावेंगे। सिर्फ २-२॥ महिनेमें प्रथमा। वृत्ति खप गई, यह आनंद की बात है। इस नई आवृत्तिमें हमने । अरहंतपाशा केवली, शिखर महात्म्य, विद्यावतो कृत अनेक पद, संसार दुःख दर्पण, अठारह नाते की कथा आदि और भी बहुतसे आवश्यक विषयोंका समावेश कर दिया है। इससे संग्रह को महत्वता और भी बढ़ जाती है। ____ जिन जिन महाशयोंके प्रकाशित विषयोंका हमने इसमें समा.॥ वेश कर दिया है उन उन महाशयोंके प्रति हम अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं। __श्रीमान् परोपकारी बन्धु बा० छोटेलाल जी जैन एम० आर० ए० एस० ने सदैवकी भांति अपनी शुभ सम्मति द्वारा हमें पूर्ण । सहायता दी है इस महिती कृपाके लिये कृतज्ञ हैं। ___ सम्पादक महाशयोंको भी हम धन्यवाद दिये वगैर नहीं रह सक्त कि जिनने अपना अमूल्य समय दे कर हमें उपकृत किया है।
प्रथमावृत्ति की आलोचना जैनमित्र, जैनजगत, परवार बन्धु, खंडेलवाल जैन हितेच्छु आदि प्रसिद्ध पत्रोंने विस्तृत | रूपसे खूब ही उत्तम की थी इस कृपाके लिये भी कार्यालय उनका आभारी है। आशा है आप सज्जन इसी तरह कृपा दृष्टि रखेंगे। दीपावली-चोर सं० २० दीपावली-चोर सं० २४५२६ लीवन्द पन्नालाल,देवरी सागर
मिवदक
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वडामारी सुभीता।
१) एक रुपया प्रवेश फी जमा करादेने से हम अपने छपाये तमाम ग्रन्थ पौनी कीमत में दिया करते हैं। नवीन ग्रन्थ जब तैयार होता है वरावर १५ दिन पहिले खबर दी जाती है, जिन्हें नहीं लेना होता है उनका पत्र आनेसे नहीं भेजा जाता। अब बताइये कितना लाभ है ?
आजही पत्र लिखकर ग्राहक बन जावें अगर आप स्वयं ग्राहक हों तो अपने इष्ट मित्रों को बनाने की कृपा करें।
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"मनेजर"
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जैनधर्म और जैन जातिके परम उपकारी श्रीमान् जैनधर्मभूपण, धर्मदिवाकर श्रीब्रह्मचारी शोतलप्रशादजी
सम्पादक-"जनमित्र और वीर"
必於公於小小小小小小小小小小小
1 कर कमलों में तुच्छ भेंट यह सादर अर्पण करता हूँ।
जैनधर्म के नावक पर यह प्रेम पुष्प सर धरता हूँ॥ प्रेम आपसे बाल बृद्ध, गुण मुग्ध, सभ्य जन करते हैं। धर्म स्वरूप समझ कर.सच्चा सत्य सौख्य यश भरते हैं ।
हे शांत हृदय ! अरु पूज्यवर कृपया इसे अपनाइये। रकर कमलों में ग्रहण कर सत्य मार्ग दिखलाइये ॥
1.
विनीत
“सम्पादक" । RECENCECREEKASKIN
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ORRIORRHOMGHOREAKDire + मंदिरों के लिये बड़ाभारी सुभोता।
काश्मीरी केशर ।
पवित्र केशर हमारे यहां हर समय तैयार रहती है ह, बहुत ही कम नफा लेकर भेजी जाती है एक वार परीक्षा ॐ अवश्य कीजिये । ३) तोला।
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स्कटिक की मालायें । चमकती हुई सुन्दर मालाये, हमारे यहां से मंगाईये । १) को ४ तथा २५) रुपया सैकड़ा।
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दशांग धूप। पवित्रता के साथ तैयार की हुई यह दशांग धूप बहुत ही उत्तम और सुगंधित है दाम ५) रुपया सेर आधपाव का डब्बा ॥३)
हमारा पताजिनवाणी प्रचारक कार्यालय,
बड़ाबाजार-कलकत्ता। जाHOORIGHoronsterest
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* श्रीपरमात्मने नमः *
जिनवाणी संग्रह
'पहला अध्याय)
१ गामोकार मंत्र
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।
इस णमोकार मन्त्रमें पांच पद पैंतीस अक्षर, अट्ठावन मात्राएं हैं ॥
२ गामोकार मन्त्रका माहात्म्य
णमोकार है मंत्र सर्व पापोंका हर्ता ।
मंगल सबसे प्रथम यही शुचि ज्ञान सुकर्ता ॥ संसार सार है मन्त्र जगतमें अनुपम भाई । सर्व पाप अविनाश मंत्र सबको सुखदाई ॥ १ ॥ संसार छेदके लिये मन्त्र है सर्व प्रधाना । बिपको अमृत करे जगतने यह सब माना ॥ कर्म नाश कर ऋद्धि सिद्धि शिव सुखका दाता ॥ मंत्र प्रथम जिन मंत्र सदा तू क्यों नहिं ध्याता ॥२॥
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* जिनवाणी संग्रह *
सुर सम्पत्ति प्रधान मुक्ति लक्ष्मी भी होती। सर्व विपत्ति विनाश ज्ञानकी ज्योती होतो ॥ पशु पक्षी नर नारि श्वपच जो धारण करते । शान, मान, धन, धान्य और सुख सम्पति भरते। जीवन्धर थे स्वामि एक जन करुणा धारी। कुत्तेको दे मन्त्र शीघ्र गति भली सुधारी ॥ मंत्र प्रभाव स्वर्गमें जाकर सब सुख पाये। ध्याये जो जन उसे सर्व सुख हों मनचाये ॥४॥
“सतीश" ३ पञ्च परमेष्टीके नाम अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु ।
ॐ ह्रीं असि आ उ सा । ॐ नमः सिद्धेभ्यः ॥ नोट-अ सि आ उ सा नाय पञ्च परमेष्ठोका है। ॐ में पञ्च परमेष्ठोके नाम ही २४ तीर्थङ्करों के नाम गभित हैं।
चौविस तीर्थकरोंके नाम ऋषभदेव, २ अजितनाथ. ३ संभवनाथ, ४ अभिनन्दननाथ, ५ सुमति नाथ,
६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्वनाथः ८चन्द्रप्रभ, ६ पुष्पदन्त, १० शीतलनाथ, ११ श्रेयांशनाथ, १२ वासुपूज्य, १३ विमलनाथ, १४ अनन्तनाथ, १५ धर्मनाथ, १६ शांतिनाथ, १७ कुन्थुनाथ, १८ अरनाथ, १६ मलिनाथ, २० मुनिसुव्रतनाथ, २१ नमिनाथ, २२ नेमिनाथ, २३ पाश्वनाथ, २४ वर्द्धमान।
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* श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार *
श्रीसमन्तभद्र स्वामी विचित । ५श्ररित्नकरराह श्रावकाचार नमः श्री वर्द्धमानाय निधू तकलिलात्मने । सालोकानां त्रिलोकानां यद्विद्यादर्पणायते ॥ १ ॥ देशयामि समीचीनं धर्मं कर्मनिवहणम् । संसारदुःखतः सत्वान्यो धरत्युत्तमे सुखे ॥ २॥ सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः । यदीयप्रत्यनोकानि भवन्ति भवपद्धतिः ॥ ३ ॥ श्रद्धानं परमार्थानां माऽप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूढापोढ़मष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनमम्मयम् ॥ ४ ॥ आप्त नोच्छिन्नदोषेण सर्व नागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५ ॥ क्षुत्पिपासाजरातङ्कजन्मांतकभयस्मयाः । न रागदेषमोहाश्च यस्याप्त: स प्रकीर्यते ॥ ६॥ परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। सर्वशोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥ ७ ॥ अनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् शिल्पिकरस्पर्शन्मुरजः किमपेक्षते ॥ ८ ॥ आप्तोपशमनुल्लङध्यमद्रष्टष्टविरोधकम् । तत्वोपदेशकृत्सा शास्त्र कापथघट्टनम् ॥ ६ ॥ विषयाशाबशातीतो निरारम्मोऽपरिग्रहः । शानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० ॥
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* जिनवाणी संग्रह # 耄
इदमेवेशमेव तत्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकस्पायसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥ ११ ॥ कमपरवशे सांते दुःखेरन्तरितोदये ।
पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकाङक्षणा स्मृता ॥ १२ ॥ स्वभावतोऽशुचौ काये रत्नत्रयपवित्रिते । निज गुप्सागुणप्रीतिर्मता निर्विचिकित्सिता ॥ १३ ॥ कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमृदा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥ स्वयं शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपग्रहनम् ॥ १५ ॥ दर्शनाश्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलः । प्रत्यवस्थापन' प्राज्ञः स्थितिकरणमुच्यते ॥ १६ ॥ स्वयूथ्यान्प्रति सद्भावसनाथापेतकैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ॥ १७ ॥
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अज्ञानतिमिरख्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् ।
जिनशासनमाहात्म्यप्रकाशः स्यात्प्रभावना ॥ १८ ॥ नावदञ्जनवौरोऽङ्ग ततोऽनन्तमतीस्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥ १६ ॥ ततो जिनेन्द्रभक्तोऽन्यो वारिषेणस्ततः परः । विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्ष्यतां गतौ ॥ २० ॥ नाङ्गहीनमलं छेत्तु दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २९ ॥ आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताश्मनाम् ।
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* श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार *
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गिरिपातोऽग्निपातश्च लोकमूह निगद्यते ॥ २२ ॥ वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वषमलोमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढ़मुच्यते ॥ २३ ॥ सग्रन्थारम्भहि सानां संसारावर्त्तवर्तिनाम् । पाखण्डिनां पुरस्कारो शेयं पाखण्डिमोहनम् ॥ २४ ॥ ज्ञान पूजां कुलं जाति वलमृद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुगतस्मयाः ॥ २५ ॥ स्मयेन योऽन्यानत्येति धमस्थान् गर्विताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धौ धार्मिक विना ॥ २६ ॥ यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् । अथ पापात्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा किं प्रयोजनम् ॥ २७ ॥ सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मानङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुर्भम्मगूढाङ्गारान्तरौजसम् ॥ २८ ॥ श्वापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्मकिल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ॥ २६ ॥ भयाशास्नेहलोभाञ्च कुदेवागमलिंगिनाम् । . प्रणाम विनयं चैव न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ ३० ॥ दर्शन ज्ञानवारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शन कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रवक्ष्यते ॥ ३१॥ विद्यावृत्तस्य संभूतिस्थितिवृद्धिफलोदया: । न सन्त्यसति सम्यक्त्वे वीजाभावे तरोरिव ॥ ३२ ॥ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ॥ ३३ ॥
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* जिनवाणी संग्रह *।
आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं व निर्याजं । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निश्शेषं ॥ १२५ ॥ शोक भयमवसादं क्लदं कालुष्यमरतिमपि हित्वा । सत्वोत्साहमुदीयं च मनः प्रसाद्य श्र तैरमृतैः ॥ १२६ ।। आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवद्धयेत्पानम् । स्निग्धं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत्क्रमशः ॥ १२७ ॥ खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पंचनमस्कारमनास्तनु त्यजेत्सवयत्न न ॥ १२८ ॥ जीवितमरणाशंसे भयमित्रस्मृतिनिदाननामानः । सल्लेखनातिचाराः पञ्च जिनेन्द्र : समादिष्टाः ॥ १२६ ॥ निःश्र यसमभ्युदयं निस्तारं दुम्नरं सुखाम्बुनिधिम् । निष्पिवति पोतधर्मा सर्वदुःखैरनालोढ़ः ॥ १० ॥ जन्मजरामयमरण : शाकंदुःभयश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्र यसमिष्यते नित्यम् ॥ १३१ ।। विद्यादर्शनशक्तिस्वास्थ्यप्रादप्तिशुद्धियुजः । निरतिशया निरवधयो निःश्र यसमावसन्ति सुखं ।। १३२॥ काले कल्पशतेऽपि व गते शिवानां न विक्रिया लक्ष्या। उत्पातोऽपि यदि स्यात् त्रिलोकसम्भ्रान्तिकरणपटु ॥ १३३ ॥ निःश्रेयसमधिन्नास्त्रैलोक्यशिखामणिश्रियं दधते। निष्किटिकालिकाच्छविचामोकरभासुरात्मानः ॥ १३४ ।। पूजार्थानं श्वर्यबलपरिजनकामभोगभूयिष्ठः । अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदयं फलति सद्धर्मः ॥ १३५ ॥ श्रावकपदानि देवेरेकादश देशितानि येषु बलु।
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* श्रीरत्नकरण्ड श्रावकाचार *
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स्वगुणाः पूर्वगुणैः सह संतिष्ठन्ते क्रमविवृद्धाः ॥ १३६ ॥ सम्यग्दर्शनशुद्धः संसारशरीरभोगनिर्विण्णः पञ्चगुरुचरणशरणो दर्शनिकस्तत्वपथगृह्यः ॥ १३७ ॥ निरतिक्रमणमण व्रतपञ्चकमपि शीलसप्तकं चापि । धारयते निःशल्यो योऽसौ व्रतिनां मतो व्रतिकः ॥ १३८ ॥ चतुरावर्त्तत्रितयश्चतुष्प्रणामः स्थितो यताजातः । सामयिको द्विनिषद्य स्त्रियोगशुद्धस्त्रिसन्ध्यमभिवन्दो ॥ १३६ ॥ पर्वदिनेषु चतुर्ष्वपि मासे मासे स्वशक्तिमनिगुह्य । प्रोषधनियमविधायी प्रणधिपरः प्रोषधानशनः ॥ १४० ॥
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मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसून बीजानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सवित्तविरतो दयामूर्तिः ॥ १४१ ॥ अन्न पानं खाद्य' लेह्य ं नाश्नाति यो विभावयम् । स व रात्रिभुक्तिविरतः सत्वेष्वनुकम्पमानमनाः ॥ १४२ ॥ मलबीजं मलयोनि गलन्मल' पूतिगन्धिबीभत्स । पश्यन्नङ्गमनङ्गाद्विरमति यो ब्रह्मचारी सः । ॥ १४३ ॥ सेवाकृषिवाणिज्यप्रमुखादारम्भतो व्युपारमति । प्राणातिपातहेतोर्योऽसावारम्भविनिवृत्तः ॥ १४४ ॥ बाह्य दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः । स्वस्थः सन्तोषपर: परिचित्त परिग्रहाद्विरतः ॥ १४५ ॥ अनुमतिरारम्भे वा परिग्रहे वैहिकेषु कर्मसु वा । नास्ति खलु यस्य समधीरनुमतिविरतः स मन्तव्यः ॥ १४६ ॥ गृहतो मुनिवनमित्वा गुरूपकण्ठ व्रतानि परिगृहा ।
भैक्ष्याशनस्तपस्यन्नुत्कृष्टश्च लखण्डधरः ॥ १४७॥
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* जिनवाणी संग्रह *
पापमरातिधर्मो बन्धुर्जीवस्य चेति निश्चिन्वन् । समयं यदि जानीते श्र यो ज्ञाता ध्रुवं भवति ॥ १४८ ॥ न स्वयं बीतकलंक विद्या दृष्टिक्रियारत्नकरण्डभावम् । नीतस्तमायाति पतीच्छ्येव सर्वार्थसिद्धिस्त्रिषु विप्रपेषु ॥ १४६ ॥ सुखयतु सुखभूमिः कामिनं कामिनीव सुतमिव जननो मां शुद्धशीला भुनक्तु । कुलमिव गुणभूषा कन्यका संपुनोताजिन पतिपदपद्मप्रेक्षिणी दृष्टिलक्ष्मीः ॥ १५० ॥
६ द्रव्यसंग्रह
जीवमजीवं दव्यं जिनवरबसहेण जेण णिहि । देविन्दविंद वढं वदे तं सर्व्वदा सिरसा ॥ १ ॥ जीवो उवओगमओ अमुक्ति कत्ता सदेह परिमाणो । भोत्ता संसारत्थो सिद्धा सो विस्तसादगई ॥ २ ॥ तिक्काले चदुपाणा इंदिय बलमाउ आणपाणोय 1 वहारा सो जावोचियणयदो दु वेदणा जस्त ॥ ३ ॥ raओगो दुवियप्पो दंसण णाणं व दंसणं चदुधा । चक्खु अचक्खू ओही दंसणमध केवलं पेयं ॥ ४ ॥ णाणं अट्ठवियप्पं मदिसुदि ओही अणाणणाणाणि I मणपजय केवलमवि पञ्चक्खपरोक्खभेयं च ||१५|| अट्टचदुणाणदंसण सामण्णं जीवलक्खणं भणियं । ववहारा सुद्धणया सुद्ध पुण दंसणं जाणं ॥ ६ ॥ वण्ण रस पञ्च गंधा दो फासा अट्ठ श्रिया जीवे । णो संति अमुति तदो बवहारा मुत्ति बंधादो ॥ ७ ॥ पुग्गलकम्मादीणं करता ववहारदो दुणियश्चयदो । चेकम्माणादा सुद्धणया सुद्धभावाणं ॥ ८ ॥ ववहारा सुहदुक्खं
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* द्रव्यसंग्रह *
पुग्गलकम्मफलं पभुजेदि। आदाणिश्चयणयदो चेदणभावं खु आदस्त ॥ ६ ॥ अणुगुरुदेहपमाणा उवसंहारप्पसप्पदो चंदा । असमुहदो ववहारा णिञ्चयणयदो असहदेसो वा ॥१०॥ पुढविजलतेउवाऊवणफ्फदी विवहथावरेइ दी। विगतिग चदुपञ्चरखा तस. जीवा होंति संखादि ॥११॥ समणा अमणा णेया पञ्चे दिय णिम्मणापरे सव्वे । बादरसुहमेइंदो सव्वे पजत्त इदराय ॥१२॥ मग्गणगुणठाणेहिं य व उदसहि हवंति तह असुद्धणया । विष्णेया ससारी सचे सुद्धा हु सुद्धणया ॥१३॥णिकम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेह दो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिचा उप्पादवयेहिं संजुत्ता ॥४॥ अजोवो पुण णेओ पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं । कालो पुग्गल मुनो स्वादिगुणो अमुत्ति सेसा दु॥ १५ ॥ सद्दो वन्धो सुहमो थूलो सण्ठाणभेदनमछाया। उज्जोदादवसहिया पुग्गलदबस्त पज्जाया॥१६॥ गइपरिणयाण धम्मो पुग्गरजोवाण गमणसहयारी नोयं जह मच्छाणं अच्छताणेव सो णेई ॥ १७॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजोवाण ठाणसहयारी । छाया जह पहियाणं गच्छंनाणेव सो धरई ॥१८॥ अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं। जेणं लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १६ ॥ धम्माधम्मा कालो पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो नत्तो परदो अलोगुत्तो ॥२०॥ दवपरिवहरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो । परिणामादो लक्खो वट्टणलक्खो य परमट्टो ॥२१॥ लोयायासपदेसे इक्क के जे ट्ठिया हु इक्क का । रयणाणं रासोमिव ने कालाणू असंखदव्याणि ॥२२॥ एवं छन्भेयमिदं जीवाजावप्पभेददो दव्वं । उत्तं कालविजुत्तं णायव्वा पञ्च अत्थिकाया दु ॥२३॥ संति
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* जिनवाणी संग्रह *
जदो तेणेदे अत्थीति भणति जिणवरा जम्हा । काया इव बहुदेसा तम्हा काया य अत्थिकाया य ||२४|| होंति असंखा जीवे धम्मणअनंत आयासे । मुत्ते तिविह पदसा कालस्सेगो ण तेण सो काओ ||२५|| एयपदेसो वि अणू णाणाखंधप्पदेसदो होदि । बहुदेमो उवयारा तेण य काओ भांति सव्वण्हु ||२६|| जावदियं आयासे अविभागी पुग्गलाणुवद्धं । तं खुपदेसं जाणे सव्वाणुट्टाणदाणरिहं ||२७|| आसवबंधणसंवरणिजर मोक्खा सुपुण्णपात्रा जे । जीवाजीवविसेसा ते वि समासेण पभणाम ||२८|| आसवदि जेण कम्मं परिणामेणप्पणो स विण्णाओ । भावासवो जिणुत्तो कमावणं परो होदि ||२६|| मिच्छत्ताविरदिपमादजोगकोहादओऽथ विष्णेया । पण पण पणदह तिय चदु कमसो भदा दु फुस्स ||३०|| णाणावरणादीणं : जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि ।
वासवोस ओ अणेयभेदो जिणकखादो ||३१|| बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भाववधो सो । कम्मादपदेसाणं अण्णोष्णपवेसणं इरो ||३२|| पर्याडिट्टिदिअणुमा गाप्पदेसमंदा दु चदुविधो बंधो | जोगा पर्याsपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होंति ||३३|| चेदणपरिणामो जो कम्मसासवणिरोहणे हेऊ । सो भावसंवरो खलु दव्यासवरोहणअण्णा || ३४ || वदलमिदीगुत्तोओ धम्माणुपिहा परीसहजओ य । चारितं बहुमेयं णायव्वा भावसंवरविसेसा ||३५|| जहकालेण तवेण य भुत्तरतं कम्म पुग्गलं जेण । भावेण सड़दि या तस्सणं चेदि णिजरा दुविहा ॥ ३६ ॥ सव्वस्स कम्मणो जो खयहेदू अपणो हु परिणामो । ओस भावमोक्खा
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व्यविमोक्खो य कम्मपुधभावो ||३७|| सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं
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* मोक्ष शास्त्रम् *
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न्धुरोहिद्रोहितास्याहरिद्धरिकान्तासीतासीतोदानारीनरकांतासुवर्णरूप्यकृलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ॥ २०॥ द्वयोद्वयोः पूर्वा पूर्वगाः ॥ २१ ॥ शेषास्त्वपरगाः ॥२२॥ चतुर्दशनदीसहस्रपरिवृता गंगासिध्वादयो नद्यः ॥२३॥ भरतः षड्विंशतिपञ्चयोजनशनविस्तारः षट्कोनविंशतिभागायोजनस्य ॥२४॥ तद्विगुणद्विगु
विस्तारा ॥२५॥ वष धरवर्षा विदेहान्ताः उत्तरा दक्षिणतुल्या:। भरनैरावतयोवृद्धिहासौ षटसमयाभ्यामुत्सप्पियवसपिणीभ्याम् ॥२७॥ ताभ्यामपरा भूमयोऽवस्थिताः ॥२८॥ एकद्वित्रिपल्योपमस्थि. नयो हैमवनदहारिवर्ष कटवकुरवकाः।।२६।।तथोत्तराः॥३०॥विदेहेषु सङ्ख्येयकाला ॥३१॥ भरतस्य विष्कम्भो जम्बूद्वीपस्य नवतिशत. भागः ॥३२॥ द्वि‘तकीखण्ड ॥३३॥ पुष्करार्द्ध च ॥३४॥प्राङमानु षोत्तरान्मनुष्याः ॥३५॥ आर्याम्लेच्छाश्च ॥३६॥ भरनैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्या देवकुरुत्तरकुरुभ्यः ॥३७॥ न स्थिती परावरे त्रिपल्योपमान्तमुहर्ते ॥३८॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥
इति तत्तवार्थाधिगम माज्ञशास्त्रं तृतीयाऽध्यायः ॥३॥ देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ आदितस्त्रिषु पोतान्तलेश्याः ॥ २ ॥ दशाएपञ्चद्वादविकल्पा: कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ इन्द्रसामानिकबायस्त्रिंशतपारिषदात्मरक्षलोकपालनीकप्रकीर्णकाभियोग्यकिल्विपिकाच कशः ॥ ४ ॥ त्रायस्त्रिंशलोकपालवाव्यन्तरज्योतिप्काः ॥५॥ पूर्वयार्दोन्द्राः ॥६॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥७॥ शेषाः स्पर्शरूपशब्दमनःप्रबीचारा ।।दा परेऽप्रवीचाराः।। ६ ॥ भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सु पर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः ॥१०॥ व्यन्तराः किन्नरकिम्पुरुषमहोरगगन्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचा:
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* जिनवाणी संग्रह *
॥ ११ ॥ ज्योतिष्काः सूर्यावन्द्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतराकश्च ॥ १२ ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥१३॥ तत्कृतः कालवि. भागः ॥१४॥ बहिरवस्थिताः ॥१५॥ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्पोपपन्ना कल्पातीताश्च ॥१७॥ उपर्युपरि ॥१८॥ सौधार्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक महाशुक्र शतारसहस्रारंवानतप्राणतयोरारणाच्युनयोर्नवसुवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्तापरा. जितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥१६॥स्थितिप्रभावसुखयु तिलेश्याविशुद्धीन्द्रियावधिविषययोऽधिकाः ॥ २० ॥ गतिशरीरपरिग्रहाऽभिमानतो हीनाः ॥२१॥ पीतपद्मशुक्ललेश्याद्वित्रिशेषेषु ॥२२॥ प्राग्वे यकेभ्यः कल्पाः ॥२३॥ ब्रह्मलोकालयालौकान्तिकाः ॥ २४ ॥ सारस्वतादि त्यवहयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥ २५॥ विजयादिषु द्विचरमाः ॥२६॥ औपपादिकमनुष्येभ्यःशेषास्तिर्यग्योनमयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमाद्धहीनमिताः ॥२८॥ सौधर्मेशानयोः सागरोपमे अधिके ॥ २६ ॥ सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३० ॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपञ्चदशिभिरधिकानि तु ॥३१॥आरणाच्युतादूर्द्धमेकेकेन नवसु वेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थ सिद्धी च ॥ ३२ ॥ अपरापल्योपममधिकम् ॥ ३३ ॥ परतः परतः पूर्वापूर्वानन्तरा ॥ ३४ ॥ नारकाणां च द्वितीयादिषु ।। ३५ ॥ दशवर्ष सहस्राणि प्रथमायाम् ।। ३६॥ भव नेषु च ॥ ३७॥ व्यन्तराणां च ॥३८॥ परापल्योपममधिकम् ॥३॥ ज्योतिष्काणां च ॥४॥ तदष्टभागोऽपरा ॥४१॥ लौकान्तिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ॥ ४२॥
इति तत्त्वार्थाधिगमे मोजशास्त्रे चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
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• मोक्षशास्त्रम् *
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अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥ १॥ द्रव्याणि ॥२॥ जीवाश्च ॥ ३ ॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥ ४ ॥ रूपिणः पुद्गला: ॥५॥ आआकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥ निष्क्रियाणि च ॥ ७ ॥ असङ्कयेयाः प्रदेशाः धमाधमैं कजीवानाम् ॥८॥ आकाशस्यानन्ता: ॥ ६ ॥ सङ्ख्येयासङ्ख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥ १०॥ नाणोः ॥ ११ ॥ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ धर्माधर्मयोः कुस्ने ॥१३॥ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥ असङ्ख्येयभागादिषु जीवानाम् ॥ १५॥ प्रदेशसंहार विसर्पाभ्यां प्रदीपवत् ॥ १६ ॥ गति स्थित्युपग्रहौ धमाधम्मेयोरुपकारः ॥ १७॥ आकाशस्यावगाहः ॥ १८ ॥ शरीरवाङ्मनः प्राणापानाः पुद्गलानाम् ॥१६॥ सुखदुखजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥२॥ वर्तनापरिणामक्रिया परत्वापरत्वे व कालस्य ॥२२॥ स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्यो तवन्तश्च ॥ २४ ॥ अणवःस्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ भेदसवातेभ्य उत्पद्यन्ते ॥ २६ ॥ भेदादणुः ॥ २७ ॥ भेदसाताभ्यां चाक्षुषः ॥ २८ ॥ सद्दव्यलक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त सत् ॥ ३० ॥ तनावाव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥ अर्पितानर्पित सिद्धेः ॥ ३२ ॥ स्नग्धरुक्षत्वाबन्धः ॥ ३३ ॥ नजधन्यगुणानाम् ॥ ३४॥ गुणसाम्ये सदशानाम् ॥ ३५ ॥ द्वयधिकादिगुणानां तु ॥ ३६ ॥ बन्धेऽधिको पारिणामिकौ च ॥ ३७ ॥ गुणपर्यायवद्र्व्यम् ॥ ३८ ॥ कालश्च ॥ ३६॥ सोऽनन्तसमयः ॥४०॥ द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः ॥४१॥ सद्भावः परिणामः ॥ ४२ ॥
इति तत्वार्थाधिगमे मोजशास्त्र पंचमोऽध्यायः ॥५॥
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* जिनवाणी संग्रह
कायवाङ्मनः कम्मंयोगः ॥ १ ॥ स आस्रवः ॥ २ ॥ शुभः पुण्यस्याशुभः पापस्य ॥ ३ ॥ सकपायाकपाययोः साम्परायिकेपथयोः || ४ || इन्द्रियकपायात्रतक्रियाः पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः ॥ ५ ॥ तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीये विशेषेभ्यस्तद्विशेषः ॥ ६ ॥ अधिकरणं जीवाऽजीवाः ॥ ७ ॥ आद्य संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्च तुच कशः ॥ ८ ॥ निवर्तनानिक्षेप संयागनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदाः परम् ॥ ६ ॥ तत्प्रदोषनिह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः ॥ १० ॥ दुःखशोकतापाक्रन्दनबध परिदेव नान्यात्मपरीभयस्थानान्यसद्यस्य ॥ ११ ॥ भूतवृध्यनुकम्पादान सरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्यस्य || १२ || केवल तसङ्घधम्म देवावर्णवादी दर्शनमाह्स्य || १३ || कषायोदयात्तीत्रपरिणामश्चारित्रमाहस्य || १४ || बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः ॥१५॥ मायातैर्यग्यानस्य ॥ १६ ॥ अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य ||१७|| स्वभावमादेवं च ॥ १८ ॥ निःशीलवततत्वं च सर्वेषाम् ॥ १६॥ सरागसंयमसंयमासंयमाऽकामनिज राबालतपांसि दैवस्य ॥ २० ॥ सम्यक्त्वं च || २१ || योगवक्रता विसंवादनं चाशुमस्य नाम्नः ||२२|| तद्विपरीतं शुभस्य || २३ || दर्शनविशुद्धिर्विनय सम्पन्नताशीलवतेष्वनतोवारोऽ भाक्ष्णज्ञानोपयोग संवेगौशक्तितस्त्यागतपसा साधुसमाधिर्वैयावृत्य करणमहदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन भक्तिर। वश्य कापरिहाणिर्मा प्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य ॥ २४ ॥ परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणाच्छादनोद्भावने च नोचैर्गोत्रस्य ||२५|| तद्विपर्ययौ नीचेवृत्यनुत्सेकौवोत्तरस्य ॥ २६ ॥ विघ्नकरणमन्तरायस्य ॥ २७ ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्र षष्ठोऽध्यायः ॥ ६॥
३०
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* मोक्षशास्त्रम् *
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हिंसानतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्या विरतिव्रतम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ तत्स्थैर्यार्थ भावनाः पञ्च पञ्च ॥३॥ वाङ मनोगुप्तोर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च ॥ ४ ॥ क्रोधलोभभोरुत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवोचिभाषण च पञ्च ॥ ५ ॥ शन्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादा पञ्च ॥६॥ स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मोहराङ्गनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टरसस्वशरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७ ॥ मनोज्ञामनोज्ञ न्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च ॥ ८ ॥ हिंसादिविहामुत्रापायावद्यदर्श नम् ॥ ६ ॥ दुःखमेव वा ॥ १० ॥ मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनयेषु ॥ ११ ॥ जगत्कायस्वभावो वा संवेगवैराग्यार्थम् ॥ १२ ॥ प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥ १३ ॥ असदभिवानमनतम् ॥ १४ ॥ अदत्तादानं स्तेयम् ॥ १५ ॥ मैथुनमब्रह्म ॥ १६ ॥ मूर्छा परिग्रहः ॥ १७ ॥ निःशल्यो व्रती ॥ १८ ॥ अगायनगारश्च ॥ १६ ॥ अणुव्रतोऽगारी ॥ २० ॥ दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमा णातिथिसंविभागवतसम्पन्नश्च ॥ २१॥ मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ॥ २२ ॥ शङ्काकांक्षावचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्ट रतीवाराः ॥२३॥ व्रतशोलेषु पञ्च पञ्च यथाक्रमम् ॥२४॥ वन्धवधच्छे दातिभारारोपणानपाननिरोधा ॥ २५ ॥ मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥ २६ ॥ म्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मानप्रतिरू पकव्यवहाराः ॥२७॥ परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहोताऽपरिगृहीता गमनानङ्गक्रीडाकामतीवाभिनिवेशाः ॥ २८ ॥ क्षेत्रवास्तुहिरण्य
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४.
* जिनवाणी संग्रह *
* जिन
महषिर्म हितोदयः ॥ ४॥ महाक्लेशांकुशः शूरो महाभूतपतिर्मुसः । महापराक्रमोऽनंतो महाकोधरिपुर्वशी ॥५॥महाभवाब्धिसंतारिर्महा. मोहाद्रि सूदनः । महागुणाकरः क्षांतो महायोगेश्वरः शमो ॥६॥ महाध्यानपतिाता महाधर्मा महाव्रतः । महाकर्मारिहात्मज्ञो महादेवो महेशिता ॥७॥ सर्वक्ल शापहः साधुः सर्वदोषहरो हरः । असंख्ये योऽप्रमेयात्मा शमात्मा प्रशमाकरः ॥ ८॥ सर्वयोगीश्वरोऽविन्त्यः श्रुतात्मा विष्टरश्रवाः । दान्तात्मा दमतीर्थेशो योगात्मा ज्ञानसर्वगः ॥६॥ प्रधानमात्मा प्रकृतिपरमः परमोदयः। प्रक्षोणबंधकामारि: क्षेमकृत्क्ष मवासनः ॥१०॥णवः प्रणयः प्राणः प्रणादः प्रणतेश्वरः प्रमाणं प्रणिधिदक्षो दक्षिणोध्वर्युरध्वरः ॥११॥ आनन्दोनंदनो नंदो वन्द्योऽनिंद्योऽभिनन्दनः । कामहा कामदः काम्यः कामधेनुररिजयः ।।
इति महामुन्यादिशतम् ॥६॥ असंस्कृतः सुसंस्कारः प्राकृतो वकृतांतत । अंतत्कांतगुःकां. तश्चितामणिरभीष्टदः ॥१॥ अजितो जितकामारिरमितोऽमितशास. नः । जितकोधो जितामित्रो जितक्लेशो जितांनकः ॥२॥ जिनेन्द्रः परमानन्दो मुनोन्द्रो दुन्दुभिस्वतः । महेन्द्रबन्यो योगीन्द्रो यतीन्द्रो नाभिनन्दनः ॥२॥ नाभेयो नाभिजो जातः सुव्रतो मनुरुत्तमः । अभे. द्योऽनत्योनवानधिकोऽधिगुरुःसुधीः ॥४॥ सुमेधा विक्रमी म्वामी दुराधर्षो निरुत्सुकः । विशिष्टः शिष्टभु शिष्ट प्रत्ययः कर्मणोऽनघः ॥५॥ क्षमी क्षेमंकरोऽक्षय्यः क्षेमधर्मपतिः क्षो । अग्राह्यो माननि ग्राह्मो ध्यानगम्यो निरुत्तरः ॥६॥ सुकृतो धातुरिज्याहः सुनयश्चतुरा. ननः । श्रीनिवासश्चतुर्वक्रश्चतुरास्यश्च तुर्मुखः ॥७॥ सत्यात्मा सत्वविज्ञानः सत्यवाक् सत्यशासनः सत्याशोः सत्यसन्धानः सत्यः
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* श्रीजिनलहस्त्रनाम *
४१
सत्यपरायणः॥८॥ स्थेयान्स्थवीयान्नेदीयांन्दवीयान्दूरदर्शनः । अणो रणीयाननगुरुरो गरीयसाम् ॥६॥ सदायोगः सदाभोगः सदा तृप्तः सदाशिवः । सदागतिः सदासौख्यः सदाविद्यः सदोदयः ॥ १०॥ सुघोषः सुमुखः सौम्यः सुखदः सुहितः सुहृत् । सुगुप्ता गुप्तिभृ लोकाध्यक्षो दमीश्वरः ॥ ११ ॥
इति असंस्कृतादिशतम् ॥ ७ ॥
वृहन्वृहस्पतिर्वाग्मी वाचस्पतिरुदारधीः । मनीषिधिषणो धोमाञ्छेपशा गिरां पतिः ॥ १ ॥ नेकरूपो नयस्तुङ्गो नेकात्मा raiत् । अविशेयोऽप्रतत्मा कृतज्ञः कृतलक्षणः ॥ २ ॥ ज्ञानगर्मी दयागर्भो रत्नगर्भाःप्रभास्वरः । पद्मगर्भ जगदभ हेमगर्भः सुदर्शनः ॥ ३ ॥ लक्ष्मीवांस्त्रिदशाध्यक्षो दृढीयानिन ईशिता । मनोहरो मनोशाङ्गो धीरो गम्भीरशासनः ॥ ४॥ धर्मयूपो दयायागो धर्मनेमिमुनीश्वरः । धर्मचक्रायुधो देवः कर्महा धर्मघोषणः ||५|| अमोघवागमोघाज्ञो निर्मलोऽमोघशासनः । सुरूपः सुभगस्त्या गो समयज्ञः समाहितः ||६|| सुस्थितः स्वास्थ्यभाक्स्वस्थो नीरजस्को निरुद्धवः । अलेपो निष्कलङ्कात्मा वीतरागो गतस्पृहः ॥ ७ ॥ वश्येन्द्रियो विमुक्तात्मा निःसपत्नो जितेन्द्रियः । प्रशान्तोऽनन्तधाम पिङ्गलं मलहानघः ॥ ८ ॥ अनीद्रगुपमाभूतो दृष्टिदेवमगोचरः । अमृत मूर्तिमानेको नैको नानकतत्त्वक ॥ ६ ॥ अध्यात्मगस्यो गम्यात्मा योगविद्योगवन्दितः । सर्वत्रगः सदाभावी त्रिकालविषयाक ॥ १० ॥ शंकरः शब्दो दान्तो दमी क्षान्तिपरायणः । अधिपः परमानन्दः परात्मज्ञः परात्परः ॥ ११ ॥ त्रिजगद्वलभोऽस्यत्रिजगन्मङ्गलोदयः । त्रिजगत्पतिपूजाङ्घिस्त्रि खिलोकाग्रशिखामणिः ॥ १२ ॥ इति वृहदादिशतम् ॥ ८ ॥
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* जिनवाणो संग्रह *
त्रिकालदर्शी लोकेशो लोकधाता दृढ़वतः। सर्वलोकानिगः पूज्यः सर्वलोकैकसारथिः ॥२॥ पुराणपुरुषः पूर्वः कृतपूर्वाङ्गविस्तरः। आदिदेवः पुराणायः पुरुदेवोऽधिदेवता ॥२। युगमुख्यो युगज्येष्ठो युगादिस्थितिदेशकः । कल्याणवर्णः कल्याण: कल्यः कल्याणलक्षण: ॥३॥ कल्याणप्रकृतिदीप्तः कल्याणान्मा विकल्मषः । विकलङ्कः कला. नीतःकलिलनःकलाधरः॥४॥देवदेवो जगन्नाथो जगन्दबन्धुर्जगद्विभुः। जगद्धितैषी लोकज्ञः सर्वगो जगदग्रजः ॥ ५॥ चराचरगुरुर्गोप्यो गूढात्मा गूढ गोचरः । सद्योजातः प्रकाशात्मा ज्वलज्ज्वलनसप्रभः ॥६॥ आदित्यवर्णो भाभःसुप्रभः कनकप्रभः । सुवर्णवर्णो रुक्माभ. मूर्यकोटिसमप्रभः ॥७॥ तग्नीयनिभस्तुङ्गो बालार्काभोऽनलप्रभः । संध्याभ्रबभ्र हे माभस्तप्तचामीकरच्छविः॥८॥निष्टप्त कनकच्छायः कनस्काञ्चनसन्निभः । हिरण्यवर्ण : स्वर्णाभः शातकुम्भनिभप्रभः ॥६। युम्नभाजातरूपाभो दीप्तजाम्बूनदद्युतिः । सुधौतकलधौतश्री:प्रदीप्तो हाटका निः ॥१०॥शिष्ट ष्टः पुष्टिदः पुष्टः स्पष्टः स्पष्टानाक्षमः। शत्रु. नोप्रतिघोऽमोघः प्रशास्ता शासिता स्वभूः ॥ ११ ॥ शान्तिनिष्ठा मुनिज्येष्ठः शिव तातिः शिवप्रदः ।शान्तिदः शान्तिकृच्छान्तिः कांतिमान्कामितप्रदः ॥ १२॥ श्रेयोनिधिरविष्ठान मप्रनिष्ठः प्रतिष्ठिनः । सुस्थितः स्थावर: स्थाणुः प्रथोयान्प्रथिन. पृथुः ॥१३॥
इति त्रिकालदादिशतम् ॥६॥ दिग्वासा वातरशनो निर्ग्रन्थेशो निरम्बरः निष्कञ्चनो निराशंसो बातचक्षुरमोमुहः ॥ १॥ तेजोराशि निरन्तौजा ज्ञानाब्धिः शीलसागरः । तेनोमयोऽमितज्योनियोतिषूर्तिस्तमोपहः ॥२॥जगचूडामणिदीप्तः सर्वविघ्रविनायकः । कलिनः कर्मशत्रुघ्नो लोका
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* श्रीजिन सहस्रनाम *
लोकप्रकाशकः ||३|| अनिद्रालुरतन्द्रालुर्जागरूकः प्रभामयः । लक्ष्मीपतिजंग ज्योतिर्धर्मराजः प्रजाहितः || ४ || मुमुक्षुर्वन्धमोक्षनो जिताश्रो जितमन्मथः । प्रशान्तर से शूलूषो भव्यपेटकनायकः ॥ ५ ॥ मूल कर्ताखिलज्योतिर्मलघ्नो मूलकारणः । आप्तो वागोश्वरः श्रेयःञ्छ्रासोक्तिर्निरुक्तवाक् ॥ ६ ॥ प्रवक्ता बचसामीशो मारजिद्विश्वभाववित् । सुननुस्तनुनिर्मुक्तः सुगतो हनदुनयः ॥ ७ ॥ श्रीशः श्रीश्रितपादाब्जो वीतवीरभयङ्करः । उत्सन्नदोषो निर्विघ्नो निश्चलो लोकवत्सलः || ८|| लोकोत्तरो लोकपतिर्लो कचक्षुरपारधीः । धीरधोबुद्धसन्मार्ग. शुद्धः सूनूनपूतवाक् ॥ ६ ॥ प्रज्ञापारमितः प्राज्ञो यतिर्नियमितेन्द्रियः । भदन्तो भद्रकद्भद्रः कल्पवृक्षे वरप्रदः ॥ १० ॥ समुन्मूलिन कर्मारिः कर्मकाष्टाशुशुक्षणः । कमण्यः कर्मठः प्रांशुर्ह यादेयविचक्षणः ॥११॥ अनन्त शक्तिरच्छेद्यस्त्रिपुरारिस्त्रिलोचनः । त्रिनेत्रत्र्यम्बकस्त्र्यक्षः केवलज्ञानवीक्षणः ॥ १२ ॥ समन्तभद्रः शांनारिर्धर्माचाय दयानिधिः । सूक्ष्मदर्शो जितानङ्गः कृपालुर्धर्मदेशकः ||१३|| शुभंयुः सुखसाद्भूतः पुण्यराशिरनामयः । धर्मपालो जगत्यालो धर्मसाम्राज्यनायकः ||१४||
४३
इति दिग्वासाद्यष्टोत्तरशतम् ॥ १० ॥
धानांपते तवामृनि नामान्यागमको विहैः । समुञ्चितान्यनुध्यायन्पुमान्पूतस्मृतिर्भवेत् ॥ १ ॥ गोचरोऽपि गिरामासां त्वमवाग्गोचरो मतः । स्तोता तथाप्यसंदिग्धं त्वत्तोऽभीष्टफलं भवेत् ॥२॥ त्वमतोऽसि जगबन्धुस्त्वमतोऽसि जगद्भषक् । त्वमतोऽसि जगद्धाता त्वमतोऽसि जगद्धितः ||३|| त्वमेकं जगतां ज्योतिस्त्वं द्वि. रूपोपयोगभाक् । त्वं त्रिरूपेकमुक्त्यङ्ग सोत्थानन्तचतुष्टयः ॥ ४ ॥
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४४
* जिनवाणी संग्रह *
त्वं पञ्चब्रह्मतत्त्वात्मा पवकल्याणनायकः । षड़भेदभावतत्वज्ञस्त्वं सप्तनयसंग्रहः ।।५॥ दिव्याष्टगुणमूर्तिस्त्वं नवकेवल ब्धिकः । दशा. वतारनिर्धायों मां पाहि परमेश्वर ॥ ६॥ युष्प्रनामावलीधविलसत्स्तोत्रमालया। भवन्तं वरिवस्यामः प्रसीदानुगृहाण नः ॥७ ।। इदं स्तोत्रमनुस्मृत्य पूतो भवति त्राक्तिक । यः स पाठं पठत्येनं स स्यात्कल्याणभाजनम् ।।८॥ ततः सदेई पुण्यार्थों पुमान्पठति पुण्य. . धीः । पोरुहूतीं श्रियं प्राप्नुपरमामभिलाषुकः ।।६।।
इति भगवजिनसेनाचार्यविरचितादिपुराणान्तर्गतं
जिनसहनश्नामस्तवनं समाप्तम । १२ एकोभावस्तोत्रम् ।
(श्रीवादिराजप्रणीतम्) एकीभावं गत इव मया यः स्वयं कर्मबन्धो घोरं दुःखं भवभवगतो दुर्निवार: करोति । तस्याप्पस्य त्वयि जिनरवे भक्तिरुन्मुक्तये चेज्जेतु शक्यो भवति न त्या कोपरस्तापहेतुः ॥ १ ॥ ज्योतोक दुरितनिवधान्तविध्वंसहेतु त्वामेवाहुर्जिनवर ! विरं तात्वविद्याभियुक्ताः । चेतॊवासे भवसि च मम स्फारमुद्भासमानस्स्मिन्नंहः कथमिव तमो वस्तुतो वस्तुमोप्टे ॥२॥ आनन्दाश्रुस्न पितवदनं गद्गद वा भिजल्पन्यश्चायेत त्वयि दृढ़मनाः स्तोत्रमन्त्र - भवन्तम। तस्याभ्यस्तादपि च सुविरं देहवल्मीकमध्यानिष्कास्यन्ते विविधविषमव्याधयः काद्रवेयाः ॥ ॥ प्रागेवेह त्रिदिवभव नादेष्यता भव्यपुण्यात्पृथ्वीवक्र कनकमयतां देव निन्ये त्वयेदम् । ध्यानद्वारं मम रुविकर स्वान्तगेहं प्रविष्टस्तहिक वित्रं जिन ! वपुरिदं
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* महावीराष्टकस्तोत्रम् -
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कुंथगिरि सोय ॥ कुलभूषण देशभूषण नाम । तिनके चरणन करूह प्रणाम ॥१७॥ जसरथराजाके सुत कहे । देशकलिंग पांचसो लहे ॥ कोटि शिला मुनि कोटिप्रमान । बंदन करू जोर जुगपान ॥ १८ ॥ समवसरण श्रीपार्श्वजिनंद । रेसंदीगिरि नयनानन्द ॥ वरदत्तादि पंच ऋषिराज । ते वंदौं नित धरमजिहाज ॥ १६ ॥ तीन लोकके तीरथ जहां । नित प्रति वंदन कीजे तहां। मन क्व कायसहित सिर नाय । वंदन करहिं भविक गुण गाय ॥२०॥ संवत सतरहसौ इकताल । अश्विन सुदि दशमो सुविशाल ॥ "मैया" वंदन करहि त्रिकाल जय निर्वाणकांड गुणमाल ॥ २१ ॥
इति निर्वाणकांड भाषा । १६ महाकाराष्टकस्तोत्रम् ।
शिखरिणी छन्दः । यदीये चैतन्ये मुकुर इव भावाश्चिदचितः । समं भांति ध्रौव्यव्ययजनिलसन्तोऽन्तरहिताः ॥ जगत्साक्षो मार्गप्रकटनपरो भानु. रिख यो । महावीरस्वामी नयनपथगामो भवतु मे (न:) ॥१॥ अताम्र यचक्षुः कमलयुगलं सन्दरहितं। जानान्कोपापायं प्रकटयति वाभ्यन्तरमपि ॥ स्फूटं मूर्तियस्य प्रशमितमयी वाति विमला । महावीर० ॥२॥ नमन्नाकेन्द्राली मुकुटमणिभाजालजटिलं । लसत्पादाम्भोजद्वयमिह यदोयं तनुभृतां ॥ भवज्ज्वाला शान्त्यै प्रमपति जल वा स्मृतमपि । महावीर० ॥३॥ यदर्थाभावेन प्रमुदितमना ददुर इह । क्षणादासीत्व! गुणगणसमृद्धःसुस्वनिधिः ॥ लभन्ते सद्भक्ताः शिवसुखसमाजं किमु तदा । महावीर० ॥४॥ कनवर्णा
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* जिनवाणी संग्रह *
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भासोऽप्यपगततनुर्माननिवहो । विचित्रात्माप्येको नपतिवरसिद्धाथतनयः ॥ अजन्मापि श्रीमान् विगतभवरागोद्भुतगतिः । महावीर० ॥५॥ यदीया वाग्गङ्गा विविधनयकल्लोलविमला । वृहज्ञानाम्भोभिर्जगति जनतां या स्नपयति ॥ इदानीमप्येषा बुधजनमराल : परिचिता । महावीर० ॥ ६ ॥ अनिर्वारोद्रेकस्त्रिभुवनजयी कामसुभटः । कुमारावस्थायामपि निजवलाद्येन विजितः ॥ स्फुरन्नित्यानन्द प्रशमपदराज्याय स जिनः । महावीर० ॥ ७॥ महामोहातङ्कप्रशमनपराकस्मिकभिषम् । निरापेक्षा बन्धुर्विदितमहिमा मङ्गलकरः ॥ शरण्यः साधूनां भवभयभृत्तामुत्तमगुणो। महावीर० ॥८॥ महावीराष्टकं स्तोत्रं भक्त्या भागेन्दुना कृतम्। यः पठेच्छु. णुयाश्चापि स याति परमां गतिम् ॥ ६ ॥
१७ महावीराष्टक भाषा
पं० गजाधरलालजी, न्यायतीर्थ जिन्होंकी प्रज्ञामें, मुकुरसम चैतन्य जड़ भी, स्थिती नांशोत्पत्ती, युत झलकते साथ सब ही। जगद्शाता मार्ग, प्रकट करते सूर्यसम जो, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥१॥ जिन्होंके दो चल, पलक अरु लाली रहित हो, जनोंको दर्शाते, हृदयमत क्रोधातिलयको। जिन्होंकी शांतात्मा, अतिविमलमूर्ती स्फुटमहा, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥२॥ नमते इंद्रोंके, मुकुटमणिकी कांति धरता, जिन्होंके पादोंका युग, ललित, संतप्त जनको। भवानीका हर्ता, स्मरण करते ही सुजल है, महावोरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥३॥ जिन्होंकी पूजाले, मुदित
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* अकलंक स्तोत्र *
मन हो मेंढक जी, हुआ स्वर्गो ताहो, समय गुणधारो अति. सुखी । लहैं जो मुक्तीके, सुख भगत तो विस्मय कहा, महावीर. म्वामी, दरश हमको दें प्रगट वे ॥ ४॥ तपे सोने ज्यों भो, रहित बपुसे, नानगृह हैं, अकेले नाना भी, नुपतिवर सिद्धार्थ सुन-हैं । न जन्मे भो श्रीमान्, भवरत नहीं अद्भुतगती, महावीरस्वामी दरश हमको दें प्रकट बे ॥ ५॥ जिन्होंकी वाग्गंगा, अमल नयकल्लोल धरती, न्हवाती लोगोंको, सुविमल महा ज्ञान जलसे। अभी भी सेते हैं, बुधजन महाहंस जिसको, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे॥ ६॥ त्रिलोकीका जेता, मदनभट जो दुर्जय भहा, युवावस्थामें भी, वह दलित कोना स्वबलसे। प्रकाशी मुक्तीके, अतिसुसुखदाता जिनविभू, महावीरस्वामी, दरश हमको दें प्रकट वे ॥ ७॥ महामोहव्याधी, हरणकरता वैद्य सहज, बिना इच्छा बंधू, प्रथितजग कल्याण करता। सहारा भन्योंको सकल जगमें उत्तम गुणी, महावीरस्वामो, दरश हमको दें प्रकट वे ॥८॥
संस्कृत वीराटक रच्यो, भागचन्द रविवान । तस भाषा अनुवाद यह, पढ़ि पावै निर्वान ॥ ६ ॥
१८ अकलंक स्तोत्र ।।
शार्दूल विक्रीडित छन्द। त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयंसालोकमालोकितम् । साक्षा. छन यथा स्वयं करतले रेखांत्रयं सांगुलि ॥ रागद्वेषभया मयान्तकजरा लोलत्वलोभादयो, नालं यत्पदलंघनाय स महादेवो मया वंद्यते ॥१॥ दग्धं येन पुरत्रयं शरभवा तीब्राचिषा बन्हिमा ।
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* जिनवाणी संग्रह -
यो वा तत्पति मत्तवरिपतृवने यस्यात्मजो वा गुहः ॥ सोऽयं किं मम शङ्करो भयतृषारोषार्तिमोहक्षयं । कृत्वा यः स तु सर्बबित्तनुभृनां क्षेमकरःशङ्करः ॥ २॥ यत्नाद्येन विदारितं कररुहैदैत्येन्द्रवक्षः स्थलम् । सारथ्येन धनञ्जयस्य सारे योऽमारयत्कौरवान् ॥ नासो विष्णुरनेककालविधयं यज्ज्ञानमव्याहतम्। विश्वव्याप्यविजम्भते सतु महाविष्णुःसदृष्टो मम ॥ ३॥ ऊर्वश्यामुदपादि रागवलं
चेतो यदीयं पुनः । पात्री दण्डकमण्डलुप्रभृतयो यस्याकृतार्थस्थितिम् ॥ आविर्भावयितु भवन्ति स कथं ब्रह्माभवेन्मादृशाम् । क्षुत्त. ष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोऽस्तु नः ॥ ४॥ योजग्ध्वा पिशितंसमत्स्यकबलं जीवंच शून्यं बदन् । कर्ताकर्मफल न भुक्त इतियो बक्ता स बुद्धःकथम् ॥ यज्ञानं क्षणवर्ति वस्तु सकले ज्ञातुं न शक्त सदा। योजानन्युगपजगत्त्रयमिदं साक्षात्सबुद्धो मम ॥५॥
स्रग्धरा छन्द-ईशः किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूल. पाणि: कथं स्यात् । नाथः किं भक्ष्यचारी यतिरिति स कथ सांगनः सात्मजश्च ॥ आर्द्राजः किन्त्वजन्मा सकलविदिति किं वेति नात्मा. न्तरायः । सक्षपात्सम्यगुक्त पशुपतिमपशुः कोऽत्र धीमानुपास्ते ॥ ६॥ ब्रह्मा वर्माक्षसूत्री सुरयुवतिरसावेग विभ्रांतताः । शम्भुः खरवाङ्गधारीगिरिपतितनयापांग लीलानुविधः । विष्णुश्चकाधिपः सन्दुहितरमगमेद्गोपनाथस्य मोहादहन्विश्वस्तरागो जितसकलभयः कोऽयमेष्वाप्तनाथः ॥ ७॥
शार्दूल विक्रोडित छन्द-एको नत्यति विप्रसार्य ककुभां चक्र सहस्र भुजानेकः शेषभुजङ्गभोगशयने व्यादाय निद्रायते। दृष्ट चारुतिलोत्तमामुखमगा देकश्चतुर्वक्त्रता । मेते मुक्तिपत्रं वदन्तिविदुषा मित्येतदत्यनतम् ॥८॥
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६६
* जिनवाणी संग्रह *
वयं विताधिकारः । मुक्ताकलापकलितोरुसितातपत्रव्याजात्त्रिधा धृतधनुधुवमभ्युपेतः ॥ २६ ॥ स्वेन प्रपूरितजगत्त्रय पिण्डितेनकान्तिप्रतापयशसामिव सञ्चयेन । माणिक्यहेमरजतप्रविनिर्मितेन सालत्रयेण भगवन्नमितो विभासि ||२७|| दिव्यास्त्र जो जिन नमस्त्रिदशाधिपानामुत्सृज्य रत्नरचितानपि मौलिबन्धान् । पादौ श्रयन्ति भवतो यदि वा परत्र त्वत्सङ्गमे सुमनसो न रमन्त एव ॥ २८ ॥ त्वं नाथ जन्मजलधेर्विपराङ्मुखोऽपि यत्तारयस्त्यसुमतो निजपृष्ट लग्नान् । युक्त हि पार्थिवनिपस्य सतस्तवैव चित्रं विभो यति कर्मविपाकशून्यः ॥ २६ ॥ विश्वेश्वरोऽपि जनपालक दुगतस्त्वं किं वाक्षरप्रकृतिरप्य लिपिस्त्वनीश | अज्ञानवत्यपि सदैव कथंचिदेव ज्ञानं त्वयि स्फुरति विश्वविकासहेतुः ॥ ३० ॥ प्राभारसम्भृतनमांसि रजांसि रोपादुत्थापितानि कमठेन शठेन यानि । छायापि तैस्तव न नाथ हता हताशो ग्रस्तस्त्वमीभिरयमेव परं दुरात्मा ॥ ३१ ॥ यङ्गर्ज दूर्जितघनौघमदभ्रभीमं भ्रश्यत्तडिन्मुसलमांसलघोरधारम् । दैत्येन मुक्तमथ दुस्तरवारि द तेनैव तस्य जिन दुस्तरवारिकृत्यम् ॥ ३२ ॥ ध्वस्तोर्ध्वकेशविकृताकृतिमत्येमुण्डप्रालम्बभृद्भयदवक्त्रविनिर्यदग्निः । प्रेतव्रजः प्रति भवन्तमपीरितो यः सोऽस्याभवत्प्रतिभवं भवदुःखहेतुः ॥ ३३ ॥ धन्यास्त एव भुवनाधिप ये त्रिसन्ध्यमाराधयन्ति विधिवद्विधुतान्यकृत्याः । भक्तयोलसत्पुलकपक्षमलदेहदेशाः पाद द्वयं तव विभो भुवि जन्मभाजः ॥ ३४ ॥ अस्मिन्नपारभववारिनिधौ मुनीश ! मन्ये न मे श्रवणगोचरतां गतोऽसि आकर्णिते तु तव गोत्रपवित्रमन्त्रे किं वा विपद्विषधरी सबिधं समेति ॥३५॥
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* कल्याणमन्दिरस्तोत्रम् *
जन्मान्तरेऽपि तव पादयुगं न देव ! मन्ये मया महितमीहितदानदक्षम् । तेनेह जन्मनि मुनीश ! पराभवानां जातो निकेतनमहं म थिताशयानाम् ॥ ३६ ॥ नूनं न मोहतिमिरावृतलोचनेन पूर्व विभो सकृदपि प्रविलोकितोऽसि । मर्माविधा (भिदों) विधुरयन्ति हि मामनथी: प्रोद्यत्प्रबन्धगतयः कथमन्यथैते ॥ ३७ ॥ आकर्णितोपि महितोऽपि निरीक्षितोपि नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या । जातोऽस्मितेन जनबांधव दुःखपात्र' यस्मात्क्रिया: प्रतिफलन्ति न भावशून्याः ॥ ३८ ॥ त्वं नाथ दुःखिजनवत्सल हे शरण्य कारुण्पुण्यवसते वशिनां वरेण्य । भक्त्या नते मयि महेश दयां विधाय दुःखाङ्कुरो - द्दलनतत्परतां विधेहि ॥ ३६ ॥ निःसंख्यसारशरणं शरणं शरण्यमासाद्य सादितरिपुप्रथितावदानम् । त्वत्पादपङ्कजमपि प्रणिधानवन्थ्यो वन्ध्योऽस्मि तद्भुवनपावन हा हतोऽस्मि ॥४०॥ देवेन्द्रवन्य विदिताखिलवस्तुसार संसारतारक विभो भुवनाधिनाथ । त्रायस्व देव करुणाहद मां पुनीहि सीदन्तमद्य भयदव्यसनान्बुराशेः॥ ४१ ॥ यद्यस्ति नाथ भवदङ्घ्रिसरोरुहाणां भक्त : फल' किमपि सन्ततसचितायाः । तन्मे त्वदेकशरणस्य शरण्य भूयाः स्वामी त्वमेव भुवनेऽत्र भवान्तरेऽपि ॥ ४२ ॥ इत्थं समाहितधियो विधिवज्जिनेन्द्र सान्द्रोल्लसत्पुलक कञ्चुकिताङ्गभागाः । त्वद्विम्ब निर्मलमुखाम्बुजब
लक्ष्याः ये संस्तवं तव विभो रचयन्ति भव्याः ॥ ४३॥ जननयनकुमुदचन्द्र- - प्रभास्वराः स्वर्गसम्पदो भुक्त्वा । ते विगलितम लनिचया अचिरान्मोक्ष प्रपद्यन्ते ॥ ४४ ॥
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# जिनवाणी संग्रह *
२१ कल्याण मन्दिर (भाषा)
दोहा - परमज्योति परमात्मा, परमज्ञान परवीन । बदू परमानन्दमय, घट घट अन्तर लीन | चौपाई |
निर्भय करण परम परधान । भव समुद्र जल तारण यान ॥ शिव मन्दिर अघहरण अनिन्द | बन्दू पाश्वं चरण अरविन्द ॥ १ ॥ कमठ मान भञ्जन बरवोर । गरिमा सागर गुण गम्भीर ॥ सुर गुरु पारि लहै नहिं जासु । मैं अजान गुणु जम्य नासु ॥२॥ प्रभु स्वरूप अति अगम अथाह । क्यों हमसे यह होय निवाह ! ज्यों दिन अन्ध उलूको पोत । कहि न सकें रवि किरण उद्योत ॥३॥ मोह होन जाने मन माहि । तोहि न तुल गुण बरणे जाहि ॥ प्रलय पयोधि करे जल बौन । प्रगटहि रत्न गिने तिहि कौन ॥ ४ ॥ तुम असंख्य निर्मल गुण खान । मैं मतिहीन कहौं निजबान ॥ ज्यों बालक निज बाहि पसार । सागर परिमित कहे विचार ||५॥ जो योगोन्द्र करहिं तप खेद । तेउ न जानहिं तुम गुण भेद ॥ भक्ति भाव मुझ मन अभिलाष । ज्यों पक्षी बोलेँ निज भाष ॥६॥ तुम यश महिमा अगम अपार । नाम एक त्रिभुवन आधार ॥ आवै पवन पद्म सर होय । ग्रीष्म तपन निर्वारे सोय ॥७॥ तुम आवत भविजन मन मांहिं । कर्म निवन्ध शिथिल हो जाहिं ॥ ज्यों चन्दन तरु बोलें मोर । डरहिं भुजङ्ग च चहुं ओर ||८|| तुम निरखत जन दोन दयाल । सङ्कट तें छूटे तत्काल ॥ ज्यों
पशु घर लेहिं निशि चोर। ते तज भागहि देखत भोर ॥६॥
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* कल्याण मन्दिर *
तुम भविजन तारक किम होय। ते वितधार तिरहि ले तोय ॥ यह ऐसे कर जान स्वभाव । तरहिं मशक ज्यों गर्भित बाव ॥१०॥ जिन सब देव किये वश धाम । तिन छिनमें जीतो सो काम । ज्यों जल कर अग्नि कुल हान । बड़वानल पीवे सोपान ॥११॥ तुम अनन्त गुरुवा गुण लिये । क्यों कर भक्त धरै निज हिये ॥ है लघु रूप तरहिं संसार । यह प्रभु महिमा अगम अपार ॥ १२ ॥ क्रोध निवार कियो मन शान्ति । कर्म सुभट जीते केहि भांति ॥ यह पटुनर देखहु संसार । नील वृक्ष ज्यौं दहै तुषार ॥ १३ ॥ मुनि जन हिये कमल निज टोहि । सिद्धस्वरूप सम ध्यावै तोहि ॥ कमल कणिका बिन नहिं और । कमल बीज उपजनकी ठौर ॥१४॥ जब तुम ध्यान धरे मुनि कोय । तब विदेह परमातम होय ॥ जैसे धातु शिला तनु त्याग । कनक स्वरुप धवै जब आग ॥१५॥ जाके मन तुम करहु निवास। बिलय जाय सब विग्रह तास ॥ ज्यों महन्त बिव आवै कोय । विग्र मूल निर्वारै सोय ॥१६॥ करहि विविध जो आतम ध्यान । तुम प्रभाव तें होय निदान ॥ जैसे नीर सुधा अनुमान । पीवत विष विकारकी हान ॥ १७ ॥ तुम भगवन्त विमल गुण लीन । समल रूप मानहिं मतिहीन ॥ ज्यों नलिया रोग द्वग गहै । वर्ण विवर्ण शङ्ख सो कहै ॥ १८ ॥ ___ दोहा—निकट रहित उपदेश सुन, तरुवर भयो अशोक । ज्यों रवि उगते जीव सब, प्रगट होत भुवि लोक ॥ १६ ॥ सुमन वृष्टि ज्यों सुर करहिं, हेठ बोठ मुख सोय। त्यों तुम सेवत सुमन जान बन्ध अधोमुख होय ॥२०॥ उपजी तुम हिय उदधि तें वाणो सुधा समान । जिहिं पीवत भविजन लहै, अजर अमर पदथान ॥ २१ ॥
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* इष्ट छत्तोसी *
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पन्थ भक्ति रचना कर पूरे। एञ्च कल्याणक ऋद्धि पाय निश्च दुख चूरै ॥ २४ ॥ अहो जगत्पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे। तुम गुण कीर्तन माहि कौन हम मन्द विचारे ॥ थुति छल सो तुम घिर्ष देव आदर विस्तारे। शिव सुख पूरण हार कल्पतरु यही हमारे ॥ २५ ॥ बादराज मुनिराज शब्द विद्याके स्वामी। बादराज मुनिराज तक विद्यापति नामी ॥ बादराज मुनिराज काव्य करता अधिकारी । बादराज मुनिराज बड़े भवजन उपकारी ॥२६॥
मूल अर्थ बहु विधि कुसुम, भाषा सूत्र मझार । भक्तिमाल भूदर करी, करो कण्ठ सुखकार ॥१॥
(तीसरा अध्याय)
२४ इष्ट छतीसी । सोरठा-प्रणमू श्री अरहंत, दयाकथित जिन धर्मको । गुरु मिरग्रंथ महत, अवर न मानू सर्वथा ॥ १ ॥ बिन गुणकी पहिचान जाने वस्तु समानता । तातें परम बखान,परमेष्टी गुणको कहूं ॥२॥ रागोषयुत देव, मानै हिसाधर्म पुनि । सग्रन्थगुरुको सेव, सो मिथ्याती जग भ्रमै ॥३॥
अरहतके ४३ मूल गुण । दोहा-चौतीसों अतिशय सहित, प्रातिहार्य पुनि आठ । अनत चतुष्ठय गुणसहित, छोयालीसों पाठ ॥ ४ ॥
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* जिनवाणी संग्रह
अर्थ-.३४ अतिशय, ८ प्रातिहार्य, ४ अनतचतुष्टय ये अहं. नके ४६ मूलगुण होते हैं। अब इनका भिन्न २ वर्णन करते हैं ।
जन्मके १० अतिशय । अतिशय रूप सुगन्ध तन, नाहि पसेव निहार । प्रियहिमववन अतौल बल, रुधिर श्वेत आकार । लच्छन सहसरु आठ तन, समचतुष्कसंठान । वज्रवृषभनाराच युत,ये जनमत दश जान ॥६॥
अर्थ-? अत्यन्त सुन्दर शरीर, २ अति सुगन्धमय शरीर, पसेवरहित शरीर, ४ मलमूत्ररहित शरोर, ५ हित मितप्रियवचन बोलना, ६ अतुल बल, ७ दुग्धवत् श्वेत रुधिर, ८ शरीरमें एक हजार आठ लक्षण, समचतुरस्त्रसंस्थान १० बज्रबृषभनारावरहनन ये दश अतिशय अरहंत भगवानके जन्मसे ही उत्पन्न होते है।
केवलज्ञानके १० अतिशय ।। योजन शत इको सुभिक्ष,गगनगमन मुख चार । नहि,अदया उपसर्ग नहि, नाहीं कवलाहार ॥ सब विद्या ईश्वरपनों, नाहि बढ़े नख केश । अनिमिष द्वग छायारहित, दश वलके वेश ॥८॥
अर्थ–१ एक सौ योजनमें सुभिक्षता; अर्थात् जिस स्थानमें केवलो हों उनसे चारों तरफ सौ सौ योजनमें सुकाल होता है, २ आकाशमें गमन, ३ वार मुखोंका दोखना, ४ अदयाका अभाव, ५ उपसर्गरहित, ६ कवल (ग्रास) वर्जित आहार, ७ समस्त विद्या. ओंका स्वामीपना, ८ नखकेशोंका नहीं बढ़ना : नेत्रोंकी पलके नहीं झपकना, १० छायारहित शरीर। ये १० अतिशय केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे प्रगट होते हैं ॥८॥
देवकृत १४ अतिशय ।
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* इष्ट छत्तीसी *
देवरचित हैं चार दश,अर्द्धमागधी भाष । आपस मांहीं मित्रता निरमल दिश अआकाश ॥६॥ होत फूल फल मृतु सबे, पृथवी काच समान । चरण कमलतल कमल हे, नभ ने जय जय बान ॥१०॥ मन्द सुगन्ध बयारि पुनि, गंधोदककी वृष्टि । भूमिविर्षे कंटक नहीं, हर्षमयी सब सृष्टि ॥१९॥ धर्मचक आगे रहे,पुनि वसु मङ्गल सार । अतिशय श्रीअरहन्तके, ये चौतीस प्रकार ॥
अर्थ ---१ भगवानकी अर्द्धमागधी भाषाका होना, २ समस्त जीवोंमें परस्पर मित्रताका होना, ३ दिशाओंका निमल होना, ४ आकाशका निर्मल होना, ५ सब ऋतुके फल पुष्प धान्यादिकका एक ही समय फलना,६ एक योजनतककी पृथिवीका दर्पणवन निर्मल होना, ७ चलते समय भगवान्के चरण कमलके तले सुवर्ण कमलका होना, ८ आकाशमें जय जय ध्वनिका होना, ह मंदसुगन्धित पवनका चलना, १० सुगन्धमय जलकी वृष्टि होना, ६६ पवनकुमार देवोंके द्वारा भूमिका कण्टक रहित होना, १२ समम्ल जीवोंका आनन्दमय होना, १३ भगवानके आगे धर्मचक्रका चलना, १४ छत्र, चमर, ध्वजा, घन्टादि अष्ट मङ्गल द्रव्योंका साथ रहना । इस प्रकार सब मिलाकर ३४ अतिशय अरहन्त भगवानके होते हैं ॥१२॥
अष्ट प्रातिहार्य । तरु अशोकके निकटमें, सिंहासन छबिदार । तीन छत्र सिरपर लसें भामंडल पिछवार ॥१३॥ दिव्यध्वनि मुखते खिर पुष्पवृष्टि सुर होय । ढारे चौसठि वमर लख । बाजै दुदुभि जोय ॥१४॥
अर्थ-१, अशोकवृक्षका होना, २ रनमय सिंहासन, ३ भग
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* जिनवाणी संग्रह
वानके सिरपर तीन छत्रका फिरना, ४ भगवानके पीछे भामण्डलका होना, ५ भगवानके मुखसे दिव्ध्वनिका होना, ६ देवाके द्वारा पुष्पवृष्टिका होना, ७ यक्षदेवोंद्वारा चोसठ चंवरोका दुरना, दुंदुभी बाजोका बजना ये आठ प्रातिहार्य है 1
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अनन्तचतुष्टय |
ज्ञान अनन्त अनन्त सुख, दरस अनन्त प्रमान ।
बल अनन्त अरहंत सा, इष्टदेव पहिचान || १५|| अर्थ - १ अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान, ३ अनन्तसुख, ४ अनन्तवीय जिसमें इतने गुण हा, वह अरहन्त परमेष्टी है । अष्टादशदोषवर्जन 1
जनम जरा तिरषा क्षुधा विस्मय आरत खेद | रोग शोक मद मोह भय निद्रा चिन्ता खेद ॥ १६ ॥ राग द्वेष अरु मरण जुन, यह अष्टादश दोष । नाहिं होत अरहंतके सो छबि लायक मोप ।
अर्थ - १, जन्म, २ जरा, ३ तृषा, ४ क्षुधा, ५ आश्चर्य, ६ अरति (पीड़ा), ७ खेद, (दु:ख), ८ रोग, ६ शोक. १० मद, ११ मोह, १२ भय, १३ निद्रा, १४ चिन्ता, १५ पसीना, १६ राग, १७ द्वप, १८ मरण ये १८ दोष अरहन्त भगवानमें नहीं होते ॥ १७॥
सिद्धोंक ८ गुण ।
समकित दरसन ज्ञान, अगुरलघु अवगाहना । सूच्छम वीरजवान निराबाध गुन सिद्धके ॥१८
अर्थ -१ सम्यक्त्व, २ दर्शन, ३ ज्ञान, ४ अगुरुलघुत्व, ५ अव. गाहनत्व, ६ सूक्ष्मत्व, ७ अनन्तवीर्य्य, ८ अव्यावाधत्व ये सिद्धों के ८ मूलगुण होते हैं |
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* इष्ट छतोसी *
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आचार्यके ३६ गुण -- द्वादश नप दश धर्मजुत पालैं पञ्चाचार ।
षट् आवशिक त्रयगुप्ति गुन आचारज पदसार ॥ अर्थ-तप १२, धर्म १०, आचार ५, आवश्यक ६, गुप्ति ३ ये आचार्य महाराजके ३६ मूलगुण होते हैं। अब इनको भिन्न २ कहते है ॥१६॥
द्वादश तप । अनशन ऊनोदर करें, जनसंख्या रस छोर । विविक्तशयन आसन ध काय कलेश सुठोर । प्रायश्चित धर विनयजुत वैयावत स्वाध्याय । पुनि उत्सर्ग विचारकै धर ध्यान मन लाय ॥२१॥
अर्थ-१ अनशन, २ ऊनोदर, ३ व्रतपरिसंख्यान, ४ रसपरि. त्याग, ५ विविक्तशय्याशन, ६ कायक्लेश, ७ प्रायश्चित लेना, ८ पांच प्रकारका विनय करना, ६ वैयाव्रत करना, १० स्वाध्याय करना ११ व्युत्सर्ग ( शरीरसे ममत्व छोड़ना ). और १२ ध्यान करना ये बारह प्रकारके तप है ॥२१॥ दश धर्म-छिमा मारदव आगजब, सत्यवचन चित पाग।
संजम तप त्यागी सरव, आकिंचन तियत्याग ॥ अर्थ-१ उत्तमक्षमा, २ मादेव, ३ आर्जव, ४ सत्य, ५ शौच, ६ संयम, ७ तप, ८ त्याग, ६ आकिंचन, १० ब्रह्मचर्य ये दश प्रकारके धर्म है ॥२२॥ पट आवश्यक-समता धर बंदन करे, नाना थुती बनाय ।
प्रतिक्रमण स्वाध्यायजुत, कायोत्सर्ग लगाय ।। अर्थ-१ समता ( समस्त जीवोंसे समता भाव रखना )२, बंदना, ३ स्तुति (पञ्चपरमेष्ठीको स्तुति ) करना, प्रतिक्रमण (लगे
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4C
* जिनवाणो संग्रह *
हुए दोषोंपर पश्चाताप) करना, ५ स्वाध्याय, और ६ कायोत्सग (ध्यान) करना ये छह आवश्यक हैं ॥२३॥
पंचाचार और तोन गुप्ति। दर्शन ज्ञान चारित्र तप, वीरज पंचाचार । गोपे मनवचकायको, गिन छत्तीस गुन सार ॥
अर्थ -१ दर्शनावार, २ ज्ञानाचार, ३ चारित्रावार, ४ तपा. चार, ५ वीर्याचार, १ मनोगुप्ति मनको वशमें करना, २ वचनगुप्ति वचनका वशमें करना, ३ कायगुप्ति शरीरको वशमें करना, इस प्रकार सब मिलाकर आचार्यके ३६ मूलगुण हैं ॥२४॥
उपाध्यायके २५ गुण । चौदह पूरबको धरे, ग्यारह अङ्ग सुजान । उपाध्याय पञ्चीस गुण, पढ़े पढ़ावें ज्ञान ॥२५॥
अर्थ-११ अङ्ग १४ पूर्वको आप पढ़े और अन्यको पढाव ये ही उपाध्यायके २५ गुण है ॥२५॥
ग्यारह अङ्ग। प्रथमहि आचारांग गुनि, दूजा सूत्र कृतांग । ठाण अङ्ग तीजो सुभग, चोथो समवायांग ॥२६॥ व्याख्या प्रति पवमो, झातृ कथा पट आन। पुनि उपासकाध्ययन है, अन्तःकृत दशठान ॥ अनुत्तरणउत्पाद दश, सूत्रविपाक पिछान । बहुरि प्रश्नव्याकरणजुत, ग्यारह अङ्ग प्रमान ॥ ___ अर्थ-१ आवारांग, २ सूत्रकृतांग, ३ स्थानांग ४ समवायांग, ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६ ज्ञातृकथांग, ७ उपासकाध्ययनांग, ८ अन्तः कृतदशांग, ६ अनुत्तरोत्पाददशांग, १० प्रश्नव्याकरणांग, ११ वि.
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* इष्ट छतोसी *
पाकसूत्रांग, ये ग्यारह अङ्ग हैं ॥२८॥
___ चौदह पूर्व । उत्पादपूर्व अग्रायणी, तोजो वीरजवाद । अस्ति नास्ति परवाद पुनि, पंचम ज्ञानप्रवाद ॥ छट्टो कर्मवाद है. सतप्रवाद पहिवान । अष्टम आत्मप्रवाद पुनि, नवमों प्रत्याख्यान ॥३०॥ विद्यानुवाद पूरव दशम, पूर्वकल्याण महत। प्राणवाद किरिया बहुल, लोकबिंदु है अन्त ॥३१॥ ___ अर्थ-१ उत्पादपूर्व, २ अप्रायणि पूर्व, ३ वीर्ष्यानुवादपूर्व, ४ अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व, ज्ञानप्रवादपूर्व, ६ कर्मप्रवादपूर्व, ७ सत्प्रवा. दपूर्व, ८ आत्मप्रवादपूर्व, ६ प्रत्याख्यानपूर्व, १० विद्यानुवादपूर्व, ११ कल्याणवादपूर्व,१२ प्राणानुवादपूर्व,१३ क्रियाविशालपूर्व, १४ लोकबिन्दुपूर्व ये १४ पूर्व है ।।
सर्वसाधुके २८ मूलगुण । पंचमहाव्रत-हिंसा अन्त तस्करो, अब्रह्म परिग्रह पाय । मन. वचतनने त्यागवो, पंचमहावृत थाय ॥३२॥
अर्थ - ? अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, ३ अचौर्य महाव्रत, ४ ब्रह्मचर्य महाव्रत, ५ परिग्रहत्याग महावत, ये पांच महाव्रत है। पांच समिति -- ईटा, भाषा, एषणा,पुनि क्षेपन, आदान । प्रतिष्ठापनाजुत क्रिया, पांचों समिति विधान ॥
अर्थ- ईर्ष्या समिति, २ भाषासमिति, ३ एषणासमिति ४ आदाननिक्षपणसमिति,५ प्रतिष्ठापनासमिति, ये पांच समिति हैं ।
पांच इन्द्रियोंका दमन । सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत्रका रोध ।
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* जिनवाणी संग्रह *
पट आवशि मंजन तजन, शयन भूमिको शोध ॥
अर्थ
-१ स्पर्शन ( त्वक् ), २ रसना, ३ घ्राण, ४ न्रक्षु, और श्रोत्र - इन पांच इन्द्रियोंका वश करना सो इन्द्रियदमन है (छह
५
आवश्यक आचार्य के गुणोंमें देखो ) ॥३४॥
शेष सात गुण ।
वस्त्रत्याग कचलोंच अरु,
लघु, भोजन इकबार | दांतन मुखमें ना करें, ठाड़े लेहिं अहार ॥३५॥
अर्थ - १ यावज्जीव स्नानका त्याग, २ शोधकर (देख भाल कर) भूमिपर सोना, ३ वस्त्रत्याग (दिगम्बर होना ), केशोंका लौंच करना, ५ एक बार लघु भोजन करना, ६ दन्तधावन नहीं करना, ७ खड़े खड़े आहार लेना, इन सात गुणांसहित २८ मूल गुण सर्व मुनियोंके होते हैं ||३४||
साधर्मी भवि पाठनको, इएछतीसी ग्रन्थ ।
ཙ
अल्पबुद्धि बुधजन रच्यो, हिनमित शिवपुरपन्थ || इति पंचपरमेष्टी १४३ मूलगुणों का वर्णन समाप्त ।
२५ दर्शनपाठ ।
अनादिनिधन महामंत्र |
णमो अरहन्ताण', णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ १ ॥
मंदिरजी की वेदीगृह में प्रवेश करते हो “जय जय जय निःसहि, निःसहि निःसहि" इस प्रकार उच्चारण करके उपर्युक्त महामंत्रका ६ वार पाठ करे । तत्पश्चात् -
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* दशन पाउ *
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वत्तारि मंगलं - अरहंत मंगलं । सिद्ध मंगल साहू मंगल केवलिपण्णत्तो धम्मो मङ्गलं । वत्तारि लोगुत्तमा । अरिहन्त लोगोत्तमा सिद्ध लोगुत्तमा । साहू लोगुत्तमा । केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥२॥ चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहन्त सरणं पव्त्रज्जामि । सिद्धसरणं पवज्जामि । साहसरणं पवज्जामि । केवपिण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वजामि ॥ ॐ झौं झौं स्वाहा ॥ वर्तमान चौबीस तीर्थंकरोके नाम ।
श्री ऋषभः १ अजितः २ संभवः ३ अभिनन्दनः ४ सुमति: ५ पद्मप्रभः ६ सुपार्श्वः ७ चंद्रप्रभः ८ पुष्पदन्तः ६ शीतलः १० श्रीयांस ११ वासुपूज्यः १२ विमल: १३ अनन्तः १४ धर्मः १५ शांति: १६ कुन्धुः १७ अर: १८ मल्लिः १६ मुनिसुव्रतः २० नमिः २१ नेमिः २२ पार्श्वनाथः २३ महावीरः २४ इति वर्तमानकालसम्बन्धी चतुर्विंशतितोर्थ करेभ्यो नमो नमः ।
अद्य मे सफल' जन्म, नेत्रे व सफले मम । त्वामद्रांक्षं यतो देव हेतुमक्षयसम्पदः ॥ १ ॥ अद्य संसारगम्भीरपारावारः तुदुस्तरः | सुतरोऽय क्षणेनेव जिनेन्द्र तब दर्शनात् ॥२॥ अद्य मे क्षालितं गा.
नेत्र व विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतोर्येषु जिनेन्द्र तत्र दर्शनान् ॥ ३॥ अद्य मे सफल जन्म प्रशस्त सर्वमङ्गलम् संसारार्णartist जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥४॥ अय कर्माष्टकज्वाल बिधूतं कषायकम् । दुर्गतेर्विनिवृत्तोऽह जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥५॥ अय सोम्या मृहाः सर्वे शुभाच कादशास्थिताः । नष्टानि विघ्नजालानि जिनेन्द्र तव नर्शनात ॥ ६॥ अद्य नष्टो महाबन्धः कर्मणा दु:खदायकः । सुखसंगं समापन्नो जिनेन्द्र तव दर्शनात् ॥७॥ अद्य क
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* जिनवाणी संग्रह *
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माष्टकं नष्ट' दुःखोत्पादनकारकम् । सुखाम्भोधिनिमग्नोऽहं जिनेन्द्र तब दर्शनान् ॥ ८ ॥ अद्य मिथ्यान्धकारस्य हन्लाज्ञानदिवाकरः । उदितो मच्छरीरेऽस्मिन् जिनेन्द्र नव दर्शनात् । ६॥ अद्याह सुकृती भूतो निर्धूनाशेषकल्मषः । भुवनत्रयपूज्योऽह जिनेन्द्र तव दर्शनात ॥ १० ॥ चिदानन्द करूपाय जिनाय परमात्मने । परमत्माप्रकाशाय नित्यं सिद्धात्मने नमः ॥११॥ अन्यथा शरणं नास्तित्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्य भावेन रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥१२॥न हि त्राता न हि त्राता न हि त्राता जगत्रये। वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति ॥१३॥ जिने भक्तिजि ने भक्तिजि ने भक्तिदिने दिने। सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भरे भवे ॥ १४ ॥ जिनधर्मविनिमुक्त मा भवन चक्रवत्यति । स्यान्चेटोऽपि दरि. द्रोऽपि जिनधर्मानुवासितम् ॥१५॥
इस प्रकार बोलकर साष्टांगनमस्कार करना चाहिये। नमम्कारके पश्चात् पूजनके लिये चांवल चढ़ाना हो तो नीचे लिखा श्लोक तथा मन्त्र पढ़कर चढ़ावे ।।
अपारसंसारमहासमुद्रप्रोत्तारणे प्राज्यतरीन्सुभक्त्या । दीर्घाक्षताड धवलाक्षतोघेर जिनेन्द्र सिद्धान्तयतीन् यजेऽहम् ।। ॐ ह्रीं अक्षयपदप्राप्तये देवशास्त्रगुरुभ्योअक्षतान् निवपामि । यदि पुष्पोंसे पूजन करना हो तो नीचे लिखा श्लोक पढ़ें।
विनीतभव्याजविबोधसूर्यान् वर्यान सुचर्याकथनकधुर्यान् ।
कुन्दारविन्दप्रमुखप्रसूनैर जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् यजेऽहम् ॥२॥ ॐ ह्रीं कामबाणविध्वंसनाय देवशास्त्रगुरुभ्यः पुष्य निर्वामि ।
यदि किसीको लोंग, बदाम, इलायची या कोई प्रासुक हरा
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* दशन पाठ *
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फल चढाना हो तो, नीचे लिखा श्लोक और मन्त्र पढ़कर चढ़ावे । क्षुभ्यद्विलुभ्यन्मनसाऽप्यगम्यान कुवादिवादाऽस्खलितप्रभावान् ।
फलैरलं मोक्षफलाभिसारैर जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् यजेऽहम् ॥ ॐ ह्रीं मोक्षफलप्राप्तये देवशास्त्रगुरुभ्यः फल निर्वपामि ॥
यदि किसीको अर्घ चढ़ाना हो, तो नीचे लिखा श्लोक पढ़ें। सद्वारिगन्धाक्षतपुष्पजातेर नैवेद्यदीपामलधूपधू म्रः। फलेविचित्रर्धनपुण्ययोग्यान जिनेन्द्रसिद्धान्तयतीन् योऽहम् ॥ ॐ ह्रीं अनर्यपदप्राप्तये देवशास्त्रगुरुभ्योऽध ।
इम प्रकारके द्रव्योंमेंसे जो द्रव्य हो, उसी द्रव्यका श्लोक व मन्त्र पढ़कर वह द्रव्य चढ़ाना चाहिये। तत्पश्चात् नीचे लिखी दोनों स्तुतियां अथवा दोनोमेंस कोई एक स्तुति अवश्य पढ़नी चाहिये।
२६ दौलतराम कृत स्तुति दोहा-साल ज्ञ य ज्ञायक तदपि, निजानन्दरसलीन ।
सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरिरजरहसबिहीन ।। जय वीतराग विज्ञानपूर । जय मोहतिमिरको हरनसूर ॥ जय ज्ञान अनन्तानन्तधार । द्वगसुख वोरजमण्डित अपार ॥ १ ॥ जय परमशांति मुद्रा समेत। भविजनको निज अनुभूति हेत ॥ भवि भागनवश जोगे वशाय । तुम धुनि ह सुनि विभ्रम नशाय ॥ २ ॥ तुम गुण चिन्नत निज पर विवेक । प्रघटे, विघटे आपद अनेक ॥ तुम जगभूषण दूषणवियुक्त । सब महिमायुक्त विकल्पमुक्त ॥ ३ ॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतन स्वरूप। परमात्म परमपावन अनूप ॥ शुभ
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१०
* जिनवाणो संग्रह *
अशुभ विभाव अभाव कीन । स्वाभाविक परिणतिमय अछीन ॥४॥ अष्टादशदोष विमुक्त धीर। सुचतुष्टयमय राजत गंभोर ॥ मुनि गणधरादि सेवत महंत । नवकेवल लब्धिरमा धरन्त ॥५॥ तुम शासन सेय अमेय जीव । शिव गये जाहिं जै हैं सदीव ॥ भव. सागरमें दुःख छारवारि । नारनको और न आप टारि ॥६॥ यह लखि निजदुःखगदहरणकाज। तुमही निमित्त कारण इलाज ।। जाने तानै मैं शरण आय । उचरों निज दुख जो चिर लहाय ॥७॥ मैं भ्रम्यो अपनयो बिलरि श्राप । अपना ये विधिफल पुण्य-पाए । निजको परको करता पिछान । परमें अनिष्ठता इष्ट ठान ॥ ८ ॥ आकुलित भयो अज्ञानधारि । ज्यों मृग मृगतृष्णा जानि वारि ॥ नन परणतिमें आपो चितारि । कबहूं न अनुभयो म्बरदसार ॥६। तुमको बिन जाने जो कलेश । पाये सो तुम जानत जिनेश । पशु नारक नर सुर गतिमंझार । भव धर धर मस्सो अनन्तवार ॥१॥ अब काललब्धिबलने दयाल । तुम दर्शन पाय भयो खुशाल ॥ मन शान्त भयो मिट सकलद्वंद। चाख्यो म्यातमरस दुखनिकन्द ॥११॥ नान अब ऐसो करहु नाथ । विदुरै न कभी तुत्र वरण साथ । तुम गुणगणको नहिं छेत्र देव । जग तारनको तुभ घिरद एवं ॥ १२ ॥ आतमके अहित विषय कपाय । इनमें मेरी प रणति न जाय ॥ मैं रहूं आपमें आप लोन । सो करो होहुं ज्यों निजाधोन ॥ १३ ॥ मेरे न चाह कुछ और ईश । रत्नत्रयनिधि दोजे मुनीश ॥ मुझ कारनके कारज सु आर । शिव करहु हरहु मम मोहताप।१४। शशि शांतकरन तपहरनहेत । स्वमेव तथा तुम कुशल देत । पोधन पियूष ज्यों रोग जाय । त्यों तुम अनुभवतै भव नसाय ॥ १५ ॥
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* बुधजनकृत स्तुति .
६१
त्रिभुवन तिहुंकाल मंझार कोय। नहिं तुम बिन निजसुख दाय होय ॥ मो उर यह निश्चय भयो आज। दुखजलधि उतारन तुम जिहाज ।। १६॥ दोहा-तुमगुणगणमणि गणपती, गणत न पाहि पार । ____ 'दौल' स्वल्पमति किम कहै, नमूत्रियोग संभार ।।
२७ अथ बुधजनकृत स्तुति प्रभु पतितपावन मैं अपावन, वरन आयो शरणनी। यो विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरनजी ॥ तुम ना पिछान्या आन मान्या, देव विविध प्रकारजी । या बुद्धिसेती निज न जाण्या, भ्रम गिण्या हितकारजी ॥ १॥ भवविकट वनमें करम बैरी, ज्ञानधन मेरो हसो । तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्टगति धरनो फिसो ॥ धन घड़ी यो धन दिवस योही, धन जनम मेरो भयो । अव भाग मेरो उदय आयो, दरश प्रभुको लख लयो ॥ २॥ छवि वीतरागी नगनमुद्रा, दृष्टि नासापै धरै। वसुप्रातहार्य अनन्त गुणयुत, कोटि रविछविको हरें ॥ मिट गयो तिमर मिथ्यात मेरो उदय रवि आतम भयो । मो उर हरख ऐसो भयो, मनु र चिन्तामणि लयो । ३॥ मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक, बीनऊ नव चरनजी। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनो नारन तरनजी ॥ जाचू नहीं सुरवास पुनि, नरराज परिजन साथजी । 'वुध' जाचहूं तुव भक्ति भवभव, दीजिये शिवनाथजी ॥४॥
इस प्रकार एक या दोनों स्तुति पढ़कर पुनः साष्टांग नमस्कार करना चाहिये । नपश्चात् नीचे लिखा श्लोक पढ़कर गंधो. दक मस्तकपर तथा हृदयादि उत्तम अंगोंमें लगाना चाहिये ।
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* जिनवाणी संग्रह *
निर्मलं निर्मलीकरणं पवित्रं पापनाशनम् | जिनगन्धोदकं वंदे अष्टकर्मविनाशकम् ॥ १ ॥ यदि आशिका लेनी हो, तो यह दोहा पढ़कर लेना चाहिये । दोहा - श्रीजिनवरकी आशिका, लीजे शीश चढ़ाय ।
भवभवके पातक करें, दुःख दूर हो जाय ॥ १ ॥" तत्पश्चात् नीचे लिखे दो अथवा एक कवित्त पढ़कर शास्त्रजीको साष्टांग नमस्कार करके शास्त्रजीको सुनना चाहिये । अथवा थोड़ी बहुत किसी भी शास्त्र को स्वाध्याय करना चाहिये ।
२८ जिनवाणी माताकी स्तुति ।
वीरहिमाचल निकसो. गुरुगौतमके मुख कुंड डरी है। मोह महाचल भेद चलो, जगकी जड़ता तप दूर करी है ॥ ज्ञानपयोनिधिमाहिं रली बहुभङ्ग तरङ्गनिसों उछरा है । या शुचि शारद गंगनदी प्रति, मैं अंजुलीकर शोस घरी है ॥ १ ॥ या जगमंदिरमें अनिवार अज्ञान अंधर छ्यो अति भारी । श्रीजिनकी धुनि दीपशिखासम, जो नहिं होत प्रकाशनहारी ॥ तो किस भांति पदारथपांति, वहां लहते रहते अविचारी । या विध संत कहै धनि है धनि, है जिन वेन बड़े उपकारो || २ ||
६२
रात्रिको भी इसी प्रकार दर्शन करके तत्पश्चात् दीप धूप से नीचे लिखी अथवा जिसपर रुवि हो वह आरती करना चाहिये ॥
२६ पंचपरमेष्टीकी आरती ।
मनवचतनकर शुद्ध पंचपद, पूजो भविजन सुखदाई । सबजन मिलकर दीप धूप ले, करहुं आरती गुणगाई ॥ टंक ॥ प्रथमहिं
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* पंचपरमेष्ठोकी आरती *
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श्री अरहंत परमगुरु, चौतिस अतिशय सहित बसें ॥ प्रातिहार्य वम् अतुल चतुष्टय, सहिय समवसृत मांहि लसैं। श्रुधा तृषा भय जन्म जरा मृत, रोग शोक रति अरति महा। विस्मय खेद म्वेद मद निद्रा, राग द्वेष मिल मोह दहा ॥ इन अष्टादश दोष रहिन नित, इन्द्रादिक पूजत आई ॥सब० ॥ दूजे सिद्ध सदा सुख. दाता, सिद्धशिलापर राजत हैं। सम्यक् दर्शन ज्ञान वाय अरु, सूक्ष्मपणाको छाजत है ॥ *गुरु लघु अवगहन शक्ति घर, बाधा. विन अशरीरा है। तिनका सुमर ण नित्य किये तें, शीघ्र नशत भव पीरा है ॥ या कारण नित चित्तशुद्ध कर, भजहु सिद्ध शिवके राई । सब० ॥ नीजे श्रीआवार्य परमगुरु छत्तिस गुणके धारी हैं। दर्शन ज्ञान चरण तप वीरज, पंचाचार प्रचारी है ॥ द्वादशतप दशधर्म गुप्तित्रय, षट् आवश्यक नित पालें। सब मुनिजनको प्रायश्चित दे, मुनिव्रतके दूषण टालें ॥ ऐसे श्रीआचार्य गुरुनकी, पूजा करिये चिन लाई । सब० ॥ चौथे श्रीउवझायकर णपंकजरज, सुखदा भविजनका । ग्यारह अंग सुपूव वतुदेश, पढ़ें पढ़ा। मुनि गनको ।। मुनिके सब आचरण आचर, द्वादश तपके धारी है। स्यादवाद सुखकारी विद्या, सब जगमें विस्तारी है ॥ ऐसे श्री. उवझाय गुरुनके, चरणकमल पूजहुँ भाई । सब०॥ पंचमि आरति सर्वसाधुकी, आठवीस गुण मूल धरें। पचमहाव्रत पंचसमितिधर, इन्द्रिय पांचों दमन करें ॥ षट् आवश्यक केशलोंच, इक बार खड़े भोजन करते। दांतन स्नान त्याग भू सोक्त, यथाजात मुद्रा धरते ॥ या विधि "पनालाल" पंवपद, पूजत भवदुख नश जाई । सब०॥
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* जिनवाणी संग्रह *
इस प्रकार आरता बोलकर नीचे लिखा श्लोक दोहा और मंत्र पढ़कर आरतीको मस्तक चढ़ावे |
ध्वस्तोद्यमान्धोकृत विश्वविश्वमोहान्धकारप्रतिघातदीपान् । दीपे: कनत्काञ्चनभाजनस्थैर जिनेन्द्र सिद्धान्तयतोन यजेऽहम् दाहा - स्वपरप्रकाशनयोति अति, दोपक तमकर होन । जा पूजूं परम पद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥ २ ॥
३० आलोचना पाठ |
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चोबीसौं जिनराज
1
दोहा - चन्दां पांचो परम गुरु, कहं शुद्ध आलोचना, शुद्ध करनके काज ॥ १ ॥
सखी छन्द ( १४ मात्रा )
इक
सुनिये जिन अरज हमारी । हम दोष किये अति भारी || तिनकी अब निर्वृतिकाजा । तुम शरन लही जिनराजा || २ || वे ते चऊ इन्द्री वा । मनरहित सहित जे जीवा ॥ तिनकी नहिं करुना धारो । निरदई हो घात विचारी ॥ ३ ॥ समरम्भ समारम्भ आरम्भ | मनबचतन कोने प्रारम्भ ॥ कृत कारित मोदन करिकै 1 क्राधादि चतुष्टय धरिकै ॥ ४ ॥ शत आठ जु इम भेदन | अघ कीने परछेदते ॥ तिनकी कहुं को लो कहानी। तुम जानत केवल ज्ञानो ॥ ५ ॥ विपरीत एकांत विनयके । संशय अज्ञान कुनयके ॥ वश होय घोर अघ कीने। बचते नहि जात कहीने ॥ ६ ॥ कुगुरुनकी सेवा कीनी। केवल अदयाकरि भोनो | या विधि मिथ्यात भ्रमायो | चहुंगति मधि दोष उपाया ॥ ७ ॥ हिंसा पुनि झूठ जु चोरी | परवनितासों द्गजोरी | आरम्भपरिग्रह भीनो । पुन पाप
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* आलोचना पाठ *
ज या विधि कीनो ॥ ८॥ सपरस रसना घाननको। वस्ख कान विषय सेवनको ॥ बहु करम किये मनमानी । कछु न्याय अन्याय न जानी ॥ ६ ॥ फल पञ्च उदंबर खाये। मधु मांस मद्य चित वाहे ॥ नहि अए मूलगुणधारी । विसन जु सेये दुखकारी ॥१०॥ दुइ बीस अभख जिन गाये। सो भी निशदिन भुजाये । कछु भेदाभेद न पायो। ज्यों त्यों करि उदर भरायो ॥११॥ अनं. तान जु वधी जानो। प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो॥संचलन चौक. गै गुनिये । सब भेद जु षोड़श सुनिये ॥१२॥ परिहास अरति गति शोग। भय ग्लानि निवेद संजोग ॥ पनवीस जु भेद भये इम । इनके वश पाप किये हम ॥ १३ । निद्रावश शयन कराई । सुपने मधि दोष लगाई ॥ फिर जागि विषय वन धायो। नाना विध विषफल खायो॥ १४ ॥ किये हार हिार विहारा। इनमें तहि जतन विवारा ॥ विन देखी धरी उठाई। विन शोधी भोजन खाई ।। १५॥ तब ही परमाद सतायो। बहु विध विकलप उप. जायो ।। कछु सुधि बुधि नाहिं रही है। मिथ्या मति छाय गई है ॥ १६ ॥ मरजादा तुम ढिग लोनी। ताहू मैं दोष जु कीनी ।। भिन्न २ अब कैसे कहिये। तुम ज्ञान विषे सब पइये ॥ १७ ॥ हा हा मैं दुठ अपराधी। सजीवन राशि विराधी। थावरकी जतन न कीनो। उरमें करुणा नहि लीनी ।। १८॥ पृथिवी बहु खोद कराई। महलादिक जागां चिनाई। पुन विन गाल्यो जल ढोल्यो। पढातें पवन विलोल्यो ॥ १६ ॥ हा हा मैं अदयाचारी। वह हरितकाय जु विदारी ॥ या मधि जीवनिके खंदा। हम खाये धरि आनन्दा ।। २० ॥ हा में परमाद बसाई। बिन देखे अगनि
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* जिनवाणी संग्रह *
जलाई । तामधि जे जीव जु आये। ते ह परलोक सिधाये ॥२१।। बांधो अन रात्रि पिसायो। ईधन बिन सोध्यो जलायो॥ झाड ले जांगा बुहारी। विण्टो आदिक जीव विदारी । २२ ।। जल छानि जीवानी कीनो। सोहू पुनि डारि जु दीनो ॥ नहि जल. थानक पहुंचायो। किरिया बिन पाप उपाई ॥ २३ ॥ जल मलमोरिन गिरवायो कृमि कुल बहु घात करायो ॥ नदियनि बिच चीर धुवाये। कोसनके जोव मराये ॥ २४ ॥ अन्नादिक शोध कराई। तामै ज जीव निसराई । तिनका नहि जतन कराया। गरियाले धूप डराया। २५ ॥ पुन द्रव्य कमावन काज। बहु आरम्भ हिसा साज ॥कीय निसनावश भारी। करुना नहि रञ्च विचारी ॥ २६ ॥ इत्यादिक पाप अनंता । हम कीने श्रीभगवंता ।। सन्तति चिरकाल उपाई। बानीने कहिय न जाई ॥२७॥ ताको ज उदय जब आयो। नानाविध मोहि सतायो॥ फल भुजत जिय दुख पावै। बचते कैसें करि गावै ॥ २८ ॥ तुम जानत केवल ज्ञानी। दुख दूर करो शिवथानी ॥ हम तो तुम शरन लही है। जिन तारन विरद सही है ॥ २६ ॥ जो गांवपनी इक होवे । सो भी दुखिया दुख खोवै ॥ तुम तीन भुवनके स्वामी । दुख मेटो अंतरजामी ॥ ३० ॥ द्रोपदिको चीर बढ़ायो। सोना पनि :कमल रचायो ॥ अंजनसे किये अकामी। दुख मेटो अन्तरयामो जामा ॥३१॥ मेरे अवगुन न चितारो। प्रभु अपनो विरद निहारो॥ सब दोष रहित करि स्वामी। दुख मेंटहु अन्तरजामो ॥ ३२ ॥ इन्द्रादिक पदवी न चाई। विषयनि मैं नाहिं लुभाऊ॥ रागादिक दोष हरोजे । परमातम निजपद दीजे ॥३॥
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* पंचकल्याणक पाठ *
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धर्मवक चले आगे: रवि जहं लाजहीं। फुनि भृगार-प्रमुख वसु; मंगल राजहीं ॥ राजहीं चौदह वारु अतिशय; देवरचित सुहावने । जिनराज केवल ज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा बने ॥ तब इंद्र. आनि कियो महोच्छव: सभा शोभित अति वनी ॥ धर्मोपदेश दियो तहां: उच्छरिय वानी जिनतनो ॥ २० ॥ क्षुधा तृषा अरु राग: द्वेष असुहावने। जनम जरा अरु मरण; त्रिदोष भयावने ॥ रोग शोक भय विस्मय, अरु निद्रा घणो। खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गणो ॥ गणिये अठारह दोष निनकरि: रहित देव निरञ्जनो ॥ नव परमकेवल लब्धिमंडित: शिवरमणि-मनरञ्जनो ॥ श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा: सुनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपवन्द' सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ॥२१॥
श्री निर्वाण कल्याणक । केवलदृष्टि चराचर: देख्यो जारिसो। भविजनप्रति उपदेश्यो; जिनवर तारिसो ॥ भवभयभीत महाजन; शरण आइया । रत्नत्रयलच्छन शिवपंथ लगाइया ॥ लगाइया पंथ जु भव्य फनि, प्रभु नृतिय सुकल जू पूरियो। नजि तेरहें गुणथान योग: अयोग पथ. पग धारियो ॥ पुनि चौदहें चौथे सुकलबल, बहत्तर तेरह हनी । इमि धाति वसुविधि कर्म पहुंच्यो, समयमें पंचमगती ॥२२॥ लोकशिखर तनुवान, बलयमहं संठियो। धर्मद्रव्यविन गमन न; जिहिं
आगे कियो ॥ मयनरहित मूषोदर, अबर जारिसो। किमपि हीन निजतनुते, भयौ प्रभु तारिसो॥ तारिसो पञ्जय नित्य अविचल; अर्थपर्नय क्षणक्षयी। निश्चयनयेन अनन्तगुण विवहार, नय वसु गुणमयी ॥ वस्तु स्वभाव विभावविरहित, शुद्ध परणति परिणयो।
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* जिनवाणी संग्रह *
विद्रूप परमानन्द मंदिर, सिद्ध परमातम भयो ॥ १३ ॥ तनुपरमाणू दामिनिपर, सब खिर गये । रहे शेष नखकेशरूप; जे परिणये । तब हरिप्रमुख चतुरविधि; सुरगण शुभ सच्या। माया मई नखकेश रहित जिनतनु रच्यो ॥ रवि अगर चन्दन प्रमुख, परिमल, द्रव्य जिन जयकारिया। पद पतत अग्निकुमार मुकटानल मुविधि संस्कारियो ॥ निर्वाण कल्याणक सुमहिमा सुनत सब सुख पा. इयो। भण रूपचन्द्र सुदेव जिनवर जगति मङ्गल गाइयो ॥ मैं मतिहीन भक्तिवश भावना भाइयो। मंगल गीत प्रबन्ध सो निज गुण गाइयो । जो नर सुनहि बखानहीं स्वर धरि गावहीं। मन बांछित फल ते नर निश्चय पावहीं ॥ पावें ते आठो सिद्धि नवनिधि मन प्रतीत जो आनिये। भ्रम भाव छूटे सकल मनके जिन स्वरूप ये जानिये। पुनि हरै पातक टरत विघ्न सो होय महल नित नये । भण रूपचन्द्र त्रिलोकपति जिनदेव चौसंगहि गये ।। ॥ इति श्रीजिनेन्द्रनिर्वाण कल्याण मङ्गल समाप्तम् ॥
३२ छहढाला श्रीयुत पण्डित दौलतरामजी कृततोन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहं त्रियोग सम्हारिके ॥
प्रथमढाल-चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । सुख चाहें दुखतें भयवन्त ॥ तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥१॥ ताहि सुनो भवि मन थिर आन। जो वाहो अपनो कल्यान ॥ मोह महा मद
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* छहढाला *
पियो अनादि । भूल आपको भरमत बादि ॥२॥ तास भ्रमण को है बहु कथा पै कछु कहूं कही मुनि यथा ॥ काल अनन्त निगोद मंझार । बीती एकेन्द्री तन धार ॥ ३॥ एक श्वासमें अठदशबार । जन्मो मरो भरो दुख भार ॥ निकस भूमि जल पावक भयो । पवन प्रत्येक बनस्पति थयो ॥ ४ ॥ दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी। त्यों पर्याय लहो त्रस तणी ॥ लट पिपील अलि आदि शरीर। धरधर मरा सही बहुपीर ॥ ५॥ कबहूं पंचेंद्रिय पशु भयो । मन बिन नि. पट अज्ञानो थयो। सिंहादिक सैनी व कर । निर्बल पशु हति खाए भृर ॥६॥ कबहूं आप भयो बलहीन सबलनकर खायो अति दीन । छेदन भेदन भूखरु प्यास । भार बहन हिम आतप त्रास ॥७॥ वध बंधन आदिक दुख घने । कोट जीभकर जात न भने । अतिसंक्त . श भावते मरो । घोर शुभ्र सागरमें परो॥ ८॥ तहां भूमि परसत दुख इसो। बीछू सहस डसें नहि तिसो ॥ तहां राध श्रोणित बाहिनी । कृमि कुल कलित देह दाहिनो ॥ ६ ॥ सेमरतरु जुत दल असिपत्र । असि ज्यों देह विदारे तत्र । मेरुसमान लोह गलजाय । ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ १० ॥ तिल तिल करें देहके खण्ड । असुर भिड़ावे दुष्ट प्रचण्ड । सिंधु नोरते प्यास न जाय। तो पण एक न बूद लहाय ॥ ११॥ तीन लोकको नाज जो खाय । मिट न भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सागरलों सहै। करम योगते नरगति लहै ॥ १२ जननी उदर बसो नवमास । अङ्ग सकुवते पाई त्रास ॥.निकसत जे दुख पाये घोर । तिनको कहत न आवे ओर ॥ १३ ॥ बालपनेमें झान न लयो । तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्धमृतक सम बूढापनो। कैसे रूप लखें आपनो ॥१४॥
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* जिनवाणी संग्रह *
कभी अकाम निर्जरा करे। भवनत्रिकमें सुर-तन धरै ॥ विषय चाह दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुःख सह्यो ॥१५॥ जो विमानवासी हू थाय। सम्यकदर्शन बिन दुख पाय ॥ तहते चय थावर तन धरै । यों परिवर्तन पूरे करै ॥ १६ ॥
द्वितीय ढाल-पद्धरीछंद १५ मात्रा। ऐसे मिथ्या द्वग ज्ञान वर्ण । वश भ्रमत भरत दुःख जन्म मर्ण। ताते इनको तजिये सुमान । सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥ १ ॥ जीवादि प्रयोजन भततत्त्व । सर तिन मांहि विपर्ययत्व ॥ वेत. नको है उपयोग रूप। बिन मूरति चिन्मूरति अनूप ॥२। पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल । इनतैन्यारी है जीव वाल ॥ तान जान विपरीति मान । करि करें देहमें निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी में रङ्क राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुन तिय मैं सबल दीन । वे रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४। तन उपजत अपनी उपजजान । नन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख दैन । तिनहीको सेवन गिनत चैन ॥५॥ शभ अशुभ बंधके फल मकार । रति अरत को निजपद बिसार । आतम हितहेतु विराग ज्ञान । ते लखे औपत कष्ट दान ॥६॥ रोके न चाह निज शक्ति खोय। शिव. रूप निराकुलता न जोय। या ही प्रतीत युत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥७॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त । नाक जानो मिथ्या चरित्त ॥ यो मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह। अब जे गृहीत सुनिये सुतेह ॥८॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोखौं विर दर्शन मोह एव ।। अन्तर रागादिक धरे जेह। बाहर धन अंबरते सनेह ॥६॥ धारे कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जन्म जल
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* छहढ़ाला *
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उमलनाव ॥ जे राग द्वेष मलकरि मलान । बनितागदादि जुन चिन्ह चोन्ह् ॥१०॥ तेहैं कुदेव तिनकी ज सेव । शठ करत न तिन भवभ्रमणछेव ॥ गगादि भाव हिंसा समेत । दर्बित प्रसथावर मरण खेत ॥११॥ जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म । निस सरधे जीव लहे अशर्म ॥ यांक गृहीत मिथ्यान जान । अब सुन ग्रहीत जो है अजान ॥१२॥ एकान्त बाद दूषित समस्त । विषयादिक पोशक अ. प्रशस्त ॥ कपिलादि रचित श्रनका अभ्यास । सोहै कुबोध बहु देन त्रास ॥१३॥ जो ख्यातिलाभ पूजादि वाह। धर करत विविध विध देहदाह ॥ आतम अनात्मके ज्ञान हीन । जे जे करनो तन करन छीन ॥१४॥ ते सब मिथ्या चारित्र त्याग । अब आतमके हितपंथ लाग ॥ जगजाल भ्रमणको देय त्याग । अब दोलत निजआतमसु पाग ॥१५॥
तृतीय ढाल। जोगी रासा। आतमको हित है सुख सो सुख, आकुलता बिन कहिये। आकुलना शिवमांहि न नाते, शिव मग लाग्यो चहिये। सम्यक्. दर्शन ज्ञान चरन शिव, मग सो दुबिधि विचारो। जो सत्यारथ
पसो निश्चय, कारण सों व्यवहागे ॥१॥ परद्रव्यनते भिन्न आप मैं, रुवि सम्यक्त भला है । आप रूपको जानपनो सो, सम्यक आन कला है | आपरूपमें लीन रहे थिर, सम्यक चारित सोई। अब विवहार मोम्व-मग सुनिये, हेतु नियतको होई ॥२॥ जीव अजीव नत्व अरु आश्रत, बंधरु संवर जानो। निजेर मोक्ष बहे निज तिनको, ज्योंको त्यों सरधानो॥ है सोई समकित विवहाकी, अश इन रूप बखानो। तिनको सुन सामान्य विशेषे, दिढ़ प्रतीति उर
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आनो ॥ ३ ॥ बहिरातम अन्तरआतम परमातम जोव त्रिधा है। देह जोवको एक गिने, बहिरातम तत्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम जघन त्रिविधिके, अन्तर आतम ज्ञानी। द्रिविधि संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥ ४ । मध्यम अन्तर आतम हैं जे. देशव्रती आगारो। जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी॥ सकल निकल परमातम हँशिधि तिनमें घाति निवारी। श्री अरहन सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥ ५ ॥ ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ॥ यहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजे। परमातमको ध्याय निरन्तर, जो नित आनंद पूजे ॥ ६ ॥ चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भद ताके हैं। पुद्गल पंचवरण रस गंध दो फरसबम जाके है.॥ जिय पुद्गलको चरन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी। तिष्टत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ॥ ७ ॥ सकलद्रव्यको बास जासमें, सो आकाश पिछानो। नियत बर्तना निशिदिन सो व्यवहार काल परिमानो॥ यो अजीव अब आश्रव सुनिय, मन वच काय त्रियोगा। पिथ्या अविरत अरु कपाय पर, --माद सहित उपयोगा ॥ ८ ॥ ये हो आतमको दुखकारण तातै इनको नजिये । जीव प्रदेश बंध विधिसों सो, बंधन कबहुन सजिये ॥ शमदमतें जो कर्म न आवै. सो वा आदरिये । नप बलनै विधि झरन निरजरा, ताहि सदा पावरिये ॥ ६ ॥ सकलकत रहिन अवस्था, सो शिव घिर सुख कारी। इहिबिधि जो सरधा नत्वनको, सो समकित व्यवहारो॥ देव जिनेन्द्र गुरू परिग्रह विन, धर्मदयायुत सारो। येह मान सम
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* छहढाला *
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कितको कारण, अष्ट अंग जुत धारो ॥ १०॥ वसुमद टारि निवारि त्रिशठता, पट अनायतन त्यागो | शंकादिक बसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ॥ अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपहु कहिये । बिन जाने ते दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये ॥ १.१ ॥ जिन बचमें शंका न धार वृष, भवसुख वांछा मार्ने । मुनितन मलिन न देख घना, तत्वकुतत्व पिछाने || निजगुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावें । कामादिक कर वृपतें विगत निज परको सु दिढ़ावे ॥ १२ ॥ धर्मीसो गऊ बच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावें । इन गुणतै विपरीत दोष बसु, तिनको सतन
पावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूपको मदन ज्ञानको, धनबलको मद भानें ॥ १३ ॥ तपको मदन मदजु प्रभुताको; करे न सो निज जाने । मद धारे तो यही दोष वसु, समकितको मल ठाने || कुगुरु कुदेव कुवृष सेवककी: नहि प्रशंस उचरें है । जिन मुनि जिन श्रुति विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करे है । दोष रहित गुणसहित सुधी जे: सम्यक्दर्श स हैं; वरित मोहवश लेश न संजम पं सुरनाथ जजै हैं ॥ गेही पै गृहमें न रचे ज्यों; जलमें भिन्न कमल है। नगरनारिको प्यार यथा कादेमें हेम अमल है ॥ १५ ॥ प्रथम नरक विन षटभू ज्योतिष; वान भवन सब नारी । थावर विकलत्रय पशुमें नहि; उपजत सम्यक्धारी ॥ तीनलोक तिहुंकाल माहि नहिं दर्शन सो सुखकारी | सकल धरमको मूल यही इस बिन करनी दुखकारी || १६ || मोक्षमहलको परथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्य कना न लहैं सो दर्शन; धारो भव्य पवित्रा || दौल समझ सुन चेत
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सयाने; काल वृथा मत खोवें । यह नरभव फिर मिलन कठिन है जो सम्यक् नहिं होवे ॥१७॥
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चतुर्थ ढाल |
दोहा - सम्यक श्रद्धा धारि पुनि, सेवहु सम्यकज्ञान । स्वपर अर्थ बहु धर्मयुत, जो प्रगटावन भान ॥ रोलाछन्द २५ मात्रा ।
सम्यक साथै ज्ञान, होय पै भिन्न अराधी । लक्षण श्रद्धा जान दुहमें भेद अबाध ॥ सम्यक कारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत होतेह, प्रकाश दोपकत होई ॥ १ ॥ तास भेद दो है, परोक्ष परतक्ष तिन माहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनतें उपजाहीं ॥ अवधि ज्ञान मन पय्र्यय, दो है देश प्रत्यक्षा। द्रव्यक्षेत्र परिमाण, लिये जाने, जिय स्वच्छा ||२|| सकल द्रव्यके गुण, अनन्त पर्याय अनन्ता | जानें ऐक काल, प्रगट केवलि भगवन्ता ॥ ज्ञान समान न आन, जगतमें सुखको कारण । इहि परमामृत जन्म, जरामृत रोगनिवारन ॥३॥ कोटिजन्म तप तर्प, ज्ञान बिन कर्म करें जो । ज्ञानी के छिनमांहि त्रि. गुप्तितें सहज टरै ते ॥ मुनिबन धार अनन्त, बार ग्रोवक उपजायो । निज आतम ज्ञान बिना सुखलेश न पायो ॥ तातें जिनवर कथित, तत्व अभ्यास करीजे । संशय विभ्रम मोह, त्याग आपो लख लीजै ॥ यह मानुष पर्याय, सुकुल सुनयो जिनबानी । इह विधि गये न मिलें, सुमनि ज्यों उदधि समानी ||५|| धन समाज गज बाज, रात तो काज न आवैं। ज्ञान आपको रूप भये, फिर अचल रहावे ॥ तास ज्ञानको कारण स्वपर बिवेक बखानो । कोटि उपाय बनाय, भoय ताको उर आनो ॥ ६ ॥ जो पूरब
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* छहढाला **
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शिव गए, जाहि अब आगे जे हैं। सो सब महिमा ज्ञान-तणी मुनिनाथ कहे हैं । विषय वाह दबदाह, जगत जन अनि दकावे । धान बुझावें ॥ ७ ॥ पुण्य पाप फल
यह पुद्गल पर्याय, उपजि विनशै
तास उपाय न आन, ज्ञानघन
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माहि, हरप विलखो मत भाई थिर थाई ॥ लाख बातकी बात, यही निश्चय उर लावो । तोरि सकल जगदन्द -- फन्द निज मातम ध्यावो || ८ || सम्यग्ज्ञानी होय बहुरि दृढ़ चारित लीजै । एकदेश अरु सकल देश, तसु भेद कही । सहिंसाको त्याग, वृथा थावर न संधारे। परवधकार कठोर निन्द्य, नहि बयन उचारे ॥ ६ ॥ जलमृतिका बिन और, नाहिं कछु है अदत्ता । निज बनिता बिन सकल, नारिस रहे विरता ॥ अपनी शक्ति विचार, परिग्रह थोरो राखें । दस दिश गमन प्रमाण ठान, तसु सोम न नाखं ॥ तामें फिर ग्राम, गली ग्रह बाग बजारा । गमनागमन प्रमाण ठान, अन सकल निवारा। काहूके धनहानि, किसी जय हार न चिंते । देय न सो उपदेश, होय अघ बन कृषी ॥११॥ कर प्रमाद जल भूमि, वृक्ष पावक न विराधे । असि धनु हल हिंसोप- करन नहिं, दे जश लाधे ॥ राग द्वेष करतार, कथा कबहूं न सुनीजं । औरहु अनरथ दण्ड, हेतु अघ तिन्हें न कीजै ॥ १२॥ घर उर समता भाव, सदा सामायिक करिये । परख चतुष्टय माहि, पाप तज प्रोषध धरिये ॥ भोग और उपभोग, नियमकर ममत निवारे । मुनिको भोजन देय, फैर निज करहि अहारे ॥ १३ ॥ बारह व्रतके अतीवार, पाय पन पन न लगावै । मरण समय सन्यास, धार तसु दोष नशावे ॥ यों श्रावक व्रत पाल. स्वर्ग सोलम उपजावे । तहंते वय नर जन्म, पाय मुनि हूवें शिव जावे ।
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पञ्चम ढाल।
मनोहर छन्द १४ मात्रा। मुनि सकल व्रती बड़ भागी। भवभोगनते वैरागो ॥ वैराग्य उपावन माई । चिंत अनुप्रेक्षा भाई ॥१॥ इन चिन्तत समरस जागे, जिम ज्वलन पवनके लागे ॥ जवही जिय आतम जाने । तबही जिय शिवसुख ठाने ॥२॥ जोवन गृह गो धन नारी । हय गय न आज्ञाकारी ॥ इन्द्रीय भोग छिन थाई। सुरधनु चपला चप. लाई ॥३॥ सुर असुर खगाधिप जेते। मृत ज्यों हरि काल दले ते॥माणिमंत्रतंत्र बहु होई । मरते न बवावे कोई॥४॥चहुंगति दुख जीव भरे हैं । परिवर्तन पञ्च करै हैं ॥ सब विधि संसार असारा । तामें सुख नाहि लगारा ॥५॥ शुभ अशुभ करम फल जेते । भोगें जिय एकहिं तेते॥ सुत दारा होय न सोरी। सब स्वारथके हैं भारी॥६॥ जलपय ज्यों जियतन मेला। पै भिन्न २ नहिं भेला । जो प्रगट जुदे धन धामा। क्यों है इक मिल सुन रामा ॥७॥ पल रुधिर राध मल थैलो। कीकस वलादित मैलो ॥ नव द्वार बहै घिनकारी अस देह करै किम यारो ॥८॥ जो योगनकी वपलाई। जाने है आश्रव भाई ॥ आश्रय दुखकार घनेरे । बुद्धिवंत तिन्हें निरबेरे ॥६॥ जिन पुण्य पाप नहिं कीना। आतम अनुभव चित दीना ॥ तिनहीं विधि आवत रोके । संबर लहि सुख अवलोके ॥१०॥ निज काल पाय विधि झरना । तासों निजकाज न सरना ।। तप करि जो कर्म खपावै । सोई शिवसुख दरसावै ॥११॥ किनई न करो न धरै को। षट् द्रव्यमयी न हर को ॥ सो लोकमाहिं बिन समता। दुख सहे जीव नित भ्रमता ॥१२॥ अंतिम प्रीवकलोंको हद। पायो अनन्त
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* छह टाला
विरिवों पद । पर सम्यक्ज्ञान न लाघौ । दुर्लभ निजमें मुन साधौ ॥ १३ ॥ जे भाव मोहतें न्यारे । द्वगज्ञान वृतादिक सारे ॥ सो धर्म जवे जिय धारे। तबहीं सुख अचल निहारे ॥ १४ ॥ सो धर्म मुनिनकरि धरिये । तिनकी करतूति उचरिये ॥ भवि प्राणी । अपनो अनुभूति पिछानी ॥ १६ ॥
ताकू सुनिये
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अथ षष्टम ढाल - हरिगीता छंद २८ मात्रा । काय जीवन हननतै सब, बिध दरब हिंसा दूरी | रागादि भाव निवारते, हिंसा न भावित अवतरी ॥ जिनके न लेश मृषा न जल तृण, हूं बिना दीयौं गहैं । अठदश सहस विधि शीलघर विदब्रह्ममें नित रमि रहें ||१|| अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, संग दशधातै टलें । परमाद तजि चऊ करम हो लखि, समिति ईय्यते चलें 11 जग सुहितकर सब अहित हर श्रुति सुखद सब संशय हरै | भ्रम रोग हर जिनके बचन मुख, चद्रतें अमृत भरें ॥२॥ छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तणे घर अशनको । लैं तप बढ़ावन हेत नहिं तन; पोषते तजि रसनको ॥ शुचि ज्ञान संयम उपकरण लखि, के ग लखिकें करें । निर्जंतु थान विलोक तन मल, मूत्र श्लेषम परिह ||३|| सम्यकप्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते ॥ रस रूप, गंध तथा फरल अरु, शब्द शुभ असुहावने । तिनमें न राग विरोध पंचेंद्रिय जयन पद पावने ॥ ४ ॥ समता सम्हारें श्रुति उचारें; बन्दना जिन देवको । नित करें श्रुति रति करें प्रतिक्रम तजें तन अहमेवको || जिनके न न्हौन न दंतधावन, लेश अंबर आवरण | भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करण॥५॥
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* जिनवाणी संग्रह *
इकबार लेत अहार दिनमें खड़े अलप निज पानमें। कचलोंच करत न डरत परिवह, सों लगे निज ध्यानमें ॥ अरि मित्र महल मसान कंचन, कांच, निन्दन धुतिकरण । अर्घावतारण असि प्रहा रण में सदा समता धरण ॥६॥ तप तपैं द्वादश धरें वृष दश, are से सदा । मुनि साथमें वा एक विचरें, वह नहिं भवसुख कदा ॥ यों हैं सकल संयम चरित सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिट परकी प्रवृति सब || || जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डार अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादिने, निज भावको व्यारा किया || निजमाहिं निजके हेत निजकर, आपको आपै गह्यो । गुणगणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञ ेय, मंकार कछु भेदन रह्यो ॥ जहं ध्यान ध्याता ध्येयको न, विल्कप बच भेद न जहां | विद्वाव कर्म विदेश कर्ता, चेतना किरिया तहां ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुद्ध, उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहां गज्ञानवत ये, तीनधा एक लशा ॥ ६ ॥ परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुभवमे दिखे। हग-ज्ञान- सुख-बल मय सदा नहिं आन भाव जो मो विखै । मैं साध्य साधक मैं अवाधक, कर्म अरु तसु फलनितें ॥ वितपिंड चंड अखंड, सुगुन करड च्युत पुनि कलनितें ॥ १० ॥ यों चिन्त्य निजमें थिर भए तिन, अकथ जो आनन्द लहो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ॥ तवही शुकल ध्यानाग्नि करि चउ, घात विधि कानन दहो । सब लख्यो केवलज्ञान करि भवि, लोककों शिवमग कह्मो ॥११॥ पुनि घाति शेष अघात बिधि, छिनमाहिं अष्टम भू बसे । बहु कर्म विनसे सुगुण बसु, सम्यक्त आदिक सब लसै ॥ संसार खार अपार पारावार, तरि
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* समायिक पाठ भाषा*
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तीरहिं गये। अविकार अधल अरूर शुष, चिद्रूप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ निजमाहि लोक अलोक गुण, पर्याय प्रतिविम्बित थये । रहि हैं अनन्तानन्त काल यया तथा शिव परणये ॥ धनि धन्य है जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया । तिनही अनादी भ्रमण पञ्च, प्रकार तजि बर सुख लिया ॥ १३॥ मुख्योपचार दुभेद यों वड़, भागि रत्न त्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लहैं तिन,सुजशजलजगमल हरॆ ॥ इम जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिद्ध
आदरों। जबलों न रोग जरा गहै तब लों जगत निजहित करों ॥ १४॥ यह राग आग दहै सदा ताते समामृत पीजिये ॥ चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लोजिये। कहा रच्यो पर पदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहे। अब दौल होउ सुखी स्वरद रवि, दाव मत चूको यहै. ॥५॥
दोहा-इक नव वसु इक वर्षकी, तोज सुकुल बैशाख । करयो तत्व उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१॥ लघु धी तथा प्रमादते, शब्द अर्थकी भूल। सुधी सुधार पढो सदा; जो पावो भव कूल ॥ २॥
३३ समायिक पाठ माका ।
अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म। काल अनन्त भ्रम्यो जगमें सहियो दुख भारी । जन्ममरण नित किये पापको है अधिकारी ॥ कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ
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* जिनवाणी संग्रह *
सामायिक धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुख दायक ॥ १ ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु मैं अब । ते सब मनवचकाय योगकी गुप्ति बिना लभ ॥ आप समीप हजूरमाहिं मैं खड़ी खड़ो अब । दोष कहू सो सुनो करो नठ दुख देहि जब ॥ २ ॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश प्रानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ बिना प्रयोजन एकेंद्रिय बिति च पंचेंद्रिय । आप प्रसादहि मिटे दोष जो लग्यो मोहि जिय || ३ || आपसमें इक ठोर थापि करि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतले दाबकरि प्राण हरीने || आप जगत के जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करों मैं सुनो दोष मेटो सुखदायक ॥ ४ ॥ अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये क्षिमा क्षिमा किय || मेरे जे अब दाष भये तं क्षमों दयानिधि | यह पड़िकोणो कियो आदि पट कर्ममांहि विधि ||५||
अथ द्वितीय प्रत्याख्यानकर्म ।
जा प्रमादवश होय विराधे जीव घनेरे । तिनको जो अपराध भयो मर अघ ढेरे ॥ सो सब झूठो होउ जगतपतिके परसादै । जा प्रसाद मिले सर्व सुख दुःख न लाधे ॥ ६ ॥ मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ | किये पाप अति घोर पापमति होय वित्त दुठ ॥ निदू हूं मैं बारबार निज जियको गरहूं । सबविध धर्म उपाय पाय फिर पापहिं करहूं || ७|| दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी । सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ॥ जिनवचनामृतधार समा वर्तें जिनवानी । तौहू जीव संहारे धिक धिक धिक हम जानी ॥८ इन्द्रियलंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिम करे
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* समायिक पाठ भाषा *
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तिसो विधि हिंसक है अब ॥ गमनागमन करतो जीब विराध भोले । ते सब दोष किये निन्दू अब मनबच तोले ॥६॥ आलोचनविध थकी दोष लागे जू घनेरे । ते सब दोष बिनाश होउ तुमतें जिन मेरे || बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईर्षादिकतै भये निन्दिये जे भयभीता ॥ १० ॥
तृतीय सामायिक कर्म ।
सब जीवन मैं मेरे समताभाव जग्यो है । सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है || आर्स रौद्र द्वय ध्यान छांड़ि करिहं सामायक || संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव वधायक ॥ ११ ॥ पृथिवी जल अरु अग्नि वायु च काय वनस्पति । पांचहि थावरमाहिं तथा सजीव बसें जिन ॥ वे इन्द्रिय तिय वउ पंचेंद्रियमांहि जीव सब। तिनमें क्षमा कराऊ मुझपर क्षमा करो अब ||१२|| इस अवसर मैं मेरे सब सम कञ्चन अरु त्रण | महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहि सम गण || जामन मरन समान जानि हम समता कीनी । सामयिकका काल जिने यह भाव नवोनो ॥ १३ ॥ मेरो है इक आतम ताने ममत जु कोनौ ॥ ओर सबै मम भिन्न जानि समतारस भोनो ॥ मात पिता सुत बंधु मित्र जिय आदि सवे यह । मते न्यारे जानि जथारथरूप कर्यो गह ॥ १४ ॥ मैं अनादि : जगजालमाहिं फंसरूप न जान्यो । एकेंद्रिय दे आदि जन्तुको प्राण हरायो || ते अंब जीव समूह सुनी मेरी यह अरजी भवभवको अपराध क्षमा कोज्यो करि मरजी ॥१५॥
अथ चतुर्थ स्तवन कर्म ।
नमू' ऋषभ जिनदेव अजित जिन जोत कर्मको । संभव भव
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* जिनवाणी संग्रह *
दुखहरण करण अभिनन्द शर्माको ॥ सुमति सुमति दातार तार भवसिंधु पारकर | पद्मप्रभ पद्माभ भाति भवभीति प्रीतिधर ॥ १६ ॥ श्रीसुपार्श्व कृत पास नाश भव जास शुद्ध कर । श्रीचन्द्रप्रभ चन्द्रकान्तिसम देहकान्ति धर । पुष्पदन्त दमि दोषकोश भवि पोष रोषहर । शीतल शीतल करन हरन भवताप दोपहर ॥ १७ ॥ श्रेय रूप जिन श्रेय धेय नित सेय भव्यजन । वासुपूज्य शतपूज्य वासवादिक भवभय हन ॥ विमल विमल मतिदेन अन्तगत हैं अनन्त जिन । धर्म शर्म शिवकरण शांति जिन शान्तिविधायिन ॥ १८ ॥ कुन्ध कुन्थ मुख जीवपाल अरनाथ जाल हर । मल्लि मल्ललम माह - मल्ल मारण प्रचार घर ॥ मुनिसुव्रत व्रत करण नमत सुरसंघहि नमि जिन । नेमिनाथ जिन नेमि धर्मरथ मांहि ज्ञान धन ॥ १६ ॥ पार्श्वनाथ जिन पार्श्व उपलसम मोक्षरमापति । बर्द्धमान जिन नमूं बम् भवदुःख कर्मकृत ॥ याविध में जिन संघरूप चउवीस संख्यधर । स्तऊ ं नमू ं हूं बार बार बंद शिवसुखकर ||२०|| पश्चिम वन्दना कर्म I
बन्दू मैं जिनवीर धीर महावीर सु सन्मति वर्द्धमान अतिवीर बन्दों मनवचतनकृत || त्रिशलाननुज महेश धीश विद्यापति बंदू । बन्दू नितप्रति कनकरूपतनु पाप निकन्दू ||२१|| सिद्धारण नृपमन्द द्वंद्व दुखदोष मिटावन । दुश्ति दवानल ज्वलितज्वाल जगजीव उधारन ॥ कुण्डलपुर करि जन्म जगतजिय आनन्दकारन | वर्ष बहरि आयु पाय सब ही दुख टारन ||२२|| सप्त हस्त तनु तुङ्ग भङ्ग कृत जन्म मरण भय । बालब्रह्ममय ज्ञेय हेय आदेय ज्ञानमय ॥ दे उपदेश उधारि तारि भवसिंधु जीवधन । आप बसे शिवमाहिं
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* समायिक पाठ भाषा *
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नाहि बन्दो मनवचतन ॥ २३ ॥ जाके बन्दनथकी दोष दुख दूरहि जावै । जाके बन्दनथकी मुक्ति तिय सम्मुख आवै ॥ जाके बन्दनथकी बंद्य होवें सुरगनके। ऐसे वीर जिनेश बन्दिहं क्रमयुग तिनके ॥ २४ ॥ सामायिक पटकर्ममाहि बंदन यह पञ्चम वन्दे वीरजिनेन्द्र इन्द्रशतबन्ध वन्द्य मम ॥ जन्म मरण भय हरो करो अघ शांतशांत मय । मैं अघ कोष सुपोष दोषको दोष विनाशय ||२५||
छट्ठा कायोत्सर्गकर्म 1
कायोत्सर्गविधान करू' अन्तिम सुखदाई | कायत्यजन मय होय काय सबकों दुखदाई ॥ पूरव दक्षिण नमू दिशा पश्चिम उत्तर मै । जिनगृह वंदन करू हरू भवपापतिमिर मैं ||२६|| शिरोनती में करु' नमू ं मस्तक कर धरिलें । आवर्त्तादिक क्रिया करू मनबच मद हरिके || तीन लोक जिन भवनमांहिं जिन हैं जु अकृत्रिम । कृत्रिम हैं अर्द्धद्वीपमाहीं वंदौं जिम ||२७|| आठ कोडिपरि छप्पन लाख जु महस सत्याणू' । चारि शतकपरि असी एक जिनमंदिर जाणूं ॥ व्यंतर ज्योतिषमांहि संख्यरहिते जिनमन्दिर । जिनगृह वन्दन करू हरहु मम पाप सघकर ॥ २८ ॥ सामायिक सम नाहि और को वैर मिटायक । सामायिक सम नाहि और कोड मैत्रीदायक ॥ श्रावक अणुत्रन आदि अंत सप्तम गुणथानक । यह आवश्यक किये होय निश्चय दुखहानक ॥ २६ ॥ जे भवि आतम काज करण उद्यमके धारी । ते सब काज विहाय करो सामायिक सारी ॥ राग दोष मद मोह क्रोध लोभादिक जे सब | बुध महाचन्द्र वि-लाय जाय तानें की ज्यो अब ||३०|| इति ॥
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* णमोकार महिमा प्रभाती #
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पशुवन पर दृष्टि परे नमत सुरनर मुनीन्द्रादिक वरत सोस नेत्रा ॥ ३ ॥ प्रभुके वरणार्विन्द जपत हैं जवाहरबन्द्र कर जोरें ध्यान घरे वाहत मित सेवा ॥ ४ ॥
४६ दोतकृत प्रभाती
पारस जिन चरण निरखि हरष ज्यों लहायो । चितवत चन्दा चकोर ज्यों प्रमोद पायो || टेक || ज्यों सुनि घनघोर सोर मोरके मन हरष ओर रंक निधि समाज राज पाय मुदित थायो ॥१॥ ज्यों जन विर क्षुधित कोय भोजन ल ह सुखित होय भेषज मद हरन पाय आतुर हरषायो ॥ २ ॥ बासर धनि आज दुरित दुरे फिर सुकृत आज शान्ताकत देखि महामोह तम बिलायो ॥३॥ जाके गुन जानन शोभानन भव कानन इमि जान दौल सरन आय शिव ललवायो ॥ ४ ॥ मुख
४७ दोक्तकृत प्रभाती
निरस्त जिन चन्द्र चंदन सुपद स्वरुचि आई ॥ टेक ॥ प्रगटी निज आनकी पिछान ज्ञान भानकी कला उद्योत होत काम यामिनी पलाई ||१|| सास्वत आनन्द स्वाद पायो बिनसो विवाद मानन अमिष्ट इष्ट कल्पना नसाई ॥ २ ॥ साधी निज साधकी समाधि मोह व्याधिकी उपाधि कविराधिके अराधना सुहाई ||३|| धन दिन छिन आज सुगुन विंसे जिनराई । सुधरो सब काज ਲ अचल रिद्धि पाई ॥ ४ ॥
४= यामोकार महिमा प्रभासी
प्रातकाल मंत्र जपो णमोकार भाई । अक्षर पैतीस शुद्ध हृदयमें धराई ॥ टेक ॥ नर भव तेरो सुफल होत पातक टर जाई । विघन
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* जिनवाणी संग्रह
जासु दूर होत संकटमें सहाई ॥१॥ कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामणि जाई । ऋद्धि सिद्धि पारस तेरे प्रगटाई ॥२॥ मंत्र जन्त्र तन्त्र सब जाही बनाई। सम्पति भण्डार भरे अक्षय मिधि आई ॥३॥ तीन लोक माहिसार वेदनमें गाई । जगमें प्रसिद्ध धन्य मंगलोक भाई॥४॥
४६ भागधन्दकृत प्रभाती परणति सब जीवनकी तीन भांति वरणी। एक पुण्य एक पाप एक राग हरणी ॥ टेक ॥ जामें शुभ अशुभ बन्द बोतराग परणति भव समुद्र तरणी ॥ १ ॥ छांडि अशुभ क्रिया कलाप मत करो कदाचि पाप शुभमें न मगन होय अशुद्धता विसरणी ॥२॥ यावत ही शुभोपयोग तावत ही मन उद्योग तावत ही करण योग कही पुण्य करणी ॥३॥ भागचन्द्र जा प्रकार जीव लहे सुख अपार याको निरधार स्यादबादकी उचरणी ॥४॥
___ ५० जैनदासकृत प्रभाती उठि प्रभात पूजिये श्री आदिनाथ देवा। आलसको त्याग जागि पूजा विधि मेवा ॥ टेक । जल चन्दन अक्षत प्रीति सम लेवा । पुष्पते सुवास होय काम जरि जेवा ॥ १ ॥ नैवेद्य उज्वल करि दीप रतन लेवा। धूपते सुगन्ध होय अष्ट कर्म खेवा ॥ २ ॥ श्रीफल बादाम लोंग डोंडा शुभ मेवा । उज्वल करि अघ पूजि श्रीजिनेन्द्र देवा ॥३॥ जिनजी तुम अर्ज सुनो भवधि उतरेवा। जैनदास जन्म सुफल भगति प्रभू एवा ॥ ४॥
५१ मपानीका प्रभाती ताण्डव सुरपतिने जहां हर्ष भाव धारी। ॥ टेक ॥ रुनु रुनु
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* मोहनलालकृत *
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स्नु नूपुर ध्वनि ठुमकि २ पेंजन पण झुन झुनझुन किन छवि लगति अति प्यारी ॥ १ ॥ अ न न न न'सार दानि स न न न न न किनरान अघ घ घ गंधवं सर्व देत जहां तारी ॥ २॥ पं पं पं पग पटि फं फं फ फ न न न न न वं व मृदङ्ग बाजे बीना धुन सारी ॥ ३ ॥ अ द द द द द विद्याधर दि दिदि दिदि दि देव सकल दास भमानी ज्यो कहें जिन चरनन बलिहारी ॥ ४ ॥ ५२ मानिककृत भजन
नहीं रुचे औरु छवि नैननमें, तेरो शान्ति छवी मन बस गई रे ॥ टेक ॥ निर्विकार निर्मथ दिगम्बर देखत कुमति विनसि गई रे ॥ १ ॥ चिर मिथ्यातम दूर करनको चन्द्र कला सो दरश रही रे ||२|| मानिक मन मयूर हरषनकों मेघ घटा सो दरश रही रे || ३ || ५३ नवलकविकृत खम्माच
आज कोई अदभुत रचनारचो ॥ टेक ॥ समोशरण शोभा देखनको होड़ा होड़ी मत्री ॥ १ ॥ स्वर्ग विमान तले छवि जाके देखत मनन बिची ॥ २ ॥ जिन गुण स्वादत रसिया परनकी रोझन जात मचो ॥ ३ ॥ नवल कहे ऐसो मन आवे हष धार कर नवी ॥ ४ ॥
५४ - मोहनलालकृत झांझोटी ।
देखि सखी छवि आज भलो रथ चढ़ि यदुनन्दन आवत हैं ॥ टेक ॥ तोन छत्र माथे पर सोहें त्रिभुवननाथ कहावत हैं ॥ १ ॥ मोर मुकट केसरिया जामा चोसठ चमर दुरावत हैं ॥ २ ॥ ताल मृदङ्ग साज सब बाजत आनन्द मङ्गल गावत है ॥ ३ ॥ मोहनलाल. जास चरननकी झुकि लुकि शील नवाबत हैं ॥४॥
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* जिनवाणी संग्रह .
५. विहादीकृत साग देश। आज जिनराज दरशनसे भयो आनन्द भारी हैं ॥ टेक ॥ लो ज्यों मोरधन गर्जे सुनिधि पाये भिखारी है। तथा मो मोदकी वार्ता नहीं आती उचारी है ॥२२॥ जगनके देव. सब देखे क्रोध भय लोभ मारी है। तम्हीं दोपावरण बित हों कहा उपमा तिहारी है ॥२॥ तुम्हारे दर्शविन स्वामी भई चहुंगतिमें ज्वारी है। तुम्हीं पड़ कंज नमते ही मोहनी धूल झारी है ॥२॥ तुम्हारी भक्तिसे भवजन भये सब सिन्धु पारी हैं। भक्ति मोहि दीजिये अविचल सदा या. वक विहारो है ॥४॥
५६ मानिकरुत-सोरठा। ज्ञानी पिया क्यों विसरे निज देश। कुमति कुरमिनी सोत संग राचे छाय रहे परदेश ॥ टेक ॥ अनन्तकाल परदेशनि छाये पाये बहुत कलेश । देश तुम्हारो सुपद समारो त्रिभुवन होउ नरेश ॥१॥ भ्रम मद पाय छकाय रहो घन शान रहो नहि लेश। दुखी भये विललात फिरत हो गति २ धरि दुरिभेश ॥२॥ यह संसार जानि लख सुख नहीं रंचक लेश। मानिक काल लब्धि पावस लहि सुमति हाथ उपदेश ॥ ३ ॥
पिल्ल। ___ स्वामी मुजरा हटाग लीजे ॥ टेक ॥ तुम तो बीतराग आनंद घन हमको भी अब कीजे ॥१॥ जगके देव सब रागी द्वेषी यासे निज गुण दीजे ॥२॥ आदि देव तुम समानको वेग अचल पद दोजे ।।
• ५७ हीरालाल कृत रेखता। भगवान आदिनाथ जिन सो मन मेरा लगा। आराम मुझे
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* हजारीकृत - लावनी #*
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होत दुःख दर्शसे भगा || टेक || मह देवी नन्द धर्म कन्द कुलमें
माभिराजके सुर उगा । नृप कुमार नमत सुर खला ॥१॥ युगका निवार धर्मको संसारको तगा । बलु कर्मको जराय शिव पन्थ में लगा ||२|| अब तो करो शिताव मिहरवान दिल लगा । कहें दास हीरालाल दीजे मुक्तिका मगा ॥३॥
५८ हजारी कृत - मजल । ख्याल कर दिल मकार चेतन अजब करमने काई गतियां || || निगोद बस कर सुबोध खोया त्रिजग व नारक बनस्प तियां । कभी मनुष वा कभी सुरंग वा अनादि ते दिन बिताई रतियां ||२|| यह दुःख भर २ यतीम हवा न गोरकी कहुं सुनाई तियां पड़ा हूं अब तो उसोके दर पर लगें हजारी न यम की पनियां ॥३॥
५६ हजारीकृत - लावनी ।
॥
तुम देवनके देव हो, लोक धरो । मेरे रागादिक०
प्रभू भवसागर पार करो, मेरे रागादिक शत्रु हरो ॥ टेक ॥ तुम्हीं हो नित्य निरञ्जनदेव । कर इन्द्रादिक धारी सेव ॥ नामसे पाप टरें स्वयमेव । अरज बित दोजे हमारी पत्र || दोहा ॥ तुम सुमरनसे नाथजी, सीजे हमरो काज शिखिर महाराज || जगतमें तारन बिरद ||१|| जन्म मरणादि अनल भारी । चरण श्रुति करत सलिल भारी ॥ तालु मिट जात तापकारी । होत सुख भविवल भवि - कारी ॥ दोहा ॥ ऐसे तुम गुण अबिन्त वर, तालम कीजे मोय । मोहादिक अरि अति प्रबल तिनका दीजे खोय | आज तुम देखत काज सरो | मेरे० ||२|| कर्म बसु अगणित दुखदाई । तासु वश
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* जिनवाणी संग्रह *
जन बसे शिव अब बसत फिर बसि हैं सही । दौलत स्वरचि पर विरचि सद्गुरु सीख नित उर घर यही ॥ ११ ॥ इति ॥
'चौथा अध्याय)
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६४ फूलमाल पचीसी ।
दोहा - जैन धरम त्रेपन किया, दया धरम संयुक्त । यादों वंश विषै जये, तोन ज्ञान करि युक्त ॥१॥
भयो महोत्सव नेमिको, जूनागढ़ गिरनार । जाति चुरासिय जनमत जुरे क्षोहनी चार ॥ २ ॥
माल भई जिनराजकी, ग्रंथी इन्द्रन आय ॥
देशदेशके भव्य जन; जुरे लेनको धाय ॥ ३ ॥
छप्पय देश गौड़ गुजरात चौड़ सोरठि वीजापुर । करनाटक कशमीर मालवो अरु अमेरधुर || पानीपत होंसार और बैराट महा लघु । काशी अरु मरहट्ट मगध तिरहुत पट्टन सिंधु ॥ तह वंग चंग बंदर सहित उदधि पार लौ जुरिय सब । आए जु चोन मह चीन लग, माल भई गिरनारि जब || ४ ||
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नाराव छन्द ।
सुगन्ध पुष्प वेलि कुदि केतकी मगायकें । चमेली चप सेवती जुही गुही जु लायकें ॥ गुलाब कंज लायची सबै सुगन्ध जातिके । सुमालती महा प्रमोद लै अनेक भांतिके ॥ ५ ॥ सुवर्ण तारपाई बीच मोति लाल लाइया । सु होर पन्न नील पीत पद्म
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* फूलमाल पचीसी *
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जोति छाइया ॥ शची रची विचित्र भाँति चित्त देवनाइ है। सुइन्द्रने उछाहसों जिनेन्द्रको चढ़ाई है ॥ ६ ॥ सुमागहीं अमोल माल हाथ जोरि बानियें । जुरी तहां चुरासि जाति रावराज जानिये ।। अनेक और भूपलोग संठसाहुको गर्ने। कहालु नाम वर्णिये सुदेखते सभा बनें ॥७॥ खण्ड लवाल जैसवाल अग्रवाल आइया । व धेरवाल पोरवाल देशवाल छाइया ॥ सहेलवाल दिल्लिवाल सेतवाल जातिके। बढ़ेलवाल पुष्पभाल श्री श्रीमाल पांतिके ॥८॥ सु
ओसवाल पलिवाल चरुवाल चौसखा। पद्मावतीय पोरवाल टूढरा अठसखा । गगेरवाल बंधुराल तोर्णवाल सोहिला । करिंदवाल पल्लिवाल मेडवाल खोहिला ॥६॥ लमेंचु और माहुर माहेसुरी उदार हैं सुगोलवार गोलपूर्व गोलहूं सिंघार हैं ॥ बंधनौर मागधी विहारवाल मूजरा । सुखण्ड राग होय और जानराज बूमरा ॥१०॥ भुराल और सोरठी मुराल और चितौरिया । कपोल सोमराठ वर्ग हमड़ा नागौरिया ॥ सीरीगहोड़ भंडिया कनौजिया अजोधिया । मिवाड़ मालवान और जोधड़ा समोधिया ॥११॥ सुभट्टनेर रायबल्ल नागरा रुधाकरा।सुथरारु जालुरारुवालमीक भाकरापरवार लाड़ चोड़ कोड़ गोड़ मोड़ संभरा । सु खंडिआत श्री खंडा चतुर्थ पञ्चमं भरा ॥१२॥ सु रत्नाकार भोजकार नारसिंघ हैं पुरो। सु जम्बूवाल और क्षेत्रब्रह्म वैश्य लौ जुरी ॥ सु आइ हैं चुरासि जानि जैनधर्मकी घनी। सबै विराजी गोटियों जु इन्द्रिकी सभा बनी ॥१३॥ सुमाल लेनको अनेक भूपलोग आवहीं। सु एक एकतै सुमाग मालको बड़ा वहीं॥ कहें जु हाथ जोरि जोरि नाथ माल दीजिये। मंगाय देउ हेमरल सो भण्डार कीजिये ॥ १४ ॥
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* जिनवाणी संग्रह *
बालबाल बाकड़ा हजार बीस देत हैं । हजार दे पचास परवार फेरि लेत हैं। सु जैसवाल लाख देत माल लेत चोपसों । जु दिलिवाल, दोय लाख देते हैं अगोपसों ॥ १५ ॥ सु अग्रवाल बोलिये जु माल मोह दीजिये । दिनार देहूं एक लक्ष सो गिनाय लोजिये खंडेलवाल बोलिया जु दोय लाख देगो । सुवटि तमोल मैं जिनेन्द्र माल लेउ गो ॥ १६ ॥ जुसंभरी कहें सुमेरि स्वानि लेहु जायकें । सुवर्ण खानि देत हैं चिसोड़िया बुलायके || अनेक भूर गांव देव रायसो चंदेरिका । खजान खोली कोठरीं सु देत हैं अमेरिका ||१७|| सुगौड़वाल यों कहै गयन्द बीस लीजिये । मढ़ाय देव हेमवंत माल मोहि दीजिये ॥ परमारके तुरंग साजि देते हैं बिना गिने । लगाम जोन पाहुड़े जड़ाउ हेमके बने ||१८|| कनौजिया कपूर देत गाड़िया भरायके । सुहीरा मोती लाल देत ओशवाल आयके ॥ सु हूंमड़ा हंकारहीं हमें न माल देडगे । भराइये जिहाजमें कितेक दाम लेउगे ॥१६॥ कितेक लोग आयके लड़ते हाथ जोरिके । कितेक भूप देखिके चले जु बाग मोरि || कितेक सूप यों कहें जु केसे लक्षि देत हो । लटाय माल आपनों सु फूलमाल लेत हौ ॥ २० ॥ कई प्रवीन श्राविका जिनेन्द्रको बधावीं । कई सुकंठ रागसों खड़ी जु माल गावहीं। कई नृत्यकों करें लहैं अनेक भावहीं। कई मृदंग तालपे सुअंगको फिरावहीं ॥ २९ ॥ कहें गुरू उदार घी सुयों न माल पाइये || कराइये जिनेन्द्र यश बिं हूं भराइये ॥ चलाइये जु संघ जात संघो कहाइये। तबै अनेक पुण्यसों अमोल माल पाइये ॥ २२ ॥ संबोधि सर्व गोटिलो गुरू उतारके लई । बुलायकें
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* पुकार पचीसी *
जिनेन्द्रमाल संघ राय को दई । अनेक हर्षसों करें जिनेंद्र तिलक पाइये । सुमाल श्रोजिनेंद्रकी बिनोदीलाल गाइये ॥ २३ ॥
दोहा - माल भई भगवन्तको, पाई संग नरिन्द | लालविनोदी उच्च सबको जयति जिनंद ॥ २४ ॥ माला श्री जिनराजकी, पाये पुण्य संयोग | यश प्रगटे कीरति बढ़े, धन्य कहैं सब लोग ॥२५॥ इति ६५ पुकार पच्चीसी ।
दोहा - मै यह भव संसार में, भुगतें दुःख अपार । सो पुकार पच्चीसिका, करें कविन इक द्वार ॥ तेईसा छन्द ।
श्री जिनराज गरीब निवाज सुधारन काज सबे सुखदाई | दीनदयाल बड़े प्रतिपाल दया गुणमाल सदा शिर नाई ॥ दुर्गति टारन पापनिवारन हो भवतारन को भव ताई । वारही वार पुकातु हों जनकी विनतो सुनिये जिनराई ॥ १ जन्म जरा मरणो त्रय दोष लगे हमको प्रभु काल अनाई । तासु नसावनको तुम नाम सुनो हम वैद्य महा सुखदाई ॥ सो त्रय दोष निवारनको तुम्हरे पद सेवतु हाँ चित ल्याई | वारही० ॥ २ ॥ जो इक है. भवको दुख होय तो राख रहों मनको समझाई | यह चिरकाल कुहाल भयो अब लो कहुं अन्त परो न दिखाई | मो पर या जग मांहि कलेश परे दुख घोर सहे नहिं जाई । बारहो ० || ३ || देख दुखी पर होत दयाल है इक ग्रामपती शिर नाई । हो तुम नाथ त्रिलोकपती तुमसे हम अर्ज करो शिर नाई 11 मो दुख दूर करो भव ब कर्मन ते प्रभु लेउ छुड़ाई । बारही० ॥ ५ ॥ कर्म बढ़े
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* जिनवाणी संग्रह -
रिपु हैं हमरे हमरी बहु होन दशा कर पाई। दुःख अनन्त दिये हमको हर भाँतिन भांतिन खाद लगाई ॥ मैं इन बैरिनके बश है करिके भटको सु कहो नहिं जाई। बारही० ॥ ५ ॥ मैं इस ही भव काननमें भटको चिरकाल सुहाल गमाई । किश्चित् ही तिलसे सुखको बहु भांति उपाय करे ललचाई ॥ चार गते चिर मैं भटको जहां मेरु समान महा दुस्खदाई। बारही० ॥ ६ ॥ नित्य निगोद अनादि रहो सके तनकी जहां दुर्लभताई । ज्यों क्रम सो निकसो वह ते त्यों इतर निगोद रहो चिरछाई ॥ सूक्षम बादर नाम भयो जब ही यह भांति धरी पर्यायी। बारही० ॥ ७॥ जबहीं पृथ्वी जल तेज भयो पुनि मारुत होय बनस्पति काई । देह अधात धरी जब सूक्षम घातत बादर दीरघताई ॥ एक उदै प्रत्येक भयो सह धारण एक निगोंद बसाई। बारही० ॥ ८॥ इन्द्रिय एक रही चिरमें कब लब्धि उदै स्वयं उपशमताई । वे त्रय चार धरी जब इन्द्रिय देह उदै विकलत्रय आई ॥ पंचन आदि किधौं पर्यन्त धर इन इन्द्रियके त्रस काई । बारही० ॥ ६ ॥ काय धरी पशुकी बहु वार भई जल जन्तुनकी पर्याई । जो थल मांहि अकाश रहो चिर होय पखेरू पल लगाई ॥ मैं जितनी पर्याय धरीं तिनके वरणे कहुं पार न पाई । बारहो० ॥ १०॥ नरक मझार लियो अवतार परौ दुख भार न कोई सहाई । जो तिलसे सुख काज किये अघते सब नरकनमें सुधि आई ॥ ता तियके तनकी पुतली हमरे हियरा करि लाल भिराई ॥ बारही० ॥ ११॥ लाल प्रभा सु महीं नह हैं अरु शकर रेत उन्हार बताई। पङ्क प्रभा जु धुआंवत है तमसी सु प्रभासु महातम ताई । जोजन लाख जु षोडस पिण्ड तहां इकही
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* उपदेश परोसी प्रारम्भ *
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अरुवाह। वनस्वतीमें बसे शुभाय ॥ ऐसी गतिमें बहु दुख भरना। पतेपर एता क्या करना ॥५॥केतिक काल यहां ही गयो। तहसे कड़ विकलत्रय भयो । ताको दुख कुछ जाय न वरना। एतेपर एता क्या करना ॥६॥ पशु पक्षीकी काया पाई चेतन तहां रहो लपटाई ॥ बिन विवेक कहो क्यों तरना। एते पर एता क्या करना ॥ ७॥ इम तिर्यंच महा दुख सहे । सो काहूं ते जाय न कहे। पाप कमसे इस गति परना । एते पर एता क्या करना ।। ८॥ बहुरो पड़ो नकके माहीं। सो दुख कैसे वरण जाहीं । भू दुर्गन्ध नाक जहां सरना । एतेपर एता क्या करना अग्नि समान तप्त भू कहीं। कितहू शीत महा बन रही ॥ शूली सेज क्षणक ना डरना।। एते पर एता क्या करना ॥१०॥ परम अधर्मों असुर कुमार। छेदन भेदन करे अपार ॥ तिनके वशले नाहिं उबरना । एतेपर एता क्या करना ॥ ११ ॥ रंचक सुख जहं जियको नाहीं। बसते यहां नके गति माहीं ॥ देखत दुष्ट महा भय भरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १२ ॥ पुण्य योग भयो सुर अवतार । फिरत २ इस जगति मझार ॥ आवत काल देख थर हरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १३॥ सुर मन्दिर अरु मुख संयोग । निशि दिन मन वांछित वर भोग ॥ क्षण इक माहि तहांसे टरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १४॥ बहुत जन्म नक पुण्य कमाय । तब कहुं लही मनुज पर्याय ॥ तामें लयो जरादिक मरना । एतेपर एता क्या करना ॥१५॥ धन योवन सय ही ठकुराई । कर्म योगसे नव निधि पाई । सो स्वमान्तर कैसा झरना । एतेपर एता क्या करना ॥ १६ ॥ इन विषयनके तो दुख
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*जिनवाणी संग्रह *
दीनों। तबई तू तिनहीं रस भीनो ॥ तनक विवेक हृदय ना धरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १७ ॥ पर संगति कितना दुख पावे। तब भी तोको लाज न आवे ।। वासन संग नीर ज्यों जरना। एतेपर एता क्या करना ॥ १८॥ देव धर्म गुरु शास्त्र न जाने । स्वपर विवेक न उरमें आने ॥ क्यों होसी भवसागर त. रना । एतेपर एता क्या करना ॥ १६ ॥ पांचों इन्द्रिय अति वट. मारे । परम धर्म धन मूलत हारे ॥ सांय पिवहि एता दुख भरना। एसेपर एता क्या करना ॥ २०॥ सिद्ध समान न जाने आपयासे तोहि लगत है पाप ॥ चोल देख घट पटहि बघरना । एतेपर एता क्या करना ॥२१॥ श्रीजिन बचन अमिय रस वानी । पीवे नाहिं मूढ़ अज्ञानो ॥ जासे होय जन्म मृत्यु हरना। एते पर एता क्या करना ॥२२॥ जो चेते तो है यह दाव । नातर बैठा मङ्गल गाव । फिर यह नर भव वृक्ष न फरना । एते पर एता क्या करना ॥२३॥ भैया विनवे बारम्बार । चेतन चेत भलो अवतार । हो दूलह शिव रानी वरना । एते पर एता क्या करना ॥२४॥ __दोहा--ज्ञान मई दर्शन मई वारित्र मई सुभाय । सो परमात्म ध्याइये यही मोक्ष सुखदाय ॥ २५ ॥ सत्रह सौ इकतालीसके मार्ग शोर्ष निस्पक्ष । तिथि शङ्कर गण लीजिये श्रोरविवार प्रत्यक्ष ॥२६॥
६८ धर्म पचीसी । दोहा-भव्य कमल रवि सिद्ध जिन, धर्म धुरन्धर धोर ।
नमत सुरेन्द्र जग तम हरण; नमो त्रिविध गुरवोर ॥ चौपाई-मिथ्या विषयन में रति जीव । ताते जगमें भ्रमें
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** धर्म पचीसी #
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सदीव || विविध प्रकार गर्दै परयाय । श्रोजिनधर्म न नेक सुहाय ||२|| धर्म बिना बहुगति में परे । चौरासीलख फिर फिर घरे ॥ दुख दावानल माहिं तपन्त । कर्म करे फल भोग लहन्त || || अति दुर्लभ मानुष पर्याय । उत्तम कुल धन रोग न काय || इस अवसर में धर्म न करे । फिर यह अवसर कबहुं न सरे ॥ ४ ॥ नरकी देह पाय रे जीव । धर्म बिना पशु जान सदीव ॥ अर्थ काममें धर्म प्रधान । ता बिन अर्थ न काम न मान ॥ ५ ॥ प्रथम धर्म जो करे पुनीत । शुभसङ्गत आवे कर प्रीति ॥ विघ्न हरे सब कारज करे। धन सों चारों ने भरे ॥ ६ ॥ जन्म जरा मृत्यु बश होय । तिहूकाळ डोले जग सोय ॥ श्रीजिन धर्म रसायन पान । कबहुं न रुचे उपजे अज्ञान ||७|| ज्यों कोई मूरख नर होय । हलाहल गहे अमृत खोय || त्यों शठ धर्म पदारथ त्याग । विषयन सो ठाने अनुराग ॥ ८ ॥ मिथ्याग्रह गहिया जो जीव । छांड़ धर्म विषयन चित दीव || ज्यों पशु कल्पवृक्षको तोड़ | वृक्ष धतूरे की भू जोड़ ॥ ६ ॥ नर देही जानों परधान | विसर विषय कर धर्म सुजान ॥ त्रिभुवन इन्द्रतने सुख भोग | पूजनीक हो इन्द्रन जोग ॥ १० ॥ चन्द्र विना निश गज बिन दन्त । जैसे तरुण नारि बिन कन्त ॥ धर्म बिना त्यों मानुष देह । तातें करिये धर्म सुनेह ॥ ५१ ॥ हथ गय रथ पावक बहु लोग 1 सुभट बहुत दल चार मनोग । ध्वजा आदि राजा बिन जान। धर्म बिना त्यों नरभव मान || १२ || जैसे गन्ध बिना है फूल 1 नीर बिहीन सरोवर धूल ॥ ज्यों बिन धन शोभित नहीं भोन । धर्म बिना त्यों नर चिन्तोन ॥१३॥ अरचे सदा देव पद करुणावन्त । खरचे दाम धरम सों प्रेम
अरहन्त । चर्चे गुरु
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रुने विषय सुफल
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* जिनवाणी संग्रह .
नर एम ॥ १४ ॥ कमला वपल रहे थिर नाहिं । योवन रूप जरा लिपटाहि ॥ सुत मित नारी नाव संयोग। यह संसार स्वप्नको भोग ॥ १५ ॥ यह लख चित धर शुद्ध स्वभाव । कीजै श्रीजिन धर्म उपाय ॥ यथा भाव तैसो गति गहै। जैसी गति तैसो सुख लहै ॥१६॥ जो मूर्ख है धर्म कर होन । विषय प्रन्य रविव्रत नहिं कीन । श्रीजिन भाषित धर्म न गहै। सो निगोदको मारग लहै ॥ १७ ॥ आलस मन्द बुद्धि है जास । कपटी विषय मग्न शठ तास ॥ कायरता मद परगुण ढके। सो तियञ्चयोनि लइ सके ॥ १८ ॥ आरत रुद्र ध्यान नित करे । क्रोध आदि मतसरता धरे ॥ हिंसक बैरभाव अनुसरे । सो पापिष्ट नरक गति परे ॥ १६ ॥ कपट हीन करुणा वित माहि । है उपाधि ये भूले नाहिं ॥ भक्तिवन्त गुणवन्त जो कोय । सरलस्वभाव जो मानुष होय ॥ २० ॥ श्रीजिन वचन मग्न तप दान । जिन पूजे दे पात्रहि दान ॥ रहै निरन्तर विषय उदास । सोई लहै स्वर्ग आवास ॥२९॥ मानुष योनि अन्तके पाय । सुन जिन वचन विषय विसराय ॥ गहे महाव्रत दुर्द्धर वोर। शुक्लध्यान धर लहैं शिव धोर ॥२२॥ धर्म करत सुख होत अपार । पाप करत दुख विविध प्रकार ॥ बाल गुपाल कहै सब नार। इष्ट होय सोई अवधार ॥२३॥ श्रीजिनधर्म मुक्ति दातार। हिंसा धर्म परत संसार ॥ यह उपदेश जान बड़ भाग। एक धर्म सो कर अनुराग ॥ २४॥ ब्रत संयम जिम पद थुति सार । निर्मल सम्यक भाव निवार ॥ अन्त कषाय विषय कृषि करो। जो तुम भक्ति कामिनो वरो ॥२५॥
दोहा-बुध कुमदनि शशि सुख करन, भो दुख नाशन जान ।
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* अध्यात्म पश्चासिका *
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कहों ब्रह्म जिन दास यह, ग्रन्थ धर्मकी खान ॥२६॥ द्यानत जे बांवें सुनें, मनमें करें उछाय । ते पावें सुख शान्ति भी, मन वांछित फल दाय ॥ ॥ इति ॥
६६ अध्यात्म पकारिका । दोहा-आठ कर्मके बंधेमें, यन्धजीव भव यास । कमै हरै सब गुण भरे, नमों सिद्धि सुखरास ॥१॥ जगत मांहिं चहुं गति विधे, जन्म मरण वश जीव । मुक्ति माहिं तिहुंकालमें, चेतन अमर सदीव ॥२॥ मोक्ष माहिं सेती कमी, जगमें आवे नाहिं । जगके जीव सदीव ही, कर्म काट शिव जाहिं ॥३॥ पूर्व कर्म उद्योगते जोव करें परिणाम । जैसे मदिरा पानते, करै गहल नर काम ॥४॥ नार्ते बाधैं कर्मको, आठ भेद दुखदाय । जैसे चिकने गातमें, धूलिपुञ्ज जम जाय ॥ ५॥ फिर तिन कर्मनके उदय, करै जीव बहु भाय । फिरके बांधे कमको, ये ससार सुभाय ॥ ६ ॥ शुभ मावन ते पुण्य है, अशुभ भाव ते पाप। दुहू आच्छादित जीवसो, जान सके नहीं आप ॥ ७॥ चेतन कम अनादिके, पावक काठ बखान । क्षीर नीर तिल तेल ज्यों, खान कनक पाखान ॥ ८॥ लाल बन्ध्यों गठड़ी विध; भानु छियो घन मांहिं । सिंह पीअरे मैं दियो, जोर चले कछु नाहिं ॥६॥ नीर बुझावै आगको, जले टोकनी माहि, देह माहि चेतन दुखी, निज सुख पावे नाहिं ॥१०॥ तदपि देहसों छुटत है, अन्तर तन है संग । सो न भ्यान अग्नी दहै, तब शिव होय अ. भंग ॥ ११ ॥ राग दोष से आप ही, पड़े जगतके माहिं । ज्ञान भाव ते शिव लहै, दूजा संगी नाहिं ॥ १२ ॥ जैसे काह पुरुषके द्रव्य
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* जिनवाणी संग्रह *
सिद्धसे गजपुर आये। पिता सुदर्शन माता मित्रा लख सुख पाये। शुभ कुरुवंश महान हेम तनु मन्छ चिन्हवर । तीस वांप तन तुग त्रिजन मनमोहन सुन्दर ॥ सहस्त्र चउरासो वर्षका आयु खंड आसन अटल। शिवथान शिखर सम्मेद जिन बन्दों तिनके पद कमल ॥ १६ ॥ मल्लिनाथ तज विजय जन्म मिथिलापुर लीमा । कुम्भ पिता रक्षिता माताको बहु सुख दीना ॥ वंश कहो इक्ष्वा हेम तनु घट लक्षण वर । काय धनुष पश्चीस तुग मह लख सुर नर ॥ आयु वर्ष पचपन सहस्र खड्गासन सोहै अचल । शिवथान शिखर सम्मेदवर तीर्थराज विसरे न पल ॥२०॥ मुनिसुव्रत अपराजितसे कुशाग्रपुर राजे । पितु सुमित्र पद्मावत माताको सुख साजे ॥ हरिवंशी तनु श्याम कच्छ लक्षण शुभ सोहै। बीस धनुषका काय तुग देखत मन मोहै । तीस सहस्र सु वर्षका आयु खंग आसन सुभग। सम्मेद शिखर शिवथान प्रभु तीर्थराज भवि मुक्ति मग ॥ २२ ॥ प्राणत तज नमिनाथ जन्म मिथिलापुर लीना । विजय पिता वप्रामाताको अति सुख दीना ॥ विमल वंश इक्ष्वाकु वणे तनु हेम सुहावन । पद्म पाखुरी अङ्क पञ्चदश चांप सुभग तन || आयु वर्ष दश सहस्रका पद्यासनसे शिव गये। सिंद्धक्षेत्र सम्मेदगिरि वन्दित हों मंगल नये ॥ २२ ॥ बैजयन्तसे नेमनाथ सूरीपुर प्रगटे । सिद्ध विजय शिवदेवीके देखत दुख विघटे ॥ लहो श्रेष्ट हरिवंश श्याम तनु शंख अङ्कवर। काय धनुष दश सहस्त्र वर्षका आयु पूर्णधर ॥ खड्गासन गिरिनारिसे राजमती पति शिव गये। पशुबंदि छुड़ाई दयाकर तिन पदपंकज हम नये ॥२३॥ प रस प्रभु आनत दिव तज काशीमें राजे। अश्वसेन बामा माता
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* सूतक निर्णय *
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गृह दुन्दुभि बाजे | उम्र वंश तनु नोल चिह्न अहिराज विराजे । नव कर काय उतंग आयु शत वर्ष सुछाजे ॥ खड्गासन सम्मेदगिर मुक्ति थान मद कमठ हर । मन वच तनू बन्दन करों ते बीसम जिनराज वर ||२४|| वर्धमान पुष्पोत्तरसे कुण्डलपुर आये । सिद्धार्थ पितु त्रिशला माता लख सुख पाये || नाथ वंश ननु हेमवर्ण हरि चिन्ह मनोहर । सात हाथ तनु आयु बहत्तर अब्द लयोबर || खड्गासन पावापुरी मुक्ति थान जगताप हर । नवे नाथूराम नित हाथ जोड़ युग शीश धर ॥ २५ ॥ इति ||
७३ सूतक निर्णय
सूतक में देव शास्त्र गुरुका पूजन प्रक्षालादि तथा मंदिरजीका वस्त्राभूषणादिक स्पर्शनकी मनाई है तथा पात्रदान भी वर्जित है । सूतक पूर्ण होनेके बाद प्रथम दिन पूजन प्रज्ञाल तथा पात्रदान करके पवित्र होवे । सूतक विवरण इस प्रकार है । १, जन्मका दश दिन माना जाता है । २, स्त्रीका गर्भ जितने माहका पतन हुआ हो उतने दिनका सूतक मानना चाहिये, विशेषतः यह है कि यदि तीन माहसे कमका हो तो तीन दिनका सूतक मानना चाहिये । ३ प्रसूती स्त्रीको ४५ दिनका सूतक होता है। इसके पश्चात् वह स्नान दर्शन करके पवित्र होवे | कहीं २ चालीस दिनका भी माना जाता है । ४, प्रसूति स्थान एक माहतक अशुद्ध है । '१, रजस्वला स्त्री पांचवें दिन शुद्ध होती है । ६, व्यभिचारिणी स्त्रीके सदा ही सूतक रहता है, कभी भी शुद्ध नहीं होती । ७, मृत्युका सूतक १२ दिनका माना जाता है। तीन पीड़ीतक १२ दिन, चौथी पीड़ोमें ६
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* जिनवाणी संग्रह *
दिनका, छठी पीढ़ीमें ४ दिन, सातवीं पीढ़ीमें ३ दिक, माठवीं पीढोमें एक दिन रात, नवमीं पीढ़ीमें स्नान मात्रसे शुद्धता कही है। ८, जन्म तथा मृत्युका सूतक गोत्रके मनुष्यको ५ दिनका होता है। , आठ वर्षतकको बालकके मृत्युका ३ दिनका और तीन दि. नके बालकका सूतक १ दिनका जानो। १०, अपने कुलका कोई गृहत्यागी उसका संन्यासमरण अथवा किसी कुटुम्बीका संग्रा ममें मरण हो जाय, तो १ दिनका सूतक होता है। यदि अपने कुलका देशांतरमें मरण करे और १२ दिन पूरे होने के पहले मालम हो तो शेष दिनोंका सूतक मानना चाहिये। यदि दिन पूरे हो गये होवें तो स्नानमात्र सूनक जानो। ११, घोड़ी, भैंस, गौ आदि पशु तथा वासी अपने गृहमें जने तो १ दिनका सूतक होता है। गृह थाहर जने तो सूतक नहीं होता। १२, दासी, दाल तथा पुत्रीके प्रसूत होय या मरे, तो ३ दिनका सूतक होता है । यदि गृह बाहर हो तो सूतक नहीं। यहांपर मृत्युकी मुख्यतासे ३ दिनका कहा है। प्रसूतका १ही दिन जानो। १३, अपनेको अग्निमें जलाकर (सती होकर) मरे तिसका छह माहका तथा और मौर हत्याओंका यथायोग्य पाप जानना । १४, जने पीछ भैसका दूध १५ दिनतक, गायका दूध १० दिनतक और यकरीका दूध ८ दिनतक अशुद्ध है पश्चात् खाने योग्य है। प्रगट रहे कि कहीं देश-भेदसे सूतक विधानमें भी भेद होता है इसलिये देशपद्धति तथा शास्त्रपद्धतिका मिलानकर पालन करना चाहिये।
(श्रावकधर्मसंग्रहसे उद्धृत)
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* जिनगुण मुकाबली *
__ ७४ जिनगुण मुक्तावली दोहा-श्रीजिनेश यतीशको, सुमिर हिये उपकार । जिनवर गुण मुक्तावली, लिखू स्वपर सुखकार ॥१॥
चौपाई। तीर्थंकर पदके गुण घणे। धन धारावत जाहि न गिणे ॥ यथाशक्ति करिये चिन्तौन । जाते होय पाप विष बौन ॥२॥ सतयुगमें प्रगटे परवीन । मानुष देह दोषकर हीन ॥ आर्यखण्ड आय अवतरे । युगल सृष्टिमें जन्म न धरे ॥३॥ क्षत्री वंश विना नहि और । जाके गर्भ जन्मको ठौर ॥ माताके रज दोष न होय । एक पूत जन्मै शुभ सोय ॥ ४ ॥ मात पिताके देह मझार । मल अरुमूत्र नहीं निर्धार ॥ गर्भ शोध देवी आदरै। स्वर्ग सुगन्धि लाय शुचि को ॥ जाके औदारिक तन माहिं । सात कुधातु मल ते नाहि । यातै परमोदारिक कहो । आदि पुराण देख सर दहो ॥ ६ ॥ केवल ज्ञान समय तन सोय । सहज निगोद विना तब होय ॥ नारि नपुसकके सम्बन्ध तीर्थंकर पद उदय न बन्ध ॥७॥ जाके संयम समय सही। आलोचन विधि वरणी नहीं ॥ मस्तक भाग विराजे केश । श्याम सचिकन सुभग सुधेश॥॥ अधिक हीन जिस अंग न होय। आधिव्याधि व्यापै नहि कोय ॥ विष शस्त्रादिक कारण पाय । आयु कर्म सित छेद न ताय ॥६॥ दोहा-इत्यादिक महिमा घणो, तीर्थधुर परमेश। दश बिधि जाके जन्म , अतिशय और विशेष ॥१०॥
चौपाई। प्रमुके अङ्ग न होब फ्सेव। नहीं निहार किया स्वयमेव ॥
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१७२
* जिनवाणी संग्रह *
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नाशा नेत्र कर्ण मल नहीं । जीभ दन्त मल मूत्रन कहीं ॥ ११ ॥ क्षीर बराबर रुधिर अनूप । शंख वर्ण शुचि मान सरूप ॥ समच. तुरस्त्र सुभग संठान । तुग देह दश ताल प्रमान ॥१२॥ दोहा--अग्ने कर अंगुष्ठ सो, मध्यमिका परयंत।
बारह अंगुल ताल यह, अव धारो मतिवन्त ॥१३॥ याहो अपने ताल सों, दशगुण ऊच शरीर ।
सम चतुरस्त्र संठानको, यह प्रमाण है बीर ॥१४॥ चौपाई-प्रथम सार संहनन अबिद्ध । वज्रबृषभ नाराव प्रसिद्ध । रूप सम्पदा अवरजकार । सुर नर नाग नयन मनहार ॥१५॥ सहस अठोतर लक्षण लसैं । चक्रोके तन चौसठ बसें ॥ लक्षण पाय सुल. क्षण भिन्न । सो प्रतिमाके आसन विह्न ॥ १६ ॥ सहज सुगन्धि बसै वपुमाहिं। सब सुगन्धि जासो द्रवजाहिं ॥ लोक उठावन शक्ति निवास । अतुल अनन्त देह बल जास ॥ २७॥ प्रिय हित वचन अमृत उनहार । सब जगजन्तु श्रवण सुखकार । जन्म जान अतिशय दश येह । अब दश केवलके सुन लेह ॥ १८ ॥ दोसौ यो. जन परिमित लोय । चहुंविषमें दुर्भिक्ष न होय ॥ व्योम विहार भूमियत जास । बपुसों होय न प्राण निवास ॥ १६ ॥ सब उपलग रहित जग सूप । निराहार अति तृप्त स्वरूप ॥ एक दिशा सन्मुख मुख जोय । चतुरानन देखे सम कोय ॥ २० ॥ सब विद्या हैं अति गंभीर । छाया वरजित विमल शरीर ॥ पलक पात लोचन नहि गहैं । नख अरु केश एकसे रहैं ॥ २१ ॥ सोरठा-नई रसादिक धात, होय न अशन अभावः ।
तिस कारण ते भ्रात, नस्ल अरु केश बढ़े नहीं ॥२२॥
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* नेमि व्याह *
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इलम । विवेक जाता रहा हियेसे सबकी जूटी पियें विलम ॥टेक॥ प्रथम तमाखू महा अशुचि है, म्लेच्छ इसको बनाते हैं । छूने योग्य नहीं बिलकुलके अपना तोय लगाते हैं। डंडी चिलममें धूम योगतें जो असंक्य बताते हैं। पीते ही मर जांय सभो वह यह जिन श्रतिमें गाते हैं । होती इसमें अपार हिंसा जरा दया नहीं आती गिलम । विवेक जाता०॥ कौमरिजालोंके साथ पीते गई आबरू ये क्या बनो है । हया दूर कर धर्म लजाते उन्हींमें जा उनकी मत सनी है ॥ वचसे गांजा पियें पिलावें उन्होंने बुद्धि तेरी ये हनी है। स्वास प्रगट कर बदन जलाता प्राण हरणको ये हरफनी है ॥ लगाना दमका बहुत बुरा है पीते तनमें पड़ खिलम । विवेक० ॥ थावर
सकर सहित भरा जल कुवास है ए निधान हुक्का । सुतोय पर सुजीव मरते है पापका ए निधान हुक्का || रोग भिन्न हो जाय कहें मर पीते हैं हम यह जान हुक्का । शुद्ध औषधि करो ग्रहण तुम अशुचि दूर करिये जान हुक्का । सोख सुगुरुकी यही रूपचन्द त्यागो जल्द मत करो विलम | विवेक० ॥
७६ मि व्याह ।
( विनोदीलाल कृत सबैया । )
मौर धरो शिर दूलहके कर कंकण बांध दई कस डोरी । कुंडल काननमें झलकें अति भालमें लाल विराजत रोरी ॥ मोतीनकी लड़ शोभित है छवि देखि लजें वनिता सब गोरी । लाल विनोदी साहियको मुख देखनको दुनियां उठ दौरी ॥ ॥ छत्र फिरे शिर दूलहके तब वारत रत्न शिवादेवी मेया । कृष्ण इसे बल
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* जिनवाणी संग्रह #
भद्र उतेकर ढोरत चमर चले दोऊ भैया ॥ भूप समुद्र विजय सब संग चले वसुदेव उछाह करैया । लाल विनोदके साहिबको बनिता सब हो मिलि लेत बलैया ॥ २ ॥ गोंड़े गये जब नेम प्रभू पशु पक्षिन च पुकार करी है । नाथसे नाथन के प्रतिपाल दयाल सुनो विनती हमरी है ॥ बन्दि पढ़े विललायं सबे बिन कारण विपदा आनि परी है। पूछत लाल विनोदीके साहिब सारथी क्या इन वन्दि भरी है ॥ ३ ॥ सारथीने कर जोड़ कहो सुन नाथ इन्हें जु बिदारेंगे अब । यादव संग जुरे सबरे तिन कारण ये सब मारेंगे अथ || इनके बच्चा बन में बिलपें इनको वे आज संघारेंगे अब । ताते तुमसे फर्याद करें हमरो गति नाथ सुधारेंगे अब ॥ ४ ॥ बात सुनी उतरे रथसे पशु पक्षिनकी सब बन्दि छुड़ाई | जावो सबै अपने थलको हमरो अपराध क्षमा करो भाई ॥ धृक् है ऐसो जोनो जगमें तबही प्रभु द्वादश भावना भाई । देव
कान्तिक आय गये जिन धन्य कहें सब यादव राई ॥ ५ ॥ प्रभु तो बिन ऐसी कौन करे औ को जगमें यह बात विचारे । कौन तजे सुत बन्धु वधू अरु को जगमें ममता निर्धारे ॥ को 'वसु 'कर्मनि जीत सके अरु आप तरे अरु औरन तारे । लाल विनोदके साहबने यश जीत लयो जग जीवन हारे ॥ ६ ॥ नेम उदास भये जबसे कर जोड़के सिद्धका नाम लयो है । अम्बर भूषण डार दिये शिर मौर उतारके द्वार दयो है । रूप धरों मुनिका जय हो तब ही बढ़िके गिरिनारि गयो है । लाल विनोदीके साहिवने तहां पंच महाव्रत योग ठयो हैं ॥ ७ ॥ नेमकुमारने योग लयो जब होनेको सिद्ध करी मन इक्षा । या भवके सुख जान अनित्य सो आदर
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* लावनी *
एक उहण्डकी भिक्षा ॥ स्नेह तजो घरबार तजो नहीं भोग विला. सनको मन शिक्षा। लाल विनोदीके साहिबके संग भूप सहन लई तब दिक्षा ॥ ८॥ काहने जाय कही सुनो राजुल तेरो पिया गिरिनारि चढ़ो है। इतनी सुन भूमि पछार लई मानो तन सेती जीव कढ़ो है ॥ सो उग्रसेनसे जाय कही सुन तात विधाता अनर्थ गढो है । लाज सबै सुध भूल गई पिय देखनको जु उछाह बढ़ो है ॥ ६ ॥ लाड़ली क्यों गिरनारि चढ़े उस ही पति तुल्य सुधी वर लाऊ। प्रोहितको पठावाऊ अभो बहु भूपरके सब देश टुढाऊ । व्याह रचों फिरिके तुम्हरो महि मण्डलके सब भूप बुलाऊ । लाल विनोदीके नाथ बिना द्यु तिवंतको कंत तुझे परणाऊ॥ १० ॥ काहे न बात सम्हाल कहो तुम जानन हो यह बात भली है। गालियां काढ़त हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ चली है। मैं सबको तुम तुल्य गिनों तुम जानत ना यह बात रली है। या भवमें पति नेमि प्रभू वह लाल विनोदीको नाथ बली है ॥ ११ ॥ मेर। पिया गिरनारि चढ़ो सुन तात मैं भी गिरिनारि बढ़ोंगी। मंग रहों पियके वनमें तिन हो पियको मुख नाम पढ़ोंगी ॥ और न बात सुहाय कछू पियकी गुणमाल हियेमें पढ़ोगी। कंत हमारे रचे शिवसे शिव थानको मैं भी सिवान चढोंगी॥ १२ ॥ इति ॥
७६ लावन ।। धन्य दिवस धनि घड़ी आजकी जिन छवि नजर पड़ी। स्वपर भेद बुधि प्रगट भई उर भर्म बुद्धि बिसरी ॥ टेक-नासिकान है दृष्टि मनोहर वर विराग सुथरी । आतम शुद्ध सुराजत मानो अनु
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_*जिनवाणी संग्रह *
भव सुरस भरी ॥१॥ शांत्याकृति निरखत ही परकी आरति सर्व गरी । चिर मिथ्या तम नाश करनको मानो अमृत झरी ॥२॥ वीतराग ताका सुहेतु सुनि मोह भुजग विसरी । पट भूषण विनवै सुन्दरता नाहीं रंक हरी ॥३॥ जाकी युति शत कोट चन्द्रने अद्धत जग विस्तरी । तारक रूप निहारि देव छवि मालिक नमन करी ॥४॥
८० केइया कुटलाई
मत करो प्रीति वेश्या विष बुझी कटारी। है यही सकल रो. गनकी खान हत्यारी ॥ टेक ॥ औषधि अनेक हैं सर्प डसेकी भाई। पर इसके काटे की नहिं कोई दवाई ॥ गर लगे वान तो जीवित हू रहि जाई । पर इसके नैनके वानसे होय सफाई ॥ है रोम रोम विष भरी करो ना यारी। है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥ १ ॥ यह तन मन धन हर लेय मधुर बोलीमें। बहुतोंका कर शिकार उमर भोलोमें ॥ कर दिये हजारों लोटपोट होलीमें। लाखोंका दिल कर लिया कैद चोलोमें ॥ गई इसी कर्ममें लाखों ही जमीदारी । है यही सकल रोगनकी खान हत्यारी ॥२॥ हो गये हजारोंके बल वीर्य छारा । लाखोंका इसने वंश नाश कर डारा॥ गठिया प्रमेह आतिशने देश बिगारा। भारत गारत हो गया इसीका मारा ॥ कर दिये हजारों इसने चोर और ज्वारी। है यही सकल दुर्गुणको खानि हत्यारी ॥३॥ इसही ठगनीने मद्य मांस सिखलाया। सब धर्म कर्मको इसने धूर मिलाया । और दया क्षमा लज्जाको मार भगाया । ईश्वर भकीका मूल नाश करवाया। हों इसके उपासक रोरवके अधिकारी । है यही० ॥४॥ वह नव.
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* जिनवाणी संग्रह *
प्रभजिनद्राय अष्टकमदहनाय धूपं । अति उत्तमफल सु मंगाय, तुम गुन गावतु हों। पूजों तनमन हरषाय, विधन नशावतु हों। श्री. ॐ ह्रीं श्रीवद्रप्रभजिनेंद्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं । सजि आठो दरब पुनीत, आठों अङ्ग नमों । पूजों अष्टमजिन मीत, अष्टम अवनि गमों श्री० । ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभजिनेंद्राय अनर्ग्य पद प्राप्तये अयं ॥
पञ्चकल्याणक । छन्द तोटक-कलि पञ्चमचैत सुहात अलो । गरमागम मङ्गल मोद भली। हरि हर्षित पूजन मातु पिता। हम ध्यावत पावत शर्मसिता ॥१॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपञ्चम्यां गर्भमङ्गलप्राप्ताय अर्ध । कलि पौष इकादशि जन्म लयो। सव लोक विषे सुखथोक भयो सुर ईश जजे गिरशोश तबैं। हम पूजन हैं नुत शीश अथै ॥२॥ ॐ हीं पौष कृष्णकादश्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय अर्घ । तप दुद्धर श्रीधर आप धरा। कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा ॥ निज ध्यानवि लवलीन भये । धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ॥ ३॥ ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय अघ । वर केवलभानु उद्योत कियो । तिहुं लोक तणों भ्रम मेट दियो । कलिफाल्गुण सप्तमि इंद्र जजे ॥ हम पूजहिं सर्व कलङ्क भजे ॥४॥ ॐ ह्रीं फाल्गुणकृष्ण सप्तम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय अर्घ । सित फाल्गुण सप्तमी मुक्ति गये । गुणवन्त अनन्त अवाध भये॥ हरि आय जजे तित मोदधरे। हम पूजत ही सब पाप हरे ॥५॥ ॐ ह्रीं फाल्गुणशुक्कसप्तम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय अर्ध ।
जयमाला। दोहा-हे मृगांकअंकितवरण, तुम गुण अगम अपार ।
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* श्रीचन्द्रप्रम सिनपूजा *
गणधरसे नहिं पार लहिं तौ को वरनल सार ॥१॥ पै तुम भगति हिये मम, प्रेरे अति उमगाय । नाते गाऊ सुगुण तुम तुमही होउ सहाय ॥२॥
छन्द पद्धति ( १६ मात्रा) जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान । भवकानन हानन दवप्रमान । जय गरभजनम मङ्गल दिनंद । भवि जीवविकाशन शर्मकंद ॥३॥ दशलक्षपूर्वकी आयु पाय । मनवांछित सुख भोगे जिनाय ॥ लखि कारण है जगते उदास । चिन्त्यों अनुप्रेक्षा सुखनिवास ॥ ४ ॥ तित लोकांतिक बोध्यो नियोग। हरि शिविका सजि धरियो अभोग ॥ ताप तुम चढ़ि जिनवन्दराय । ताछिनकी शोभाको कहाय ॥५॥ जिन अङ्ग सेत सित चमर ढार । सित छत्र शोस गलगुलकहार ॥ सित रतनजड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्रवरण चरौं पवित्र ॥६॥ सित तन द्युति नाकाधीश आप। सित शिविका कांधे धरि सुचाप ॥ सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तत जान पर्व ॥ ७॥ सित चन्दनगरते निकसि नाथ। सित वनमें पहुंचें सकलसाथ ॥ सितशिलाशिरोमणि स्वच्छछांह । सित तपतित धाखो तुम जिनाह ॥ सित पयको पारण परमसार । सित चन्द्रदत्त दोनों उदार ॥ सित करमें सो पयधार देत । मानों बांधत भवसिंधुसेत ॥६॥ मानों सुपुण्यधारा प्रतच्छ। तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ॥ फिर जाय गहन सित तपकरत । सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ॥ लहि समवसरण रचना महान । जाके देखत सब पापहान ।। जहं तरु अशोक शोभै उतंग । सब शोफतनो चुरै प्रसंग ॥११॥ सुर सुमनवृष्टि नमतें सुहात। मनु मन्मथ तज
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* जिनवाणी संग्रह *
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हथियार जात ॥ बानी जिन मुखसों खिरत सार । मनुतत्वप्रकाशन मुकुर धार ॥१२॥ जहं चोसठ चमर अमर दुरन्त । मनु सुजस मेघ झरि लगिय तंत। सिंहासन है जह कमल जुक्त मनु शिवसरवरको कमलशक्त ॥१३॥ दुदुमि जितबाजत मधुर सार । मनु करमजीतको है नगार ॥ शिर छत्र फिरै अय श्वेत वर्ण मनु रतन तीन प्रयताप हर्ण ॥१४॥ तनप्रभातनो मण्डल सुहात । भवि देखत निजभव सात सात ॥ मनु दर्पणा ति यह जगमगाय । भविजन भव मुख देखत सुआय ॥१५॥ इत्यादि विभूति अनेक जान । बाहिज दीसत महिमा महान ॥ नाकों वरणत नहि लहत पार । तो अंतरङ्गको कहै सार ॥१६॥ अनअंत गुणनिजुत करि विहार । धरमोपदेश दे भव्य तार ॥ फिर जोगनिरोध अघाति हान । सम्मेद थकी लिय मुकतिथान ॥१७॥ वृन्दावन बन्दत शीश नाय। तुम जानत हो मम उर जु भाय ॥ तातका कहीं सु वार बार । मनवांछित कारज सार सार ॥१८॥
उन्द घसानन्द। जय चन्दजिनन्दा आनंदकंदा, भवभयभञ्जन राजै है ॥ रागाविफदा हरि सब फंदा, मुकतिमांहि थिति साजै हैं ॥१६॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णा निवपामीति स्वाहा ।।
छंद चौबोला-आठों दरब मिलाय गाय गुण, जो भषिजन जिनचन्द जजै.॥ ताफै भवभवके अघ भाज, मुक्तसार सुख ताह सजै ॥२०॥ जमके पास मिट सप ताके, सकल अमंगल दूर जजै। वृन्दावन ऐसो लखि पूजत, जाते शिवपुरि राज रौं ॥ २१ ॥
इत्याशीर्वादः परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ।
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* शांतिनाथ जिनपूजा *
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८४ शांतिनाथ जिन पूजा ।
या भवकाननमें चतुरानन, पापपनानन घेरि हमेरी। आतमजान न मान न ठान न, बान न होन दई सठ मेरो ॥ तामद भानन आपहि हो, यह छान न आन न आननटेरी। आन गही शरनागतको अब श्रीपतजी पत राबहु मेरी। ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथ जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर । संवौषट ।।
हिमगिरिगतगंगा-धार अभंगा, प्रासुक संगा भरि भृगा। जरमरनमृतंगा, नाशि अधंगा, पूजि पदंगा मृदुहिंगा॥ श्रीशांतिजिनेशंनुत शक्र शं वृष चक्र शं चक्र शं चक्र शं । हनि अरि चक्र शं हे गुनधेशः दयामृतेशं मक्रशं ॥ १॥ पर बावनचंदन, कदलीनंदन, घन आनंदन सहित घलों। भवताप निकन्दन, एरा नन्दन, बंदि अमंदन, वरनवसों ॥ श्री० ॥२॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनायजिने. न्द्राय भवतापविनाशनाय चंदनं : हिमकरकरि लजत, मलयसुसजत, अच्छतजजत, भरिथारी। दुखदारिद गजत, सदपदसजत, भवभय भजन, अतिभारी ॥ श्रो० ॥ ३ ॥ ओं ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्रामये अक्षतं ॥ मंदार सरोजं, कदली जोज, पुंज भरोज, मलयभरं भरि कंचनथारी, तुम ढिग धारी, मदनविदारी, धोरधरं ॥ श्रो० ॥ ४ ॥ओं ह्रीं श्रोशांतिनाथजिनेन्द्राय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पं ॥ पकवान नवीने, पावन कीने, षटर. सभोने, सुखदाई । मनमोदनहारे, छधा विहारे, आगे धारे गुनगाई ॥ श्रो० ॥ ५॥ ओं ह्रीं श्रोशान्तिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग विनाशनाय नैवेद्य ॥ तुम ज्ञानप्रकाशे, भ्रमतम नाशे, शेयविकाशे
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* मेरी भावना *
बुद्धि, वीर जिन, हरि, हर, ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो, भक्ति भावसे प्रेरित हो यह वित्त उसीमें लीन रहो ॥१॥ विषयोंकी आशा नहीं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं.
निज-परके हित साधनमें जो निशदिन तत्पर रहते हैं । स्वार्थत्यागकी कठिन तपस्या बिना खेद जो करते हैं,
ऐसे ज्ञानी साधु जगतके दुखसमूहको हरते हैं ॥ २ ॥ रहे सदा सत्संग उन्हींका, ध्यान उन्हींका नित्य रहे,
उन ही जैसी चर्या में यह चिस सदा अनुरक्त रहे । नहीं सताऊ' किसी जीवको, झूठ कभी नहि कहा करू,
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परधन - बनिता पर न लुभाऊ, संतोषामृत पिया करू ं ॥ ३ ॥ अहंकारका भाव न रक्खू, नहीं किसी पर क्रोध करू ं,
देख दूसरोंकी बढ़तीको कभी न ईर्षा भाव धरू ं । रहे भावना ऐसी मेरी, सरल-सत्य व्यवहार करू,
बने जहांतक इस जोवनमें औरोंका उपकार करू ॥ ४ ॥ मैत्रीभाव जगतमें मेरा सब जीवोंसे नित्य रहे,
दीन-दुखी जीवोंपर मेरे उरसे करुणास्त्रोत बहे । दुर्जन-क्रूर-कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे,
साम्यभाव रक्खू मैं उन पर ऐसी परिणत हो जावे ॥५॥ गुणोजनको देख हृदयमें मेरे प्रेम उमड़ आवे,
वने जहांतक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे । होऊ नहीं कृतन कभी मैं, द्रोह न मेरे उर आवे,
गुण ग्रहणका भाव रहे नित, दृष्टि न दोषोंपर जावे ॥६॥
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___ * जिनवाणो संग्रह
कोई बुरा कहो या अच्छा, लक्ष्मी आवे या जावे,
. लाखों वर्षों तक जीऊ या मृत्यु आज हो आजावे । अथवा कोई कैसा ही भय या लालच देने आवे,
तो भी न्याय मार्गसे मेरा कभी न पद डिगने पावे ॥७॥ होकर सुखमें मन न फूले, दुखमें कभी न घपरावे,
पवत-नदी-श्मशान-भयानक अटपीसे नहि भय खावे। रहे अडोल-अकंप निरन्तर, यह मन, गुढ़तर बन जावे,
इष्टवियोग-अनिष्टयोगमें सहनशीलता दिखलावे ॥८॥ सुखी रहें सब जीव जगतके, कोई कभी न घबरावे,
नैर-पाप अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे । घरघर चर्चा रहे धर्मकी, दुष्कृत दुष्कर हो जावें,
शान-चरित उन्नत कर अपना मनुज-जन्मफल सब पावें ॥६॥ ईति-भोति व्यापे नहिं जगमें वृष्टि समय पर हुआ करे,
धर्मनिष्ठ होकर राजा भो न्याय प्रजाका किया करें । रोग मरी दुर्भिक्ष न फैले, प्रजा शांतिसे जिया करे,
परम अहिंसा-धर्म जगतमें, फेल सर्वहित किया करे ॥१०॥ फेले प्रम परस्पर जगमें मोह दूरपर रहा करे,
अप्रिय कटुक-कठोर शब्द नहिं कोई मुखसे कहा करे । बनकर सब 'युग-वीर' हृदयसे देशोन्नति रत रहा करें,
वस्तुरूप विवार खुशीसे सब दुख-संकट सहा करें ॥११॥
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श्रीभातकुलीजी अतिशय क्षेत्र ।
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काशीनिवासी कविवर वृन्दावनविरचित
८८ अरहतपासाकेवली । दोहा-श्रीमत वीरजिनेशपद, बंदों शीस नवाय । गुरु गौतमके बरन नमि, नमों शारदा मायं ॥ १॥ श्रेणिक नपके पुण्यतें, भाषी गणधरदेव। जगतहेत अरहंत यह. नाम 'केवली' सेव ॥२॥ चंदनके पासाविर्ष, चारों ओर सुजान । एक एक अक्षर लिखौ, श्री 'अरहंत' विधान ॥ ३॥ तीन वार डारो तबै, करि वर मंत्र उचार । जो अक्षर पांसा कहै, ताको करौ विचार ॥ ४ ॥ नीन मंत्र हैं तासुके, सात सात हो बार । थिर है पांसा ढारियो, करिकै शुद्ध उद्धार ॥ ५ ।। जानि शुभाशुभ तासुतं, फल निज उदयनियोग। मन प्रसन्न ह्र सुमरियो, प्रभुपद सेवहु जोग ॥ ६ ॥
प्रथममंत्र-ओं ह्रीं श्रीं बाहुबलि लंबवाहु ओं क्षां क्षीं संक्षे क्षे क्षों क्षः ऊर्द्ध भुजा कुरु कुरु शुभाशुभं कथय कथय भूतभविष्यतिवर्तमानं दर्शय दर्शय सत्यं ब्रूहि सत्यं ब्रूहि स्वाहा ।
(प्रथम मंत्र सात वार जपना) दूसरा मंत्र-ओं हः ओं सः ओं क्षः सत्यं वद सत्यं वद स्वाहा ।
(सात वार जपना * ) तीसरा मंत्र ओं ह्रीं श्रीं विश्वमालिनि विश्वप्रकाशिनि अमोघवादिनि सत्यं ब्रूहि सत्यं ब्रूहि राह्यहि राह्यहि विश्वमालिनि स्वाहा।
* मन एकत्र करि विनयसहित अपना अभिप्राय बिचारकरि श्री मह त भगवान के नामाक्षरका पांसा तोन बेर ढालना। जो जो वरन पड़े तिसो वरनका भेद पाक फलका विश्चय करना। जिम मागमें यह बड़ा निमित्त है। इसे हमने लिखा कि अपना वा पराया उपकार होय । ( वृन्दावन )
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* जिनवाणो संग्रह *
( यह मंत्र भी सात वार जपना )
अथ अकरादि प्रथम प्रकरण । अमन। जो परे तीन अकार । तो जानि सुखविस्तार । कल्याणमंगल होय । सम्मान बाढ़ सोय ॥ १ ॥ लक्ष्मी वसै नित धाम । व्यापारमें बहु दाम । परदेशमें धनलाभ। संग्राममें जयलाभ ॥२॥ नपद्वारमें सम्मान । संकट कटें प्रमान । सब रोग अरु दुर्भागि। ततकाल जावै भानि॥३॥ प्रगटें सकल कल्यान यामें न संशय जान । यह महा उत्तम अंक। फल अटल जासु निसंक ॥ ४॥
चौपाई छंद। अपर। दोअकारपर पर रकार । मध्यम फल है सुनो वि. चार । जो कारज चिंतो मनमाहिं । सो तौ शीघ्र होनको नाहि॥५॥ पूरब पाप उदय है जानि । सोई करत काजकी हानि । ताते इष्टदेव आराधि । कुलदेवीको पूजि सुसाधि ॥ ६ ॥ तासु जजन आराधन किये ! किंचित् होय काज सुनि हिये । मध्यम प्रश्न पत्रौ है येह । मति मानो यामें संदेह ॥ ७॥
पद्धड़ी छंद। अहं । जहँ दो अकारके अंत माहिं । हंकार पर सो शुभ कहाहि । धन धान्य समागम लाभ होय। परदेश गयो जो वहै सोय ॥८॥ नो मनवांछितकी सिद्धि जान । अरु मित्र बंधुसों प्रीति मान । तत्काल शत्रुको होय नास । सब विघ्न मिट अनयास तास ॥ ६ ॥ घरमें प्रगटै मंगलविभूति। तब पुण्यप्रभाव प्रबल अकृत । यह उत्तम प्रश्न सुनो पुमान । यों कहत केवली गुननिधान ॥ १०॥
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* अरहंतपासाकेवली *
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अत । जहं दुइ अकार पर है तकार । तहं शुभ फल जानो हे उदार । बहु मित्र मिलें भू वस्त्र ताहि । अरु पुत्र पौत्र ह्र सदनमाहिं ॥११॥ रोगीको रोग विनाश होय क्रूरग्रहको निगृह भि होय । जो मित्र बंधु परदेश होय, घर आवै अति मन मुदित सोय ॥ १२ ॥ कुलवृद्धि तथा सज्जन महान । तिनसों नित प्रीति बढ़ सयान | दिन दिन अति लाभ मिले पुनीत । यह प्रश्न केवली कहत प्रोति ॥ १३ ॥
अरा । दुइ अकारके मध्य रकार । पांसा पर तासु सुविचार | उत्तम फलकारी यह होत । नित नव मंगल होत उदोत ॥ १४ ॥ पूरब जो धन गयो नसाय । सो सब तोहि मिलेगो आय । राजा करहिं बहुत सनमान । बसन भूमि हय देवहि दान ||१५|| भ्राता मित्र समागम होहि । सब विधि सदनमहोच्छव तोहि । सकल पापको होय विनाश | धर्मवृद्धि नित करै प्रकाश ॥ १६ ॥
अरर । जो अरर प्रगटै वरन । तो सकल मंगल करन । धन लाभ सूचत येह । दशदिश विमल जस तेह ॥ १७ ॥ जहं जाय वह मतिवंत । तह लहै पूजा संत । हैं इष्टबंधुमिलाप । उद्यमविषै श्री आप ॥ १८ ॥ जल चोर पावक मरी। ये सकहिं नहिं कछु करी । सब शत्रु 'कीजे हान । प्रगटे सकल कल्यान ॥ १६ ॥ जिनधरमके परभाव । यह जान है सद्भाव । उत्तम कहत फल अंक । उत्तम हो निःशंक ॥ २० ॥
अरहं । अरहं परे जो वरन । सौभाग्यसंपतिकरन । तो जो मनोरथ हो । अनयास पूजै सोय ॥२१॥ कछु क्लेश है घरमा हिं
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* श्रीजिनवाणी संग्रह -
तसुरंच ही भय नाहिं । निज इष्ट पूजह जाय। सब विघन जांय नसाय ॥ २२ ॥ मन सोच तजि थिर होहि । आनन्द मङ्गल तोहि । सब सिद्धि है है काज । अरहं कहत महाराज ॥ २३॥
अरत । जब अरत पांसा ढरै । तब सकल सुख विस्तरै । तोहि तिया प्रापति होय । सुत होय पौत्रपि होय ॥२४॥ कुलगोत सब सोभंत । तब भाल तिलक लसंत । जहँ जाहुगे तुम मीत । तह लहहु पूजा नीत ॥२५॥ जनमध्य हो तुम केम। ताराविर्षे शशि जेम । यह रुचिर प्रश्न सुजान । मनमें धरो प्रभुभ्यान ॥२६॥
अहं । जो अहंअ छवि देय । तो सुनहु पूछक भेय । पहिले कछुक दुख होइ । फिर नाश हूँ है सोय॥२७॥धनलाभ दिन दिन बढ़ । अरु सुजनसंगम चढ़े। जो काम चिंतहु वृद्ध । सो सकल है है सिद्ध ॥ २८॥
अहंर । जब अहंर सु दरसाय। तब अरथलाभ कराय । जसलाभ पृथिवीलाम । यह देख परत सुसाम (१) ॥२६॥ राजादि वंधवर्ग। सब करहिं आदर सर्ग। भ्रातादि इष्टमिलाप। धनधान्य आगम ब्याप ॥३०॥ व्यवहार अरु परदेस । सब ओर उत्तम तेस । सब सोच संशय हरहु । शुभ तुमहि धीरज धरहु ॥३१॥
- अहंह जो अहंहं है अंक । सो कहत है फल बंक । दोखे नकारज सिद्ध । यह काज तोर सुबुद्ध॥३२॥धन नाश है हैं तोहि । तन क्लेस पीड़ा होहि । व्यापारमें धनहान । परदेश सिद्धि न जान ॥३॥ तिहिहत कर भविजीव । जिन जजन भजन सदीव । जप दान होम समाज । तब होइ कछु इक काज ॥२४॥
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* अरहंतपासाकेवली.
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अहंत । अक्षर अहंत परै । तय सकल शुभ विस्तर । कल्याणमंगल धाम । सुत भ्रात मिलहि मुदाम॥३५॥ उद्यमविषै धनधान्य । संपतिसमागम मान्य । रनके विर्षे सब जीत । तोहि लाभ निश्चय मीत ॥ ३६ ॥ अरु होय बंदीमोच्छ। निरबाध है यह पच्छ । तुव हे मनोरथ सिद्ध । मति मान संशय वृद्र ॥ ३७॥
प्रतत्रा यह अतअ भाषत वरन । कल्याणमंगलकरन । उद्यममें श्रीविस्तरन। सब विघ्नग्रहभयहरन ॥ ३८ ॥ सुतपौत्रलाम निहार। वांछित मिलै मनिहार । दिन आठये कछु तोहि । कछ श्रेष्ठ मावो होई ॥३॥
अतर । जो अतर अक्षर ढरै। तो सकल मंगल करें । वाजिब सदन सुनाय। घरमाहिं अनंद बधाय ॥ ४० ॥ प्रियबंधुचिंता होहि । तसु मोद मंगल होहि । धनधान्यसंजुत होय । घर शीघ्र आवै सोय ॥४१॥ गजवाजि रथारूढ़ । भूपन वसनजुत प्रूढ़ । संजुन अमित कल्यान । निरभै मिले भयभान ॥४२॥
अहंत । अतह ढरै जो अंक । सो अशुभ कहत निशंक । नहि लाभ दीखत भाय। धन हाथहूको जाय ॥ ४३ ॥ है इष्टबंधुवियोग। तियतनयसंपतियोग। राजादि चोररु मरो। हैं शत्रु सबही घरो॥४३॥ तिहि विघननाशन हेन । कर देवजजन सुचेत। तिहि पुण्यके परभाव । घर होइ मंगलचाव ॥४५॥
अतत । जई अतत आवै वरन । धनलाभ तहबुधि वरन । संपदा सुखविस्तरन । सब सिद्धि वांछित करन ॥ ४६ ॥ प्रिय इष्ट बंधू मिलन । सब लाभ दिन प्रति दिनन । उद्यम तथा रनथान
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२१४
#* जिनवाणी संग्रह *
तुव धुव विजय बुधिवान ॥ ४७ ॥ वादानुवादमंकार । तुव जीत होय उदार । यामें न संशय करहु । शुभ जानि घोरज घरहु ॥४८॥ अथ रकारादि द्वितीय प्रकरण ।
राय । आदिरकार अकार दुइ, जब ये प्रगटें वर्न । तब धनसंपतिलाभ बहु, सुजनसमागम कर्न ॥ ४६ ॥ सोना रूपा ताम्र बहु, वसनाभरन सुरन । प्राप्त होय निश्चय सकल, चिंतित वित जुतजन ॥ ५० ॥ अन्तरैन दीखे सुपन, माला सुमन सुज्ञान । हयगजरथ आरूढ़ अरु, देवागमन विमान ॥ ५१ ॥
रार | आदि रकार अकार पुनि, तापर परै रकार । सुनि पूछ तैं तासु फल, है अभिमतदातार || ५२ || देश प्रजाको लाभ है, खेती वर व्यापार | धन पावै परदेशमें, घर में सब सुखसार ॥५३॥ संगर संकट घोर में, कुलदेवी सुखदाय । करे सहाय प्रसाद तसु, सब विधि सिद्धि लहाय ॥ ५४ ॥
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राहं | आदि रकार अकार पर, हं प्रगटे जब आय । भयकारी धनहानि यह, कृश अशेष कराय ॥५५॥ यह कारज कर्तव्य
नहि लाभ नाहिं या माहिं । बांधव मित्र वियोगता, अस यह सगुन
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कहाहिं ॥ ५६ ॥ जह' कहुं जाहु विदेश नहीं सिद्ध न होवे काज । नातें थिर है कछुक दिन, सुमिरहु श्रोजिनराज ॥ ५७ ॥
रयत । अत पर पाँसा कहे, मग धन लूटहि चोर | द्रव्यहानि हो वहि बहुत, अशुभ फलहि चहुं ओर ॥ ५८ ॥ नाव बु पावक लगे, रोगरु कष्ट कुजोग । कियो काज विनशे सकल, अशुध 'करमके भोग ॥५६॥ तातें शोक न कीजिये, भावीगति बलवान । थिर है निशदिन सुमिरिये, कृपासिंधुभगवान ॥ ६० ॥
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* अरहंतपासाकेवली *
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ररअ । ररअ अंक आवै जहां तब ऐसो फल जान । तव चित चंचल वाल अति, सुनि प्रेच्छक मतिमान ॥ ६॥ तैं चाहत अर्थागमन,मूलनाश तसु होइ । राजदण्ड चौराग्निभय,तनदुख तोहि बहोइ ॥६२॥ तनय तिया बांधवनिप्लों है है नोहि वियोग। अपने तिसरे वरसमह, कहि सकलदुखभोग ॥ ६३ ॥
ररर । तिहुं रकारको फल सुनो, मनवांछित फलदाय । धरा धान्य धनलाभ तोहि,मिलहि वस्तु सब आय॥६॥तिया तनय सुन वधू धन, इष्टबंधुसंजोग। कृत उत्तम कल्याण तोहि, मिलें सकल संभोग ॥६५॥ महालाभ उद्यमविषे, सदन तथा परदेश । सुफल काज तुब होय नित, यामें भ्रम नहि लेश ॥६६॥
ररह। दुइ रकारपर ह परै, नब मनवांछित होय । शोभनीक सुखसंपदा,सहज मिलावै सोया ६७॥मंगल दुदुभि होई धुनि, अरथलाभ बहु तोहि । मिलि है वसुधा देश पुर, यह प्रतिभासत मोहि ॥६८॥ जोन काज तुम चिन धरउ, तुरित होइ है तोन भू. पति अति आनन्द कर, तिन प्रति मंगलभौन ॥६॥
ररत । ररत वरन यह कहत हैं, सुन पूछक चित लाय । परतियको अभिलाषते; किये अनर्थ उपाय ॥ ७० ॥ अरथनाश ताते भयो, अरु विह घामाहिं । राजदंड नैंने सहे, यामें संशय नाहिं ॥ ७९ ॥ तातें परतिय परिहरहु, शुभमारग पग देहु । ब्रह्मचरजजुन प्रभु भजो, नरभवको फल लेहु ॥ ७२ ॥
रहे । ग्हंअकार आवे जहां, नहं उत्तम फल जान । वनितापुत्रधनागमन, बंधुसमागम मान ॥७३॥ अरथलाभ जसलाभ
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* जिनवाणी संग्रह *
पुनि, धामलाभ ह नोहि । रन विदेश व्यापारमें, विजय तुरंतहि होहि ॥ ७४ ॥
रहर । रहर आवै जबहि तब, विषम काज जिय जान । उद्यम सुफल न होय कछु, घर बाहर हैर न ॥७॥ शत्रु बहुत सुख कतहुँ नहि, तार्ने तजि यह काज । जग सुख निष्फल जानि जिय, भजो सदा जिनराज ॥ ७६ ॥
रहह । हजुग आदिरकार कह, सुनिये पूछनहार। अशुभ उदय फल अशुभ है,जानहु निज उर धार॥७७॥ मत विश्वास करो हिये, मित्र बंधु जिय जानि । शत्रु होय ये परिनवहिं कहिं वित्तकी हानि ॥ ७॥ धनविन्ता नित करत हो, सो सुपनेहु नहिं होइ । धरम चिन्ति कुल देव जजि, तातै कछु सुख जोइ ॥ ७ ॥
रहंत । रहं तासुपर प्रगट त सुनि फल पूछनहार । याको फल मैं कहा कहों: सब सुखको दातार ॥ ८० ॥ विद्या लाभ कवि तता: सुफल लाभ व्यवहार। वनिता सुतको लाभ है, द्रव्यलाम व्यापार ॥ ८१ ॥ मित्रबंधु वसनाभरण, सहित समागम होई । चहहु सुखित परिवार सों, कुलदेवीकृत जोइ ॥८२॥
रतमारत अ वरन पांसा कहत, तुव सम्मुख सौभाग। अस्थागम कल्याणकर, असन सुखद अनुराग ॥ ८३ ॥ मंत्रजंत्र
औषधविय, सकल सिद्ध ध्रुव होइ । चित विन्तित पुत्रादि सुख, निश्चय पैहैं सोइ ॥ ८४ ॥
रतर। रतर वरन पासा कहत, सुनि पूछक गहि मौन । उद्यममें लक्ष्मी वसै, ज्यों पंखे में पौन॥८५॥ तात उद्यम करहु तुम,
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* अरहंतपासाकेवलो *
अरथलाभ तह हो । तनय धरनि धरनो मिले, नृप सनमाने सोय ॥ ८६ ॥ वसन मिले घोड़ा मिले, अनायास हो काज । शुभमंगल तोहि सर्वदा, सेयें श्रीजिनराज ॥ ८७ ॥
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रतहं । रतहं कहत प्रचारिके, सुनि पूछक दे कान । पहिले कष्ट बहुत सहे, सो अब गये सुजान ॥ ८८॥धनकी चिंता रहत चित, सो सब पूरन होहि । वनिता सुत बसनाभरन निश्चल मिलिहै तोहि ॥ ८६ ॥ आधिव्याधि दुख नहिं सब, चिंता करहु न कोय । देवधर्म परसादसों, काज सफल सब होय ॥ ६०॥
रतत । रतत वरन सुनि पूछक, सकल सुफल तुव काम । मनवांछित धनसंपदा, पै हौ अति अभिराम ॥ ६१ ॥ जो कारज चितवत रहौ, अनायास सो होय । मनमें मति संशय करो, धर्मबृद्धि फल जोय || २ || शिवहित चाहत तप धरन, तामह' हैं है सिद्धि । हो जिनेश्वर कथित तप ज्यों होवें सुखवृद्ध ॥ ६३ ॥ अथ हंकारादि तृतीय प्रकरण ।
हं अ । हं अअ वर्न परे जहँ आई । तासु सुनो फल है दुचिताई । सुचत कष्टरु चित्त विनाशं । लोकविषै निरआदरभासं ॥ ६४ ॥ संगरमे नहिं जीन दिखावै । उद्यममें नहिं लाभ लहावे । जाहु जहां कछु कारज हेनी । सिद्ध न होय तहां तुम सेती ॥ ६५ ॥ त्याग करो यह कारज यातें । सेवहु श्र जिनधर्मसुधा तैं । धर्म बिना सुखको
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नहिं लेखा । श्रीभगवान कहें जिन देखा ॥ ६६ ॥ रोग निवार अरोग शरीरं । पुष्ट महा वलपौरूष धीरं । चाहत हो परदेश सिधारो । होय मिलाप तहां शुभ सारो ॥६७॥
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* जिनवाणी संग्रह *
हंपर । हंअर भाषत है सुख सारा । होय मनोरथ लिद्ध तुमारा। अर्थ तिया मुदमंगलताई। आनंदसंजुन बांधत्र भाई। ॥१८॥ उद्यममें धन प्रापति जानो। देशविदेश जहां मनमानो। रोगोको रुज जाय नलाई। बांधवमित्र मिलें सब आई ॥६६ | देव अराधह भाव लगाई । सो मनवांछित सिद्ध कराई । ज्यों विनम्न पादपै जानो । त्यों विनधर्म न आनंद पानो ॥१०॥
हंअहं । हं अरुहंमधि जत्र अकारं। तो सुनि पूछनहार विवारं । कोमल वित्त तुमार दिखाई । शत्रु सुमित्र गिनो समताई ॥ १०१॥ नासहित धन आप गंवायो। कालसुभाव नहीं लख पायो। है कलिकालकराल पियारे । तें अति साधु सुभाव सुधारे ॥१०२॥ जो कछु पूर्व भयौ धन हान । सो सब तोहि मिले सुखदान है तुमको नित प्रापति आगे। निश्चय जान अर्थ अनुरागे ॥१०॥
हं अत। हं अत आय जनावत ताते। मंगल मंजु समाजसुबातें। पुत्र सुमित्र समागम होई । देशाराधन लाभ बहोई ॥१०॥ धाको चिन्ता करत हो, शीघ्रहि पैहो सोय। द्रा पुत्र वनिता वलन, सकल प्रापता होय ॥ १० ॥ क्ल शव्याधि अब मिट गई, देव धरम परसाद । सुफल काज नित जानि जिय, भजहु जिनेसुरपाद ॥ १०६ ॥
हरम। हरअ आय दिखावत ऐलो। वितित काज सरै तुव तैलो ॥धान्यधनादिक लाभ दिखाई । कोरत देश दिर्शनर जाई । ॥ १० ॥ भूर कर सन्मान तुम्हारा । देश धराधा देइ उदारा ॥ प्रीति कर तुमसों सब कोई । यामह संशय रंच न होई ॥ १०८ ॥
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* अग्हंतपासाकेबली *
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हंरर । हरर अक्षर भाषत सांचा। तो मनमें उद्वेग उमाचा । वित्त कछू अब छोजइ भाई। पीछे होय सुखी अधिकाई ॥१०॥ संपत संतत मित्र पियारे । होहि सदा तोहि मंगलकारे ॥ अर्थ बढ़ घरमें सुखदाई। कीरति देशदिशंतर जाई ॥११०॥ श्रीजिन धर्मप्रभाव विचारो। है सब कारज सिद्ध तुमारो॥ यामें संशय रच न मानो। सेवहु श्रीजिनराज सयानो ॥ १११ ॥
हरहं । मध्यरकार जहां छवि देई । हं जुग आदिरु अन्त परेई ॥ उत्तम लाभ लसै फल ताको । पुत्र विवाह भविष्यति जाको ॥ ११२ ॥ नारि मिलै घर संपत आवै । बैर मिट हित प्राति जना. वै॥ संगर बाद विवादमझारी। होय विजय तुव आनंदकारी ॥ ११३ ॥ दोखत है शुभभाग तिहारो । यामें संशय रश्चन धारो॥ श्री जिनचन्दपदाम्बुज ध्यावो । ताकरि पूरण पुन्य कमावो ॥११४॥
हरत । हरत वन वखानत ऐसे । कारज सिद्ध लसै सब जैसे । उद्यममें लछमी चिरलाभं जुद्धरुजूत विजै तुम साजं ॥११५॥ लाभ लसैं सब ठौर तुमारे । हानि हमें नहिं दीखत प्यारे । किंचित सोच बसै मनमाहीं। तातु हमें कछु संशय नाहीं ॥११६॥॥ शोघ्र मिटे वह शोच तुमारा। घर मङ्गल मंजुल सारा। श्रोजिनधर्म अराधहु जाई । संजम दान करो सुखदाई ॥११७॥
हेहंभ । हं जुग अन्त अकार उचारौ । कारज सिद्ध समस्त तुमारो॥ धामविर्षे धन है अधिकाई। पुत्र सुपौत्र बढ़े सुखदाई ॥१६८॥ बांधवमित्रसमागम सूचै । जो परदेश विर्षे अविष (१)। संवत एकमंझार पियारे। है लछिलाभ तुमें अधिकारे ॥११॥ इष्ट
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* जिनवाणी संग्रह #
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पदांबुज सेवहु जाई । सर्वे मनोरथ सिद्ध कराई ॥ मङ्गल प्रश्न हिये रखि लीजे | श्रीजिनवेन सुधारस पीजै ॥ १२० ॥
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हंहंर | ह जुग अन्त रकार पुकारे । मंगल मोद समस्त तुझा रे ॥ पुत्रविवाह अवश्यक होऊ । जज्ञ विधान बने कछु सोऊ ॥ १२१ ॥ तासु प्रसाद सु संपति भूरी । है धन धान्य वस्त्र पर. चूरी ॥ मङ्गलधाम बड़े अधिकाई। जाहु जहां तह लाभ लहाई ॥ १२२ ॥ देव जजौ जपि दान करीजै । संजम होम सबै विधि कीजं ॥ पुन्य किये सुख संपति नाना । बालगुपाल सबै यह जाना ॥ १२३ ॥
हंहं । ह तिहुं आय पर जब पासा । है तह मङ्गलमन्दिर खासा ॥ सर्व मनोरथ सिद्धि प्रकाौ । अर्थ सुलाभ प्रजाजुत भासे ॥ १२४ ॥ भूमि मिले रनमें जय पावें । उद्यममें बहु लच्छि कमावै ॥ बांधव मित्रनसों अति नेह । रोपत है वरधर्म सुगेह ॥ १२५ ॥ आनन्द सर्व भविष्यति तोही । यों प्रतिभासत है सुनि मोही ॥ कारज सिद्धि समस्त तुमारा । सेवहु धर्म लहो भत्र पारा ॥ १२६ ॥
हंहंत । ह' जुग अन्ततकार दिखाई । उत्तम लाभ सबै तसु भाई ॥ चाहत हौ परदेश पधारे । है नहीं निद्धि मनोरथ प्यारे ॥ १२७ ॥ खेतो वानिज में सब ठाई। सर्व फरो मनवांछित भाई || श्रीधनधान्य सुकंचन आदी । जे सुख सपति अर्थ अनादी || १२८|| ते सब तोहि मिलें मनमाने । देव गुरुदति विधाने || यो सुनि चित्त थर होई । श्रीजिनराज भजो भ्रन खोई ॥ १२६ ॥
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* अरहंतपासाकेवलो *
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हंता | इंतअ वरन पर जब पासा । तो सुनि अर्थ प्रतच्छ प्रकासा ॥ तें चितमें परसंपति चाहै । लोभ बढ्यो ताहि देखत का है ॥ १३०॥ तोष किये धन प्रापति होई, वेद पुरान पुकारत योई ॥ लोभ निवारि करो सब चिंतं । भावि जु होय सो होहि मितं ॥ ॥ १३१ ॥ जाय विती जब कछु काला । अर्थ तुलाभ तबै तुव भाला ॥ यामै संशय रंच न आनो । भापत श्रीअरहंत प्रमानो |
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हंतर । हंतर यो दरशावत आई। तो मनमें परवित्त बसाई ॥ चिंतत है सो प्रापति होई । ताकरि संपति आनि मिलोई ॥ १३३ ॥ अर्थ समागम कीर्ति अनिद्या । प्रापति है तोहि सुन्दर विद्या ॥ जो कछु र द्रव्य गंवायौ । सो सब आनि मिले मन भायौ 11 ॥ १३४ ॥ जो तुम कारज चेतहु प्यारे । सो सब होई सिद्धि तुमारे || यों जिय जानि तजो दुचिताई । सेवहु जाई ॥ १३५ ॥
श्रीपरमातम
हं हं । हैं जुगके मधि होइ तकारं । तासु सुनो फल पूछन हारं ॥ तो मनमें विपरीत लसो है । चोरि जूथकी ताप वसी है ॥ ॥ १३६ ॥ ता करिके दुःख पाप सहे हो । लोकविषै अपकीर्ति लहे हो ॥ नास भयो जसरास तुमारो । यों लघु सीख सुनो उर धारो ॥ १३७ ॥ अन्य कछू करतव्य विचारो । तामहं वांछित सिद्ध तुमारो ॥ अर्थ बढ़े धन धर्म बढ़ाई । यों दरसावत श्रीगुरु भाई ॥ १३८ ॥
हंतत । तत भाषेत उत्तम तोही । जो मन वांछडु होवहि सोही || मंगल धाम मिले धन धान्यं । जाडु विदेश तहां बहु
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* जिनवाणी संग्रह
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मान्यं ॥ १३६ ॥ मंत्र सु जंग्रह भेष जताई। सैन्य सुथंभन मोहन भाई ॥ और जिती जगमें बर विद्या । तोहि मिलें भ्रम त्याग निषिद्या ॥ १४० ॥
अथ तकारादि चतुथं प्रकरण ।
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तया । जहं तअअ वरन पासा ढरंत । तहं सुनि पूछक जो फल कहंत ॥ जो करहु देव पूजा पुनोत । तो पैहो अभिमत फल विनीत ॥ १४१ ॥ सुत पोत्र सुखद धन धान्य लाहु । यह मिलें तोहि वांछित उछाहु || व्यापारमाहिं बहु मिले दवं । अरु जून विजय नैं लहै सर्व ॥ १४२ ॥ यामें मति विन्ता मानु मित्त | निज इष्ट देव पद भजहु नित्त ॥ विन पुन्य नहीं सुख जगत माहिं । जिमि वीज विना नहिं तरु लगाहिं ॥ १४३ ॥
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तर । जब तअर प्रगट होवे सुजान । तब मध्यम फल जानो निदान ॥ चित चाहहु वनिता पुरुष आदि। सो आल तजहु सुनि भेदवादि ॥ १४४ ॥ निजभावीवश ये मिलहि सर्व । परिवार कुटुंबादिक सुदर्व ॥ पहिले जो कछु धन भयो हान । सोऊ न मिले अब ही सयान || १४५ ॥ कछु काल व्यतीत भये समस्त । है अथ लाभ तुमको प्रशस्त ॥ यह जान हिये निरधारवीर । भि श्रीपति पद सब टरे पीर ॥ १४६ ॥
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तयहं । तत्ता अकार हंकार आय । हे पूछक तोसों इमि कहायः । दिनरात तोहि धनहेत चाह । मनमें यह वर्तत है कि नाह ॥ १४७ ॥ सो पुन्य बिना कहु केम होय । हैं दिन तेरे अति नष्ट जोय ॥ कछु दिवe feat भये प्रमान । धनलाभ होय तोको निदान ॥१४८॥
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# श्रीसम्मेदशिखरमाहात्म्य *
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तीस कोड़ा कोड़ी सत्तर करोड़ सत्तर लाख बियालीस हजार सात सौ मुनियोंके सहित निर्वाण प्राप्त हुए हैं. इस कूटके दर्शन करनेका फल एक लाख उपवासके फलके तुल्य है । बौथे अविचलकूट से सुमतिनाथ तोर्थंकर एक कोड़ाकोड़ी चौरासी करोड़ बहत्तरलाख इक्यासी हजार सात सौ मुनियोंसहित मोक्ष पधारे हैं । इस कूटके दर्शन करनेका फल एक करोड़ उपवास करने के समान है। पांचवें मोहनकट से पद्मप्रभ तीर्थंकर निन्यानवे कोड़ाकोड़ी सत्तानवे करोड़ सत्तासी लाख बियालोस हजार सातसौ मुनिसहित मोक्ष प्राप्त हुए हैं 1 इस कूट दर्शनका फल एक करोड़ उपवास करनेके तुल्य है। छठे प्रभास कूटसे सुपाश्वनाथ तीर्थंकर चौरासी कोड़ाकोड़ी चौरासी करोड़ बहसर लाख सात हजार सात सौ व्यालोस मुनिसहित मुक्ति गये हैं । इस कूटके दर्शन करने का फल बत्तीस कोड़ाकोड़ो उपवासके बराबर है। सातवें ललितकटसे
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चन्द्रप्रभ तीर्थंकर हजार मुनिसहित मोक्ष प्राप्त हुए हैं । इनके सिवाय वहांसे चौरासी अरब बहत्तर करोड़ अस्सीलाख चोरासी हजार पांच सौ पचपन मुनि और भी मुक्ति गये हैं I इस कूटके दर्शन करनेता फल सोलहलाख उपवासके तुल्य है। आठवें सुप्रभ कुरसे श्रीपुष्पदन्त तीर्थ कर हजार मुनिसहित मुक्ति पधारे हैं तथा निन्यानवें करोड़ नवलाख सात हजार बार सौ अस्सी मुनि और भी वहांसे मुक्ति गये हैं । इस कूटके दर्शन करनेका फल एक करोड़ उपवासके बराबर है। नवमें
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* जिनवाणी संग्रह *
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विद्युतवर कूटसे शीतलनाथ तीर्थ कर एक हजार मुनिसहित मोक्ष गये है औरभी वहांसे अठारह कोडाकड़ी वियालीस करोड़ बत्तीस लाख बियालीस हजार नौसे पांच मुनियोंने मुक्ति पाई है । इस कूटके दर्शनका फल भी एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है। दशवें संकुल कूटसे श्रेयांसनाथ तीर्थ कर एक हजार मुनिसहित मोक्ष गये हैं और तथा छयानवे कोडाकोड़ी छयानवें करोड़ छयानवें लाख नवहजार पांच सौ बियालीस मुनियोने और भी वहांसे मुक्ति पाई है। इसकटके दर्शन करनेका फल भी एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है।
चपापुरसे वासुपूज्य तीर्थंकर हजार मुनिसहित मोक्ष पधारे हैं। सम्मेदशिखरके ग्यारहवे वरिसंवल कृटसे विम. लनाथतीर्थंकर हजार मुनिसहित मोक्ष गये हैं। और छह हजार छहसौ तथा सत्तर कोडाकोड़ो साठ लाख छह हजार सात सौ बियालीस मुनि औरभी मुक्ति गये हैं। इसकूट के दर्शनका फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है। बारहवें स्वयंभू कृटसे अनंतनाथ तोर्थ कर हजार मुनिसहित मोक्ष गये हैं। इनके सिवाय पचहत्तर हजार, सातसौ तथा छयानवे कोडाकोड़ी सत्तर लाख सत्तरहजार सात सौ मुनि और भी मोक्ष गये हैं। इस कूटके दर्शनका फल एक करोड़ उपवास करनेके तुल्य है । तेरह, सुदत्तबर कूटसे धर्मनाथ तीर्थंकर आठसौ एक मुनिसहित मोक्ष प्राप्त हुए हैं। तथा इसी कूटसे उन्नीस कोडाकोड़ी उन्नीस करोड़ नौ लाख नौ हजार सात सौ पंचानवे मुनि और भी मुक्त
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* श्रीसम्मेद शिखरमाहात्म्य *
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हुए हैं, दर्शन करनेका फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है, चौदहवें शान्तिप्रभ कूटसे श्रीशांतिनाथ तीर्थंकर नौ सौ मुनिसहित मुक्तिधामको गये हैं, तथा इसी कृटसे नौ सौ कोड़ाकोड़ी छयानवे करोड़ बत्तीस लाख छयानवें हजार सात सौ बियालीस मुनियोंने और भी पंचमगति पाई है। इसके दर्शन करने का फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है । पन्द्रहवें ज्ञानघर से कुंथुनाथ तीर्थंकर हजार मुनिसहित मोक्ष पधारे हैं। तथा छयानवे कोड़ाकोड़ी छयानवे करोड़ बत्तीसलाख छयानवे हजार सात सौ व्यालीस मुनि और भी मोक्षधामको गये है। दर्शनकरनेका फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है । सोलहवें नाटक कूटसे अरनाथ तीर्थंकर हजार मुनिसहित मोक्ष गये हैं, तथा निन्यानवे करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार मुनियोंने और भी मुक्ति लक्ष्मी प्राप्त की है। इस कूटके दर्शन करनेका फल छ्यानवे करोड़ उपवास करनेके बराबर है। सत्रहवें संवलकटसे श्रीमल्लिनाथ तीर्थंकर पांच सौ मुनियोंके सहित मुक्ति गये हैं । तथा छ्यानवें करोड़ मुनि और भी वहां से परमपदको प्राप्त हुए हैं। एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है, कूटसे मुनिसुव्रतनाथ तीर्थंकर हजार मुनि सहित मुक्त हुए हैं तथा निन्यानवं कोड़ाकोड़ी, सत्तानवे करोड़ नो लाख नौ सौ निन्यावे मुनि और भी वहां से मुक्त धामको गये हैं । इस टोंक के दर्शनका फल एक करोड उपवास करनेके समान है । उन्नीसवें
इसका दर्शन करना अठारहवें निर्जर
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* जिनवाणी संग्रह *
मित्रधर कुटसे नमिनाथ तीर्थंकर हजार मुनिसहित निर्वाण प्राप्त हुए हैं, तथा नौ सौ कोडाफोडी पैंतालिस लाख सात हजार नौ सौ बियालीस मुनि औरभी कर्मोसे छूटे हैं। इस टोंकके दर्शनका फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है ।
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गिरनार पर्वतसे श्रोनेमिनाथ तीर्थंकर पांच सौ छत्तीस मुनि सहित मोक्ष प्राप्त हुए हैं। तथा बहत्तर करोड़ सात सौ मुनि और भी गिरनार पर्वतसे मुक्त हुए हैं I
सम्मेद शिखर बोस सुवर्ण भद्रकूट से श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकर पांच सौ छत्तीस मुनिसहित परमधामको सिधारे हैं। तथा चौरासी लाख मुनि और भी वहांसे मुक्त गये हैं । इस कूटके दर्शन करनेका फल एक करोड़ उपवास करनेके बराबर है । इसके पश्चात् 'श्रीगौतमगणधर बोले, हे राजन् ! ये महावीर भगवान् पावापुरी पद्मसरोवरमेंसे छत्तीस मुनियोंके सहित मोक्ष जायेंगे। तथा शिखरजीकी जिन्होंने पूर्वकालमें यात्रा की है, उन मेंसे थोडेसे नाम मैं कहता हूं । सगर, सागर, मघवा, सनत्कुमार, आनन्द, प्रभसेन, ललितदंत, कुदसेन, सेनादत्त, बरदत्त, सोमप्रभ, चारुसेन, आदि इनके सिवाय और भी हजारों राजाओंने यात्राकी है, परन्तु उनमेंसे दर्शन केवल उन्हींको हुए हैं, जो भव्य थे, अभव्योंको दर्शन नहीं मिलते।
श्रेणिक - हे भगवन्! शिखरजीकी यात्रा करनेका फल जो कुछ आपने कहा, सो तो यथार्थ है परन्तु उससे अधिक तथा सम्पूर्ण फल और क्या है, वह कृपा करके कहो ।
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* श्रीसम्मेदशिखरमाहात्म्य *
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गौतमस्वामी हे राजन् ! शिखरजीकी यात्रा कर. नेवाला फिर संसारमें अधिक नहीं भटकता। उनचास भव लेकर वह जीव पचासवें भव अवश्य ही सिद्धस्थानमें जाकर अजर अमर अखंड सदा जागती जोत होकर अवल रहता है, यह नियम है । इसके सिवाय यात्रा करनेवाला नरक तिथंच गतिमें तथा स्त्रीपर्यायमें भी जन्म नहीं लेता।
श्रेणिक-यदि ऐसा है, तो भगवन् रावणने शिखरजीकी यात्रा की थी, फिर उसे नरकगति क्यों प्राप्त हुई ?
गौतम-रावण शिखरजीकी यात्रा करनेके लिये नहीं किन्तु त्रैलोक्यमंडल हाथीको पकड़नेके लिये मधुवन गया था। इसलिये वह यात्राके फलका भागी न हो सका।
श्रेणिक-भगवन् ! यदि कोई बिना भावसे शिखरजीकी यात्रा करे, तो उसकी नरक तिर्यंच गति छूटे कि नहीं ?
गौतम - राजन् ! जिस प्रकारसे बिना भावसे खाई हुई मिश्री मीठी लगती है, और दवाई रोगको शांत करती है, उसी प्रकारसे बिना भावसे की हुई यात्रा भी ऐसा नहीं है कि, फलवती न हो।
श्रणिक-भगवन् ! आपने कहा कि, भव्यको यात्रा होती है, परन्तु अभव्यको नहीं होती, सो यह बतलाइये कि, खास शिखरजीमें भीलादिक तथा पृथ्वी जल वनस्पति एकेन्द्रियादिक जोव राशि हैं, वे सब भव्य हैं अथवा अभव्य ?
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जिनवाणी संग्रह |
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हर रविकला भव शस्य कों अमृत भरो ॥ २ ॥ वस्त्राभरण विन शांति मुद्रा सकल सुरनर मन हरे । नाशाग्र दृष्टि विकार वर्जित निरखि छवि संकट टरे ॥ तुम चरण पंकज नख प्रभा नभ कोटि सूर्य प्रभा धरे । देवेन्द्र नाग नरेन्द्र नमत सुमुकुटमण द्युति विस्तरे ॥ ३ ॥ अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी तुम असाधारण लसे । तुम जाप पाप कलापनासे ध्यावते शिव थल वसे मैं से कुट्टग कुबोध अव्रत विरभ्रमो भववन सवे ॥ दुख सहे सर्व प्रकार गिर समसुख न सर्पप सम कवे ॥ ४ ॥ पर चाह दाह दहो सदा कबहूं न साम्य सुधा चखो | अनुभव अपूरव स्वादु बिन नित विषय रस चारो भखो || अब बसो मो उर में सदा प्रभु तुम चरण सेवक रहों वर भक्ति अतिदृढ़ होहु मेरे अन्य विभव नहीं यहीं ॥ ५ ॥ एकेन्द्रियादिक अन्तविक तक तथा अन्तर घनी । पाये पर्याय अनन्तवार अपूर्व सोनहिं शिव धनी ॥ ससृत भ्रमण ते थकित लखि निज दासकी लीजिये | सम्यक दरश वर ज्ञान चारित पथ
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विहारी कीजिये ॥ ६ ॥
( ३ ) विनती भूवर कृतः ।
गीता छन्द
पुलकंत नयन चकोर पक्षी हंसत उर इन्दीवरो । दुबुद्धि चकवी विलख बिछुड़ी निवड़ मिथ्या तम हरो || आनंद अम्बुज उमग उछरो अखिल आतम निरदले । जिम बदन पूरण चन्द्र निरखत सकल मन वांछित फले ॥ १ ॥ मुझ आज आतम भयो पावन आज विघ्न नशाइयो । संसार सागर तीर निवटो अखिल
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विनतो।
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तत्व प्रकाशियो ॥ अव भई कमला किंकरी मुझ उभय भव निर्मल ठये। दुख जरो दुर्गति वास निवरो आज नव मंगल भयो ॥ २॥ मनहरण मूरति हेर प्रभुकी कौन उपमा ल्याइये । मम सकल तनके रोम हुलसे हर्ष और न पाइये । कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभुको लख जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्द महिमा कहत क्यों मुखसे वने ॥ ३ ॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको और बांछा ना रहो , मम सब मनोरथ भये पूरण रङ्क मानो निधि लही । अब होहु भवभव भक्ति तुम्हरी कृपा ऐसी कीजिये। कर जोर भूधरदास विनवे यही वर मोहि दोजिये ॥ ४॥ इति ॥
(४) विनती भूधरदास कृत। अहो जगत गुरु देव सुनिये अर्ज हमारी। तुम प्रभु दीन दयालु मैं दुखिया ससारी ॥१॥ इस भव वनके माहि काल अनादि गमायो । भ्रमत चतुति मांहि सुन्व नहिं दुग्ब बहु पायो ॥२॥कर्म महा रिपु जार ये कळकान करेंजी। मन माने दुग्व देह काहसे नाहि डर जा ॥ ३ ॥ कवह इतर निगोद कबहुं कि नर्क दिखावे । सुर नर पशुगति मांहि बहु विधि नाच नचावं ॥४॥ प्रभु इनको परसग भव भव मांहि बुरी जी। जा दुख देख देव तुमसे नाहि दुरो जी ॥५॥एक जन्मका बात कहि न सका सब स्वामी । तुम अनन्त पर्याय जानत अन्तर यामी ॥ ६ ॥ मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेर किया बहुत बेहाल सुनिये साहब मेरे ॥ ७॥ ज्ञान महानिधि लूट रङ्क निवल कर डारी ! इन ही मो तुम मांहि हे प्रभु अन्तर पारो ॥८॥ पाप पुण्य मिल दोय पायन बेरी डारी। तन कारागृह मांहि मूद दियो दुख भारी॥॥ इनको नेक विगार मैं कुछ नाहि करोजी
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जिनवाणी संग्रह। विन कारण जगबन्धु बहुविधि बैर धरो जी ॥१०॥ अव आयो तुम पास सुन कर सुयश तुम्हारो। नीति निपुण महाराज कीजे न्याय हमारो॥ ११ ॥ दुष्टन देहु निकास साधुनको रख लीजे ॥ विनवे भूधरदास हे प्रभु ढोल न कीजे ॥ १२ ॥ (५) विनती नाथूराम जी कृत। दोहा-चौबीसो जिन पद कमल, बन्दन करों त्रिकाल ।
करो भवोदद्धि पार अब, काटो बहु विधि जाल ॥ १ ॥
छन्द ।
ऋषभनाथ ऋषि ईश तुम ऋषि धर्म चलायो। अजित अजित अरि जीत बसु विधि शिवपद पायो । संभव संभ्रम नाशि बहु भवि बोधित कीने। अभिनन्दन भगवान अभिरुचि कर व्रत दीने ॥ ३ ॥ सुमति सुमति वरदान दोजे तुम गुण गाऊ । पद्म-प्रभु पदपद्म उर धर शीश नवाऊ ॥ ४ ॥ नाथ सुपारस पास राखो शरण गहोंजी । चन्द्रप्रभू मुखचन्द्र देखत बोध लहोजी ॥ ५ ॥ पुष्पदन्त महाराज बिकसत दन्त तुम्हारे । शीतलशीतल बैन जग दुःखहरण उचारे । श्रेयान्सनाथ भगवान् श्रेय जगतको कर्ता। बासपूज्य पद वास दीजे त्रिभुवन भर्ता ॥७॥ बिमल बिमल पद पाय बिमल किये बहु प्राणी । श्रीअनन्त जिनराज गुण अनन्त के दानी ॥ ८॥ धर्मनाथ तुम धर्मतारण तरण जिनेश। शान्तिनाथ अघ ताप शान्ति करो परमेश॥ कुंथुनाथ जिनराज कुंथु आदि जिय पाले । अरह प्रभू अरि नाश बहु भव के अध टाले ॥१०॥ मलिनाथ भण मांहि मोह मल्ल क्षय कीमा । मुनिसुव्रत वृतसार मुनि गण
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विनती 1
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को प्रभु दीना ॥ ११ ॥ नमि प्रभुके पद पद्म नवत नशे अघ भारी । नेमि प्रभू तज राज जाय वरी शिव नारी ॥ १२ ॥ पारसवर्ण सरूप कहु भविक्षण में कीने। वीर वीर विधि नाश ज्ञानादिक गुण लीने ॥ १३ ॥ चार बीस जिनदेव गुण अनन्त के धारी । करों विविध पद सेव मैटो व्यथा हमारी ॥ १४ ॥ तुम सम जगमें कौन ताका शरण गहीजे । यासे मांगो नाथ निज पद सेवा दीजे ||१५|| दोहा - नाथूराम जिन भक्त का, दूर करो भव वास ।
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जब तक शिव अवसर नहीं, करो वरण का दास ॥ (६) विनती भूदरदास कृत ।
वे गुरु मेरे उर बसो तारण तरण जहाज । वे गुरु मेरे उरवसो || आप तरें पर तार ही ऐसे ऋषिराज । वे गुरु मेरे उर बसो ॥ टेक ॥।
मोह महारिपु जी के, छोड़ो है घरवार । भये दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार ॥ १ ॥ रोग मदन तन ध्यावही, भोग भुजङ्ग समान । कदली तर संसार है, इम छोड़े सब जान ॥ २ ॥ रत्नत्रय निज उर धरें, वर निरग्रन्थ त्रिकाल | मारो काम खबीस को, स्वामी परम दयाल || ३ || धर्म धरें दशलक्षणी भावन भाव सार । सहें परीषह बीस दो, चारित्र रत्न भण्डार || ४ || ग्रीषम ऋतु रवि तेज से सूखे सरवर नीर | शेल शिखर मुनि तप तर्पे, लाड़ अचल शरीर || ५ || पावस रैनि भयावनी बरसे जलधर धार। तरु तल निवसें साहसी चाले का बयार || ६ || शीत पड़े रवि मद् गले दहे दाहे सब बनराय । ताल तरङ्गिणी तट विषे. ठाड़े ध्यान लगाय ॥ ७ ॥ इस विधि दुर्द्धर तप तर्फे, तीनो काल मंकार । लागे सहज स्वरूप में, तन से ममता टार ॥ ८ ॥
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जिनवाणी संग्रह। रङ्ग महल में सोवते, कोमल सेज बिछाय । सो अब पश्चिम रेनि में पोढे सम्बर काय ॥ ८ ॥ गज चढ़ चलते गर्व से सेना सज चतुरङ्ग। निरख निरख भूपद धरे । पाले करुणा अङ्ग ॥ १० ॥ पूर्व भोग न चिन्तवें, आगे वांछा नाहि । चहुं गति के दुख से डरे सुरति लगी शिव मांहि ॥ ११ ॥ ते गुरु चरण जहां धरे तह, तह तीरथ होय । सो रज मम मस्तक चढ़ी भूधर मांगे सोय ॥१२॥
(७) धारे भाका दोहा-श्रीजिनवर चौबीसवर कुनयनांत हर भान ।
अमित बीय्य द्वग बोध सख युत तिष्ठो इह थान । १ । । परि पुष्पांजलि क्षिपेत ) इति स्थापनम् ।
त्रिभङ्गी छन्द गिरीश शीश पाण्ड, पै सतीश ईश थापियो । महोत्सवो आनन्द कन्द को सबै तहां किया ॥ हमें सो शक्ति नाहिं व्यक्तदेखि हेतु आपना। यहां करें जिनेन्द्र चन्द्रकी मु विम्ब थापना। २ ।
सुन्दरी छन्द । कनक मणिमय कुम्भ सहावने। हरि सुक्षीर भरं अति पावने ॥ हम सुवासित नीर यहां भरे। जगन् पावन पांव तर धरे ॥२॥ ॥ इति कलश स्थापना ॥
गीताका छन्द । __ शुद्धोपयोग समान भ्रन हर परम सौरभ पावनो । आकृष्ट भ्रङ्ग समूह गङ्ग समुद्भवो अति पावनो ॥ मणि कनक कुम्भ निशुम्भ किल्विष विमल शीतल भरि धरा। श्रम स्वेद मल निरवार जिनत्रय धार दे पायन परों ॥ ४॥ ॥ इति जल धारा ।।
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धार भाषा।
२४९ अति मधुर जिन ध्वनि सम सुप्रीणित प्राणि वर्ग खभावसों। बुध चित्त समहर पित्त नित्त सुमिष्ट इष्ट उछाव सों। तत्काल इक्षु समुत्थ प्राशुक रत्न कुम्भ विणे भरों॥ यम पास तात निवार जिन त्रय धार दे पायन परों ॥५॥ इति इक्षु रस धारा ॥
निष्टत क्षिप्त सुवर्ण मद दमनोय ज्यों विधि जैनकी। आयु प्रदा बल बुद्धिदा रक्षा सु यों जिय सैनकी ॥ तत्काल मंथित क्षीर उत्थित प्राज्य मणि झारी भरों। दीजे अतुल बल मोहि जिन त्रय धार दे पायन परों ॥ इति घृत धारा ॥
शरदान शुभ्र सुहाटक द्युति सुरशि पावन सोहनो। क्लै व्यक्त हर बल धरन पूरन पय सकल मन मोहनी ॥ कद उष्ण गोधन तें समाहृत घट जटित मणि में भरों। दुर्बल दशा मो मेट जिन त्रय धार दे पायन परों ।। ७ ।। इति दुग्ध धारा ॥
वर विशद जैनाचार्य ज्यों मधुराम्ल कर्कशिता धरै । शुचि कर रसिक मथन विमथित नेह दोनों अनुसरै ॥ गो दधि सुमणि भृङ्गार दूरन ल्याय करि आगे धरों। दुख दोष कोष निवार जिन त्रय धार दे पायन परों ॥ ८॥ इति दधि धारा ॥ दोहो-सा पधी मिलाय के, भरि कञ्चन भृङ्गार । यजो चरण त्रय धार दे, तारि तार भवतार ॥ ६ ॥
॥ इति सवौं पधी धारा॥
(८) प्रातःकालकी स्तुति । चोतराग सर्वज्ञ हितंकर भविजन की अब पूरो आस ॥
ज्ञानभानुका उदय करो मम मिथ्यातमका हो अव नाश ॥१॥ जीवोंकी हम करुणा पाले झूठ वचन नहीं कहै कदा ॥
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जिनवाणी संग्रह।
परधन कबहुन हरहूं स्वामो ब्रह्मवर्य ब्रत रहे सदा ॥२॥ तृष्णा लोभ बढ़ न हमारा तोष सुधा निधि पिया करें ॥
श्री जिन धर्म हमारा प्यारा तिसकी सेवा किया करें ॥३॥ दूर भगावे बुरी रीतियां सुखद रीतिका करें प्रचार ॥
मेल मिलाप बढावे हमसब धर्मोन्नतिका करे प्रगर ॥ ४ ॥ सुखदुखमें हम समता धारै रहें अवल जिमि सदा अटल ।।
न्याय मार्गको लेश न त्यागे वृद्धि करें निज आतमबल ॥५॥ अष्टकर्म जो दुःख हेतु हैं तिनके छयका करें उपाय ।।
नाम आपका जपें निरंतर विघ्नशोक सब ही टल जाय ॥६॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मैल नहीं चढ़े कदा ॥
विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञान हूं बड़े सदा ॥ ७ ॥ हाथ जोड कर शीप नवावे तुमको भविजन खड़े खड़े ॥ यह सब पूरो आस हमारी चरण शरण में आन पड़े ॥ ८ ॥
(8) सायंकालकी स्तुति हे सर्वश ! ज्योतिमय गुणमणि बालक जनपर करहु दया
कुमति निशा अधयारीकारी सत्य ज्ञान रवि छिपा दिया ॥१॥ क्रोध मान अरु माया तृष्णा यह बटमार फिरे चहुं ओर ।।
लूट रहे जग जीवनको यह देख अविद्या नमका जोर ॥ २ ॥ मारग हमको सूझे नांही ज्ञान बिना सब अन्ध भये ।
घटमें आप विराजो स्वामी बालक जन सब खड़े नये ॥३॥ सतपथ दर्शक जनमन हर्षक घट घट अंतरयामा हो ।
श्री जिनधर्म हमारा प्यारा तिसके तुम ही स्वामी हो ॥४॥
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प्रातःकालकी स्तुति। घोर विपतमें आन पड़ा हूं मेरा बेरा पार करो॥ ____ शिक्षाका हो घर घर आदर शिल्पकला संचार करो ॥५॥ मेलमिलाप बढ़ावें हम सब द्वेष भावी घटा घटी॥
नहीं सतावे किसी जीवको प्रती क्षीरकी गटागटी ॥ ६ ॥ मातपिता अरु गुरुजनकी हम सेवा निशदिन किया करें।
स्वारथ तजकर सुखदे परको आशिश सबकी लिया करें ॥७॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मेल नहिं चढ़े कदा ।।
विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञान हूं बढ़ सदा ॥८॥ दोऊ कर जोरे बालक ठाड़े करें प्रार्थना सुनिये दास ।।
सुखसे बीते रैन हमारी जिनमतका हो शीघ्र प्रकाश ॥ ८ ॥ मातपिताकी आज्ञा पालै गुरुकी भक्ति धरै उरमें ॥ रहें सदा हम करतब तत्पर उन्नति कर निज २ पुरमें ॥१०॥
(१०) सङ्कटहरण विनती हो दीनबन्धु श्रीपति करुणा निधानजी। अब मेरी व्यथा क्यों ना हरो वार क्या लगी ॥ टेक ॥ मालिक हो दो जहानके जिनराज आप ही। ऐबो हुनर हमारा कुछ तुम से छिपा नहीं। बेजान में गुनाह जो मुझ से बन गया सही। ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ॥ हो दीन० १॥ दुख हर्द दिलका आप से जिस ने कहा सही। मुशकल कहर बहर से लई है भुजा गही ॥ सब वेद
और पुराणमें परमाण है यही। आनन्द कन्द श्रीजिनन्द देव है तुही ॥ हो दीन० २ ॥ हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सतो। गंगामें गिराहने गही गज राज की गती। उस वक्तमें पुकार किया था तुम्हें सती। भयटारके उभार लिया हो कृपा पती॥ हो
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जिनवाणी संग्रह |
दीन०३ || पावक प्रचण्ड कुण्डमें उमण्ड जब रहा। सीतासे सत्य लेनेको जब रामने कहा || तुम ध्यान धरके जानकी पग धारती तहां । तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा || हो० || जब चीर द्रौपदीका दुशासनने था गहा सबरे सभा के लोग कहते थे हा हा हा | उस वक्त भीर पीरमें तुमने किया सहा । पड़दा ढका सती का सुयश जगत में रहा || हो० ॥ सम्यक्त शुद्ध शीलवन्ति चन्दनासती । जिस के नजीक लगती थी जाहर रती रती । बेड़ी में पड़ी थी तुमें जब ध्यावती हुती || तब बीरधीर ने हरी दुःख द्वन्द् की गती || हो ० ६ ॥ श्रीपालको सागर विखें जब सेठ गिराया । उसकी रमा रमने को आया था बेहया । उस वक्त के संकट सती तुमको जो ध्याया । दुःख द्वन्दफन्द मेटके आनन्द बढ़ाया || हो० । हरपेण की माता को जब शोक सताया। रथ जैनका तेरा
चले पीछे से बताया | उस वक्त के अनशन में सती तुमको जो ध्याया । चक्र ेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया। हो० ८ ॥ जब अजना सतीको हुआ गर्भ उजाला । तब सासु ने कल क लगा घर से निकाला || बन वर्ग के उपसर्ग में सती तुमको चितारा । प्रभु भक्तियुत जानके भय देव निवारा || हो० ॥ सोमा से कहो जो तू सतो शील विशाला | तो कुम्भमें से काढ़ भला नाग हो काला | उस वक्त तुम्हें ध्यायके सती हाथ जो डाला । तत्काल ही वो नाग हुआ फलको माला || हो० १० ॥ जब राज-रोग था हुवा श्रीपाल राजको। मैना सती तप आपकी पूजा इलाज को || तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को । वह राज भोगर गया मुक्तिराजको ॥ हो० ११ ॥ जब सेठ सुदर्शन को मृपा दाप
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संकट हरण बिनती।
२५३ लगाया। रानीके कहे भूपने शूली पे चढ़ाया । उस वक्त तुम्हें सेठ ने निज ध्यान में ध्याया। शूलो से उतार उसको सिंहासन पै बिठाया । हो० १२ ॥ जब सेठ सुन्नाजी को बापी में गिराया । ऊपर से दुष्ट था उसे वह मारने आया । उस वक्त तुम्हें सेठने दिल अपने में ध्याया। तत्काल ही जंजाल से तब उसको बचाया ॥ हो. १२ ॥ एक सेठके घरमें किया दारिद्र ने डेरा। भोजन का ठिकाना भी था नहीं सांझ सवेरा । उस वक्त तुम्हें सेठ ने जब ध्यान में घेरा । घर उसके तबकर दिया लक्ष्मी का ब्रसेरा ।। हो. १४ ।। बलि बादमें मुनिराज सों जब पार न पाया। तब रातको तलवार ले शट मारने आया। मुनिराज ने निज ध्यानमें मन लीन लगाया। उस वक्त हो परतक्ष तहां देव बचाया ।। हो० १५ ॥ जब रामने हनुमन्त को गढ़लङ्क पठाया। सीता की खबर लेनेको विफौर सिधाया ॥ मग बीच दो मुनिराज की लख आगमें काया। झटवार मूसलधारसे उपसर्ग बुझाया ॥ हो० २६ ॥ जिननाथ ही को माथ नवाता था उदारा । घेरेमें पढ़ा था बह कुम्भकरण विचारा ॥ उस वक्त तुम्हें प्रेमसे संकटमें उचारा। रघुबीरने सब पीर तहां तुरत निवारा ॥हो० १७ ॥ रणपाल कुवर के पड़ी थी पांबमें बेरी। उस वक्त तुम्हें ध्यानमें धाया था सवेरी। तत्काल हो सुकुमार की सव झड़ पड़ी येरी । तुम राजकुवरको सभी दुख द्वन्द निवेरी ॥ हो० १८ ॥ जय सेठके नन्दन को डसा नाग जु कारा । उस वक्त तुम्हें पीरमें धरधीर पुकारा ॥ तत्काल ही उस बालका विषभूरि उतारा । वह जाग उठा सोके.मानो सेज सकारा ॥ हो० १८ ॥ मुनि मानतुङ्गको दई जब भूपने पीरा । तालेमें किया
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जिनवाणी संग्रह।
बन्द भरी लोहे जंजीरा । मुनीशने आदोशको थुत की है गम्भीरा । चक्रश्वरी तब आनके झट दूर की पोरा ॥ हो०२० ॥ शिव कोटने हठता किया समन्तभद्र सो। शिवपिण्डकी बन्दन करो संको अभद्र सो॥ इस वक्त स्वयम्भू रवा गुरु भाव भद्र सो। जिन चन्द्रकी प्रतिमा तहां प्रगटो सुभद्र सो॥हो० २१ ॥ सूवेने तुम्हें आनके फल आम चढ़ाया। मैंडक ले चला फूल भरा भक्त का भाया ।। तुम दोनोंको अभिराम स्वर्गधाम बसाया। हम आपसे दातारको लख आज ही पाया ॥ २२ ॥ कपि स्वान सिंह नवला अज बैल विचारे। तिर्यंच जिन्हें रच न था बोध चितारे इत्यादिको सुरधाम दे शिवधाममें धारे । हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे ॥ हो० २३ ॥ तुमहीं अनन्त जन्तु कार भय भीड़ निवारा । वेदो पुराणमें गुरु गणधरने उचारा । हम आपकी शरणागतिमें आके पुकारा । तुम हो प्रत्यक्ष कल्प वृक्ष इक्षु अहारा हो. २४ ॥ प्रभु भक्त व्यक्त जक्त भुक्त मुक्तके दानी । आनन्द कन्द वृन्दको हो मुक्तिके दानी। मोहि दान जान दीनबन्धु पातक भानी संसार विषय तार तार अन्तर यामी हो० २५॥ करुणा निधान वानको अब क्यों न निहारो। दानी अनन्त दानके दाता हो संभारो वृष चन्द नन्द बृन्दका उपसर्ग निवारो। संसार विषमक्षारसे प्रभु पार उतारो ॥ हो दीनबन्धु श्रीपति करुणा निधानजी। अब मेरी व्यथा क्यों न हरो वार क्या लगी ।। २६ ।।
(११) स्तोत्र भूदरदास कृत दोहा-कर जिन पूजा अष्ट विधि, भाव भक्ति बहु भाय ।
अब सुरेश परमेश थुति, करत शीश निज नाय ॥१॥
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स्तोत्र भूदरदास कृत ।
चौपाई। . प्रभु इस जग समर्थ ना कोय । जासे तुम यश वर्णन होय । चार ज्ञान धारी मुनि थकें। हमसे मन्द कहाकर सकें। २ ॥ यह उर जानत निश्चय कीन । जिन महिमा वर्णन हम कीन ॥ पर तुम भक्ति थके वाचाल । तिस बस होय गहूं गुण माल ॥३॥ जय तीर्थंकर त्रिभुवन धनी । जय चन्द्रोपम चूडामणी ॥ जय जय परम धाम दातार । कर्म कुलावल चूरण-हार ॥ ४ ॥ जय शिव कामिन कन्त महन्त । अतुल अनन्त चतुष्टय वन्त ॥ जय २ आश भरण बड़ भाग । तप लक्ष्मीके सुभग सुभाग ॥ जय २ धर्मध्वजा धर धीर । स्वर्ग मोक्षदाता वरवीर ॥ जय रत्नत्रय रत्न करण्ड । जय जिन तारण तरण तरण्ड ॥ ६ ॥ जय २ समोशरण शृङ्गार । जय संशय बन दहन तुषार ॥ जय २ निर्विकार निर्दोष । जय अनन्त गुण माणिक कोष ॥७॥ जय जय ब्रह्मचर्य्य दल साज । काम सुभट विजयी भटराज ॥ जय जय मोह महा तरु करी। जयजय मद कुजर केहरी ॥ ८॥ क्रोध महानल मेघ प्रचण्ड । मान मोहधर दामिन दण्ड ॥माया वेल धनंजय दाह । लोभा सलिल शोषण दिन नाह ॥ ८ ॥ तुम गुण सागर अगम अपार । ज्ञान जहाज न पहुचे पार ।। तट हो तट पर डोले सोय । कार्य सिद्धि तहां ही होय । १० ।तुम्हारी कीर्ति बल बहु बढ़ी। यत्न बिना जग मण्डप चढ़ी। और कुदेव सुयश निज चहैं। प्रभु अपने थल हो यश लहैं ॥ ११ ॥ जगति जीव घूमें बिन ज्ञान । कीना मोह महा विष पान ॥ तुम सेवा विष नाशक जड़ी। तह मुनि जन मिल निमय करी ॥ १२ ॥ जन्म जरा मिथ्या मत मूल। जन्म मरण
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जिनवाणी संग्रह।
लागे तहां फूल ॥ सो कबहू बिन भक्ति कुठार । कटे नहीं दुख फल दातार ॥ १३ ॥ फल्प सरोवर चित्रा बेलि । काम पोरवा नव निधि मेल॥ चिन्तामणि पारस पाषाण । पुण्य पदारथ और महान ॥१४ ।। ये सब एक जन्म संयोग । किश्चित सुख दातार नियोग। त्रिभुवननाथ तुम्हारी सेव । जन्म २ सुखदायक देव ॥ १५ ॥ तुम जग बांधव तुम जग तात । अशरण शरण विरद विख्यात ॥ तुम सब जीवन रक्षापाल । तुम दाना तुम परम दयाल ॥ १६ ॥ तुम पुनीत नुम पुरुष प्रमान । तुम सम दशों तुम सब जान । जयमुनि यज्ञ पुरुष परमेश ॥ तुम ब्रह्मा तुम विष्णु महेश ॥ १७ ॥ तुम जग भर्त्ता तुम जग जान । स्वामि स्वयम्भू तुम अमलान ॥ तुम बिन तीन काल तिहुं खोय । नाहीं शरण जीवको होय ॥ १८ ॥ इससे अब करुणानिधि नाथ । तुम सन्मुख हम जोड़े हाथ ॥ जबलों निकट होय निर्वाण । जग निवास छूट दुख दान |॥१८॥ तब लों तम चरणाम्बुज बास । हम उर होय यही अरदास ।। और न कछु बांछा भगवान । हो दयालु दीजे वरदान ॥ ३० ॥ दोहा-इस विधि इन्द्रादिक अमर, कर बहु भक्ति बिधान ।
निज कोठे बेठे सकल, प्रभु सन्मुख सुख मान ॥२१॥ जीति कर्म रिपु ये भये, केवल लब्धि निवास । सो श्रीपार्श्व प्रभू सदा, करो विघ्न घन नाश ॥
( १२) अरिहन्त परमेष्ठी मंगल । वन्दों श्रीअरिहन्त सिद्ध आचार्यजी। उपाध्याय नमि साधु भवधर आर्यजो । पंच परमपद श्रेष्ठ जगति में ये कहे। इन ही के सुप्रसाद भव्यजन सुख लहे ॥ लहे लेत ले यगे सुख मुक्ति
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स्तोत्र भूधरदास कृत ।
रमनीके सही ॥ अहमेन्द्र इन्द्र नरेन्द्र सुखकी तास उपमा है नहीं ॥ यासे तिन्होंके एक सौ तिरकाल गुण नित ध्याइये । उर नेम धरके पंच पदके पंच मंगल गाइये ॥ १ ॥ सम चतुर संस्थान सुगन्धित तन लसे । एक सहस्र गणि आठ सुलक्षण शुभ बसे || मल मूत्र नहीं होय पसेव न होइये । क्षीर वर्ण वर रुधिर अतुल बल जोइये ॥ जोइये हितमित बचन सुन्दर रूपका ना पार जी । लख
वज्र वृषभ नाराच्य सहनन जन्म दश गुण धारजी ॥ सुरभिक्ष योजन एक शतलों चार दिश जानिये । छाया विवर्जित चार आनन गगण गमन बखानिये ॥ २ ॥ नहीं बढ़े नख केश सकल विद्याधनी । प्राणी वाधा रहित सहिज अतिशय बनी ॥ नहि होय उपसर्गाहार कवला नहीं । नेत्र नहीं टमकार ज्ञान गुण दश सही ॥ सही सब हो जीव केरे भाव मंत्री तहां बसें । सकलार्थ मागधी होय भाषा सुनत सब संशय नशें ॥ सब लोक में आनन्द बर्ते भूमि दर्पण सम छजे । आकाश निर्मल धान्य सब ही एकठे हो नीपजे
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॥ ३ ॥ छः ऋतु के फल फूल फलें इकबार ही । भू तृण कंटक आदि रहित सुखकार हो ॥ मन्द सुगन्धि चले पवन सकल जन मन हरें । गंधोदक की वृष्टि गगणसे सुर करें ॥ करें जय जय कार मुख से शब्द सुर आकाश में। सुर हेम कमल विहार करते धरत पद तल जास में । अष्ट मङ्गल द्रव्य राजय धर्म चक्र बले तहां । ये देव कृत गुण जात चौदह जोड़ सब चौतिस यहां । सोहे वृक्ष अशोक शोक हर लेत है। दिव्य ध्वनि सुन जीव मिथ्या तज देत हैं || सुरकृत पुष्प स वृष्टि चमर चौंसट दुरें | भामण्डल सुर गगण नाद दुंदुभी करें ॥ करें अपने हेतु को ये क्षत्रत्रय
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२५८
जिनवाणी संग्रह। शिर सोहना ॥ मणि जटित सिंहासन कनकमय लोकत्रय मन मोहना ॥ ये प्रातिहार्य मिलाय आठों जोड़ गुण ब्यालीस जी। ये ही जनावत प्रगट तुम को तीन जग के ईशजी ॥ दर्शन झान अनन्त विर्षे षट द्रव्य से । गुण पर्याय अनन्त लखें दृष्टि सर्वके । राजत सुक्ख अनन्तानन्त केवल धनी। अनन्त चतुष्टय जोड़ सकल छालिस गुणी। गणिये सुछालिस गुण विराजित देव अरिहंत सो लखो। गुण और कबलों कहों कैसे बुद्धि थोरी मैं रखों ॥ इन्द्र गणधर आदि जिन गुण गणत पार न पाइयो । गणि दोष अष्टादश जिनेश्वर मूल से जु नशाइयो । क्षुधा तृषा मद मोह जरा चिन्ता टरी। आरति विस्मय रोग शोक निद्रा हरो॥ स्वेद खेद भय रोग हनो पुन द्वेषजी। जान्म मरण का दुख नहीं लवलेश जो ॥ लवलेश इनका नाहिं यासे मोहि तारण तरणनी। भव दुख निवारण सुक्ख कारण मोहि अशरण शरणजी ॥ यासे सदा ही प्रात उठ छालीस गुण नित ध्याइये। उर नेम धर पद पञ्च में अरिहन्त मङ्गल गाइये ॥ ७॥
(१३) श्रीसिद्ध परमेष्टी मंगल।
तिहू जग शिरतन बात बलय में जानियो । प्रारम्भ नभ क्षेत्र तहां उर आनियो॥ मनुज क्षेत्र सम क्षेत्र महा अद्भुत सही। हाटक मणिमय मुक्ति शिला तासम कही। कही तिहूं जग शीर्ष ऊपर क्षत्रके आकार जी। मध्य भाग योजन आठ मोटी अन्त अनुक्रम ढारजी । तापर विराजत सिद्ध शिव थल काय बिन बिन रूपजी। लन पूर्व तन से ऊन किंचित आत्मरूप अनूप जी ॥१॥
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श्रीसिद्धपरमेष्ठी मंगल। ___२५६ एक सिद्धके माँहि अनन्ते सिद्ध हैं। राजत गुण समुदाय लिये निज ऋद्धि हैं ॥ किंचित कायोत्सर्ग और पदमासनं । सकल सिद्ध सम शीर्ष विराजत भासनं ॥ भासना आकार काजै लखो इक दृष्टान्त जी। सांचो करो इक मोम को फिर गारालेपधरन्त जी। सुकवाय ताको अग्नि देकर मोम काढ़न ठानिये। पोलारवा में रहै जैसी सिद्ध आकृति जानिये ॥ २ ॥ पौने सोलह सौ धनु महा गिनाय जी। बात वलय तन की सुलखो मोटाय जी। पन्द्रह सौ का भाग देव ताको सही। सबा पांच सौ धनुष होंय संशय नहीं ॥ संशय नहीं अवगाहना उत्कृष्ट सिद्धन की लखो। तन बातकी मोटाई पुन: भाग नव लख का रखो॥ अवगाहनादि जघन्य गिनले हाथ साढ़े तीन जी। पुनः मध्य भेद अनेक हैं अवगाहनाके चीत जी॥३॥ मोहनी नामाकर्म महा बलवन्त जी। कीन्हीं बातिल बुद्धि सकल जग जन्तु जी॥ ताहि मूल से नाश शुद्ध सम्पति लही । प्रगटी गुण सम्यक्त्व प्रथम अद्भुत सही ॥ सहोगृण यह जगतिके दुख नाशने को मूल है। या बिना सब ही अकारथ बासना बिन फल है ॥ बिन नीव मन्दिर मूल बिन तरु नीर बिन सागर यथा । सम्यक्त्व गुण बिन सकल करणी सफल नाहीं सवथा ॥४॥ ज्ञानावरणी कर्म दयो सब टार जो। हस्त रेख समलोक अलोक निहार जी ॥ दूजे गुण तब ज्ञान शुद्ध सुप्रगट लहो । यासम और न कोइ जगति में गुण कहो ॥ कहो तीजो कर्म नामो दर्शना वरणी लखो । दीखे नहीं जाके उदय जिमि वस्त्र पर ढाकन रखो ॥ इस कर्मको विध्वंस करके लहो केवल दर्शना । गुण होय मिटे तब ही वस्तु देखन तर्सना ॥५॥ अन्तराय बलवान महा
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जिनवाणी संग्रह।
दुःन देत है। जग जीवोंकी शक्ति सभी हर लेत है ॥ याको हति निज वीर्य अनन्त लहाय जी। सो चौथा गुण वीर्य लखो मन ल्याय जी ॥ मन ल्याय तिहुं जग माहि जानो नाम कर्म महान हैं । इस कर्म वश जग जीव चहुगति भटकते हैरान हैं ॥ याको हनो तब ही अमूर्वि भयो आतमराम है । सो मत्त गुण तब होत जगमें बहुर नाहीं काम है ।। ६ ॥ आयु कर्म से जीव चहूं गतिमें बसे । बंदीखाने मांह यथा कैदी फसे ॥ याहि हरत गुण प्रगट होत अवगाहना । एक सिद्ध में सिद्ध अनन्त सम्भावना ॥ सम्भावना जग जीव सब ही गोत्र विधि के बश परें। पद ऊंच नीच लहैं सुबहु विधि दुःख दावानल जरें । इस गोत्र कर्म बिनाशने से भाष सम प्रगटे सदा। सो गुण अगुण लघु होय तब ही ऊंच नीच न रहें कदा ॥७॥ वेदनी कर्म वशाय जगति के जीव जी। भोगे दु:ख अपार अचिंत सदीव जी ॥ अव्यावाध गुण होइ हरे जब याहिजी । सुख दुःख दोनों रहित नहीं कछु चाह जी ॥ चाह तिहु जगकाल तिहु के सुख इकट्ठ कीजिये। तिनसे अनन्तः सुख है इक समय मांहि लहीजिये ॥ यासे तिन्हों के आठ गुण को प्रात उठ नित ध्याइये। उर नेम धर के पंचपद में सिद्ध मंगल गाइये ॥ ८॥
(१४) श्री आचार्यपरमेष्टी मंगल । दर्शन मोह विनाश आप दर्शन लहो। सोही दशनावार भिन्न परसे कहो ॥ खपर भेद लख शान थकी निज लीन जी। सोही झानाचार लखो सु प्रवीणजी।। प्रवीण निज पद माहि थिर हो यही चरित्र गुण सही। इच्छा अभ्यन्तर रोक अनसन वाह्य गुण
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श्री आचार्यपरमेष्टी मंगल
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तप जानहीं || जब कष्ट बहु विधि आवता नहि टरें यह गुण वीर्य जी । आचरें' पंचाचार यह गुण लहें बहु घर धीर्य जी ॥ १ ॥ वर्ष अनऋतु मास पक्ष आदिक तनी । करें सदा उपवास लहें गुण अनसनी || पूर्ण ग्रास बत्तीस अन्न जलके गुणी । लेय तामें ऊन ऊनोदर सो मुनी ॥ मुनिचर्या निमित्त वनमें व्रत अटपटे घर चलें । व्रत परि संख्या कहो यह गुण और जनसे ना पलें ॥ कोई रसको तजें कबहुँ सर्व रस तज देत हैं । गुण ज्ञान रस परित्याग सुन्दर महा अद्भुत भजत है || २ || गिरि कन्दर एकान्त रहत सु मसान मे । धरें ध्यान अनागार लीन निज ज्ञान में ॥ विव्यक्त शय्यासन सो कहत गुण याहि जी । साहस ऐसा धार ममत्व सो नाहिं जी ॥ नाहिं तनको तनक सो भी ममत तिनके उर बसे । पावस समय तरुके तले धरे ध्यान पातक सब नसे || हेमन्त सरिता ग्रीषम गिरि शिर उम्र जो तप करें। गुण लखो काय कलेश येही सकल दुखको परिहरें ॥ ३ ॥ प्रातः घरें व्रत जेह सम्हाले सांझजीं। कोई लागो दोष लखें ता मांझ जी ॥ गुरुसे कह सब दोष दण्डको आचरें । प्रायश्चित्त गुण येह महा सुखको करें ॥ करें मन बच काय सेती देव गुरु श्रुतिका विनय । अरु पूजनीक पदार्थ तिनकी विनय गुण तप के गिनय ॥ रोगातियुत या वृद्ध मुनिवर देख वैयावृत धरे । उन्माद मद तज लखे' वैयावृत्य गुण तब विस्तरे ॥ ४ ॥ पंच भेद स्वा ध्याय आप नित ही करें। बोध बंधके हेतु परनको उच्चरें ॥ सो ही गुण स्वाध्याय सकलमें सारजी । नाशा दृष्टि लगाय बड़े अनगारजी ॥ अनगार दोनों कर लुभायें लोन निज आतम विषे ।
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जिनवाणी संग्रह।
१ क्षुधापरीषह-अनशन ऊनोदर तप पोषत हैं पक्ष मास दिन बीत गये हैं। जो नहीं बने योग्य भिक्षा विधि सूख अंग सब शिथिल भये हैं। तब तहां दुस्सह भूखकी वेदन सहित साधु नहीं नेक नये हैं। तिनके चरण कमल प्रति प्रति दिन हाथ जोड़ हम सोस नये हैं।
२ तृषा परीषह-पराधीन मुनिवरकी भिक्षा पर घर लेय कहें कछु नाहीं । प्रकृति विरुद्ध पारणा भुजत बढ़त प्यासको त्रास तहां ही॥ ग्रीषमकाल पित्त अति कोपे लोचन दोय फिरे' जब जाहीं। नीर न चहैं तीस से मुनिवर जयवन्तों वरतो जग माहीं॥
३ शीत परीषह-शीतकाल सब हो जन कम्पै खड़े जहां वन वृक्ष दहे हैं । झंझा वायु वहे वर्षा ऋतु वर्षत बादल झूम रहे हैं । तहां धीर तटिनी तट चौपट ताल पालपर कमें दहे हैं। सहैं सम्हाल शीत की बाधा ते मुनि तारण तरण कहे हैं।
४ उष्ण परीषह-भूख प्यास पीड़ उर अन्तर प्रज्वले आंत देह सब दागे । अग्नि स्वरूप धूप ग्रीषमको ताती वायु झालसी लागे ॥ तपै पहाड़ ताप तन उपजे कोप पित्त दाहज्वर जागे । इत्यादिक गर्मीकी बाधा सहैं साधु धैर्य नहि त्यागे ॥
५-दंशमशक परीषह-दंश मशक माखी तनु काटें पीड़े बन पक्षी बहुतेरे । डसें व्याल विषहारे बिच्छू लगे खजूरे आन घनेरे ॥ सिंघ स्याल शुण्डाल सतावे रीछ रोज दुःख देय घनेरे। ऐसे कष्ट सह समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे।
६ नग्न परीषह-अन्तर विषय वासना व बाहिर लोक लाज भय भारी । तातै परम दिगम्बर मुद्रा धर नहि सके दीन
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बाईस परीषह। संसारी। ऐसी दुर्द्धर नग्न परीषह जीते साधु शील व्रतधारी। निर्विकार बालकवत् निर्भय तिनके पायन धोक हमारी॥ ___ ७ अरति परीषह-देश कालको कारण लहिके होत अचेन अनेक प्रकारे । तब तहां जिन होये जगवासी कलबलाय थिरता. पन छारें। ऐसी अरति परीषह उपजत तहां धीर धैर्य्य उर धारें। ऐसे साधुनके उर अन्तर बसो निरन्तर नाम हमारे॥
८ स्त्री परीषह-जे प्रधान केहर को पकड़ें पन्नग पकड़ पान से चम्पत । जिनकी तनक देख भी बांकी कोटिन सूर दीनता जम्पत ॥ ऐसे पुरुष पहाड़ उठावन प्रलय पवन त्रिय घेद पयम्पन। धन्य धन्य ते साधु साहसी मन सुमेरु जिनको नहिं कम्पत ॥
चर्या परीषह-चार हाथ परिमाण निरख पथ चलत दृष्टि इत उत नहीं ताने । कोमल पांव कठिन धरती पर धरत धीर वाधा नहिं माने। नाग तुरङ्ग पालकी चढ़ते ते स्वाद उर याद न आने यों मुनिराज सहें चर्या दुःख तव दृढ़ कर्म कुलाचल भानें ॥
१० आसन परीषह-गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसे जहाँ शुद्ध भू हेरें । परिमित काल रहें निश्चल तन बारबार आसन नहिं फेरें । मानुषदेव अचेतन पशु कृत वैठे बिपत आन जब धेरै ठौरन त भनें थिरता पद ते गुरु सदा बसो उर मेरे ॥
११ शयन परीषह-जे महान् सोनेके महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवे । ते अब अचल अङ्ग एकासन कोमल कठिन भूमिपर सोचे॥ पाहन खण्ड कठोर कांकरी गड़त कोर कायर नहीं होवे। ऐसी सयन परीषह जीतत ते मुनि कर्म कालिमा धोवें।
१२ आक्रोश परीषह-जगत् जीषयावन्त चराचर सबके हित
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२७२
जिनवाणी संग्रह। सबको सुखदानी। तिन्हे देख दुर्वचन कहे शठ पाखण्डो ठग यह अभिमानी। मारो याहि पकड़ पापीको तपसी भेष चोर है छानी। ऐसे कुवचन वाण की विरियां क्षमा ढाल ओढ़े मुनि शानी ॥ ___ १३ बध बन्दन परीषह-निरपराध निवर महामुनि तिनको दुष्ट लोग मिल मारें। कोई खैच खम्मसे बांधे कोई पायकमें परजारे ॥ तहां कोप नहि करें कदाचित पूरव कर्म विपाक विचारें। समरथ होय सहैं बध बन्धन ते गुरु सदा सहाय हमारे ॥
१४ याचना परीषह-घोर वीर तप करत तपोधन भये क्षीण सूखी गलयांही। अस्थिचाम अवशेष रहे तनु नसा जाल मलके जिस मांही॥ औषधि असन पान इत्यादिक प्राण जांय पर या. चित नाहीं। दुई अयाविक व्रत धारे करहिं न मलिग धर्म परछांहीं ॥
१५ अलाभ परीषह-एकबार भोजनकी बिरियां मोन साध बस्तीमें आवै । जो नहिं बने योग भिक्षा विधि तो महन्त मन खेदन लावे। ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीते तब तप वृद्ध भावना भावै । यों अलाभकी कठिन परोषह सहें साधु सोही शिव पावै ॥'
१६ रोग परीषह- वात पित्त कफ श्रोणित वारों ये जब घटें बढ़े तनु माहीं। रोग संयोग शोक तब उपजत जगत् जीय कायर हो जाहीं ॥ एसी व्याधि वेदना दारुण सहैं सूर उपचार न चाहीं । आत्मलीन विरक्त देहसे जैन यती निज नेम निवाहीं ।
१७ तृण स्पर्श परिषह-सूखे तृण और तीक्ष्ण कांटे कठिन कांकरी पाय विदार। रज उड़ आन पड़े लोचनमें तीर फांस तनु पीर विया ॥तापर पर सहाय नहीं वांछत अपने करसों काढ़
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बाईस परीवह ।
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न डारें । यो तृणस्पर्श परोषह विजयी ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥
१८ मल परीषह -- यावज्जीव जल न्हौन तजो तिन नग्न रूप बन थान खड़े हैं। चले पसेव धूपकी बिरियां उड़त धूल सब अङ्ग भरे हैं। मलिन देहको देख मदा मुनि मलिन भाव उर नाहिं करे हैं। यों मल जनित परीषह जोतें सिन्हें पाय हम सीस धरे हैं ।
१८ सत्कार तिरस्कार परीग्रह जे महान विद्यानिधिविजयी विर तपसी गुण अतुल भरे हैं । तिनकी बिनय वचन सों अथवा उठ प्रणाम जन नाहिं करे हैं ॥ तौ मुनि तहां खेद नहिं मानें उर मलोनता भाव हरे हैं। ऐसे परम साधुके अहनिशि हाथ जोड़ हम पांय परे हैं |
२० प्रज्ञा परीषह - तर्क छन्द व्याकरण कलानिधि आगम अलङ्कार पढ़ जाने । जाकी सुमति देख परवादी विलखे होंय लाज उर आनें ॥ जैसे सुनत नाद केहरिको वन गयन्द भाजत भय मानें। ऐसी महाबुद्धिके भाजन ये मुनीश मद रञ्च न ठाने ॥
२१ अज्ञान परिषह - सावधान वर्ते निशि वासर संयम शूर परम वैरागी । पालत गुप्ति गये दीरघ दिन सकल सङ्ग ममतापर त्यागो || अवधिज्ञान अथवा मनपर्य्यय केवल ऋद्धि न आजहूं जागी !
॥
यो विकल्प नहिं करें तपोधन सो अज्ञान विजयी बड़ भागी ॥
२२ अदर्शन परीषद - मैं चिरकाल घोर तप कीनो अजहुं ऋद्धि अतिशय नहिं जागे । तप बल सिद्ध होय सब सुनियत सो कछु बात सी लागे || यो कदापि चितमें नहिं चिन्तत समकित शुद्ध शान्तिरस पागे । सोई साधु अदर्शन विजयीताके दर्शनसे अघ भागे ।
१८
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बारहमासा जुल।
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ताल महा जल बरसे। बिन परसे श्रीभगवन्त मेरा जी तरसे । मैं तज दई तीज सलोन पलट गई पौन मेरा है कौन मुझे जग तरना। निम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।
भादों मास ( झड़ी) सखि भादों भरे तलाब मेरे वितचाव करूगी उछाव से सोलहकारण। करू दसलक्षण के व्रत से पाप निवारण। करू रोट तीज उपवास पञ्चमी अकास अष्टमी खास निशल्य मनाऊ । तपकर सुगन्ध दशमी को कर्म जलाऊ ॥
( झर्षटे )--सखि दुद्धर रसकी बारा। तजिहार चार पर. कारा। करू' उग्र उग्र तप सारा । ज्यों होय मेरा निस्तारा।
( झड़ी )-मैं रत्नत्रय व्रत धरू चतुर्दशी करू' जगत् से तिरू करू पखवाड़ा। मैं सब से क्षिमाउ दोष तजू सब राड़ा। मैं सातों तत्व विवार कि गाऊ मल्हार तजा संसार तो फिर क्या करना । निर्नेम नेम बिन हमैं जगत् क्या करना ॥
आसोज मास ( झड़ी) सखि आगया मास कुवार लो भूषण तार मुझे गिरनार का दे दो आज्ञा । मेरे पाणिपात्र आहारकी है परतिज्ञा । लो तार ये चडामणी रतनकी कणी सुनों सब जनी खोल दो बैनी। मुझको अवश्य परभातहि दीक्षा लैनी ॥
(झबर्ट )-मेरे हेतु कमण्डल लावो। इक पीछी नई मंगावो मेरा मत ना जो भरमावो । मम सूते कर्म जगावो॥ __(झड़ी)-है जगमें असाता कर्म बड़ा वेशर्म मोहके भरमसे धर्म न सूझ । इसके वश अपना हित कल्याण न बूझे। जहां मृग
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जिनवाणी संग्रह |
तृष्णाकी धूर वहां पानी दूर भटकना भूर कहां जल भरना । मिनेम नेम बिन हमें जगत क्या करना ।
कातिक मास (भड़ी )
सखि कार्तिक काल अनन्त श्रीअरहन्तकी सन्त महन्तने आशा पाली । घर योग यत्न भव भोगकी तृष्णा टाली । सजे चौदह गुण अस्थान स्वपर पहचान तजे रु मक्कान महल दिवाली | लगा उन्हें मिष्ट जिन धर्म अमावस काली ॥
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(a) - उन केवल ज्ञान उपाया। जगका अन्धेर मिटाया । जिसमें सब विश्व समाया । तन धन सब अधिर बताया ॥
I
( झड़ी ) - है अधिर जगत सम्वन्ध अरी मतिमन्द जगत्का अन्ध है धुन्ध पसारा । मेरे प्रीतमने सत जानके जगत् बिसारा । मैं उनके चरणकी चेरी तू आज्ञा दे मा मेरी । है मुझे एक दिन मरना । निर्लेम नेम ० ॥
अगहन मास ( झड़ी )
सखि अगहन ऐसी घड़ी उदय में पड़ी मैं रह गई खड़ी दरस नहि पाये। मैंने सुकृत के दिन विरथा योंहो गँवाये ।
नहीं मिले हमारे पिया न जप तप किया न संयम लिया. अटक रही जगमें । पड़ी काल अनादिसे पापकी बेड़ी पगमें ॥
( झर्व ) – मत भरियो मांग हमारी । मेरे शीलको लागे गारी । मत डारो अञ्जन प्यारी । मैं योगन तुम संसारी ॥
( झड़ी ) - हुये कन्त हमारे जती मैं उनकी सती पलट गई रती तो धर्म नहि खण्ड । मैं अपने पिताके बंशको कैसे भंडू । ver शील सिङ्गार अरी नथ तार गये भर्तारके संग आभरना निर्नम नेम बिन० ॥
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बाहमासा राजुला
पौष मास ( झड़ो) सखि लगा महीना पोह ये माया मोह जगत्से द्रोह र प्रीत करावे ।हरे झानावरणी भान अदर्शन छावे । पर द्रव्यसे ममता हरे तो पूरी पर जु सम्बर करे तो अन्तर टूटै । अस ऊंच नीय कुल नामकी संज्ञा छूटै॥
(झर्व )-क्यों ओछी उमर धरावै । क्यो सम्पतिको बिल गावै । क्यों पराधीन दुःख पावे । जो संयममें चित लावे ॥
(झड़ी)-सखि क्यों कहलावे दीन क्यों हो छवि छीन क्यों विद्याहोन मलीन कहावै । क्यों नारि नपुसक जन्मे कर्म नचावे। वेत. शील शृङ्गार रुलै संसार जिने दरकार नरकमें पड़ना। निर्ने०
माघ मास ( झसी) सखि आगया माह बसन्त हमारे कन्त भये अरहन्त वो केवलशानी । उन महिमा शील कुशीलकी ऐसे बखानी । दिये सेठ सुदर्शन सूल भई मखतूल वहां बरसे फूल हुई जयबाणी वे मुक्ति गये अरु भई कलङ्कित राणी ॥
(झर्व)-कीचकने मन ललचाया। दुपदोपर भाव धराया। उसे भीमने मार गिराया । उन किया जैसा फल पाया ॥
(झड़ी)-फिर गया दुर्योधन चीर हुई दिलगीर जुड़ गई भीर लाज अति आवे । गये पाण्डु जुयेमें हार न पार बसावे । भये परगट शासन बीर हरी सब पीर बन्धाई धीर पकर लिये चरना। निर्नम नेम बिन०॥
__फागुन मास ( झरी) सलि माया फाग बड़ भाग तो होरी त्याग अढ़ाही लाग के
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२८४
जिनवाणी संग्रह।
मैनासुन्दर । हरा श्रीपालका कुष्ट कठोर उदम्बर । दिया धवल सेठने डार उदधिकी धार तो होगये पार वे उस हो पलमें । अरु जापरणी गुणमाल न डूबे जलमें ॥
( झर्व )-मिली रैन मंजूषा प्यारी। जिन ध्वजा शील की धारी । परी सेठ पै मार करारी । गया नर्कमें पापावारी॥
(झड़ी)-तुम लखो द्रोपदी सती दोष नहि रती कहें दुर्मती पत्रके बन्धन । हुआ धातकी खण्ड जरूर शील इस खण्डन । उन फूटे घड़े मंझार दिया जल डाल तो वे आधार थमा जल झर ना। निर्नेम नेम विन० ॥
चैत्र मास ( झड़ी) सनि चैत्रमें विन्ता करे न कारज सरे शीलसे टरे कर्मकी रेखा । मैंने शोलसे भीलको होता जगत् गुरु देखा। सखी शीलमें सुलसां तिरी सुतारा फिरी खलासी करी श्रीरघुनन्दन । अरु मिली शील परताप पवनसे अजन ॥ ___ (झर्वर्ट )-रावणने कुमत उपाई। फिर गया विभीषण भाई । छिनमें जा लंक गमाई । कुछ भी नहि पार-बसाई ॥
(झड़ो)-सीता सती अग्निमें पड़ी तो उस ही घड़ी वह शीतल पड़ी चढ़ी जल धारा। खिल गये कमल भये गगनमें जय जल कारा। पद पूजे इन्द्र धरेन्द्र भई शीतेन्द्र श्रीजेनेन्द्रने ऐसा बरना। निम नेम बिन० ।।
बैशाख मास ( झडो) सखी आई बैशाखी भेष लई में देख ये ऊरध रेख पड़ी मेरे करमें । मेरा हुमा जन्म यु ही उग्रसेनके घरमें । नहि लिखा करम
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बारहमासा राजुल।
२८० में भोग पडा है जोग करो मत सोग जाऊ गिरनारी। है मात पिता अरु भ्रातसे क्षमा हमारी॥
(झव)—मैं पुण्य प्रताप तुम्हारे । घर भोगे भोग अपारे। जो विधिके अङ्क हमारे । नहिं टरै किसीके टारे ॥ __(मड़ी)–मेरो सखो सहेली बीर न हो दिलगीर धरो वित धीर मैं क्षमा कराउ । मैं कुलको तुम्हारे कबहु न दाग लगाऊ। वह ले आज्ञा उठ खडी थी मङ्गल घड़ी बनमें जा पड़ी सुगुरुके चरना । निर्ने म नेम बिन० ॥
जेठ मास (मडी) अजी पड़े जेठकी धूप खड़े सब भूप वह कन्या रूप सती बड़ भागन । कर सिद्धनको प्रणाम किया जग त्यागन । अजि त्यागे सब संसार चूड़ियां तार कमण्डलु धार के लई पिछोटी। अरु पहर के साड़ी स्वेत उपाटी वोटी॥
(झर्वर्ट )-उन महाउप्र तप कीना। फिर अच्युतेन्द्र पद लीना । है धन्य उन्हींका जोना । नहिं विषयनमें वित दीना ॥ ___ (झड़ो)-अजी त्रिया वेद मिट गया पाप कट गया पुण्यचढ़ गया बढ़ा पुरुषारथ । करे धर्म अरथ फल भोग रुचे परमारथ, वो स्वर्ग सम्पदा भुक्ति जायगी मुक्ति जेनको उकिमें निश्चय धरना। निर्नेम नेम० ॥
जो पढ़े इसे नर नारि बढ़े परिवार सब संसारमें महिमा पावें। सुन सतियन शील कथान विन्न मिट जायें। नहि रहैं सुहागिन दुखी होय सब सुखी मिटे वेरुषी करें पति आदर । धे होय जगत् मैं महा सतियोंकी चादर ॥
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२९६
जिनवाणी संग्रह। या संसार महावन भीतर भर्मत छोर न आवे । जन्मन मरन जरायों दाहे जीव महा दुःया पावे ॥३॥ कबहू कि जाय नर्क पद भुजे छेदन भेदन भारी । कबहूँ कि पशु पर्याय धरे तहां बध बन्धन भय कारी ॥ सुरगतिमें परि सम्मति देखे राम उदय दुख होई । मानुष योनि अनेक विपति मय सर्व सुखी नहीं कोई ॥ ४ ॥ कोई इष्टः वियोगी बिलखे कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन दरिद्री दीखे कोई तनका रोगी ॥ किस ही घर कलिहारी नारी के बैरी सम भाई। फिस होके दुख बाहर दीखे किसही उर दुचिदाई ॥ ५ ॥ कोई पुत्र विना नित भूरे होय मरै तब रोये । खोटी सन्ततिसे दुख उपजे क्यों प्राणी सुख सोबै ॥ पुण्य उदय जिनके तिनको भी नाहिं सदा सुख साता। यह जग बास यथारथ दीखे सबही हैं दुःख दाता ॥६॥ जो संसार विणे सुख होते तीर्थंकर क्यों त्यागे। काहेको शिव साधन करते संयमसे अनुरागे । देह अपावन अथिर घिनावनी इसमें सार न कोई । सागरके जलसे शुचि की तोभी शुद्धि न होई ॥ ७ ॥ सप्त कुधातु भरी मलमूत्र चम लपेटो सोहै । अन्तर देखत या सम जगमें और अपावनको हैं ॥ नव मल द्वार श्रबैं निश वासर नाम लिये घिन आवे। व्याधि उपाधि अनेक जहां तहां कौन सुधी सुख पावे ॥८॥ पोषत तो दुख दोष करे अति सोचत सुख उपजावे। दुर्जन देह स्वभाव बराबर मूरख प्रीति बढ़ावे ॥ रावन योग्य स्वरूप न याको विरचन योग्य नहीं हैं। यह तन पाय महातप कीजै इसमें सार यही है ॥ ८ ॥ भोग बुरे भवरोग बढ़ावे बैरी हैं जग जीके। वे रस होय विपाक समय अति सेवत लागे नीके ॥ बज़ अग्नि विषसे विषधरसे हैं अधिक
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समाधिमरण ।
२६०
दुखदाई । धर्म रत्नको बोर प्रबल अति दुर्गति पन्थ सहाई ॥१०॥ मोह उदय सह जीव अज्ञानी भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा सब सो सब कञ्चन माने | ज्यों ज्यों भोग संयोग मनोहर मन बांछित जन पावे । तृष्णा नागिन त्यों त्यों के लहर लोभ विष लावे ॥ ११॥ मैं चक्रो पद पाय निरन्तर भोगे भोग घनेरे ॥ तो भी तनक भये ना पूरण भोग मनोरथ मेरे । राज समाज महा अघ कारण चैर बढ़ावन हारा। वेश्या सम लक्ष्मी अति चञ्चल इसका कौन पत्यारा ॥१२॥ मोह महा रिपु बैर विचारे जग जीव सङ्कट डारे । घर कारागर बनिता बेड़ों परजन है रखवारे । सम्य ग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जियको हितकारी। ये ही सार असार और सब यह चकी जिय धारी ॥ १३॥ छोड़े चौदह रत्न नबोनिधि और छोड़े सङ्ग साथी । कोड़ी अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लाख हाथी | इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जीर्ण त्रणवत त्यागी । नीति विचार नियोगी सुतको राज्य दिया बड़ भागी ॥ १४ ॥ होइ निस्सल्य अनेक नृपति संग भूषण बसन उतारे । श्रीगुरु चरण धरी जिन मुद्रा पञ्च महाव्रत धारे ॥ धन्य यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धन्य यह धैर्यधारी । ऐसी सम्पति छोड़ बसे बन तिन
पद धोक हमारी ॥ १५ ॥
दोहा - परिग्रह पोट उतार सब, लीनो चारित्र पंथ ।
निज स्वभाव में स्थिर भये, बज्र नाभि निर्मन्थ ॥ (२७) समाधिमरण ।
( कवि थानतराय कृत )
गौतम स्वामी बन्दो नामी मरण समाधि भला है । मैं कब
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जिनवाणी संग्रह।
पाऊँ निसदिन ध्याऊ गाऊं बचन कला है ॥ देव धरम गुरु प्रीति महा दृढ़ सात व्यसन नहीं जाने । त्यागि वाइस अभक्ष संयमी बारह प्रत नित ठाने ॥१॥ चक्की उखरी चूलि बुहारी पानी प्रत न बिराधे। बनिज करे पर द्रव्य हरे नहिं छहो करम इमि साधे ॥ पूजा शास्त्र गुरुनकी सेवा संयम तप चहु दानी। पर उपकारी अल्प अहारी सामायक विधि शानी ॥ २॥ जाप जपे तिहयोग घरे द्वग तनकी ममता टारे । अन्त समय वैराग्य सम्हारे ध्यान समाधि विवारे ॥ आग लगे अरु नाब डुबे जब धर्म विधन जब आवे । चार प्रकार अहार त्यागिके मन्त्र सु मनमें ध्यावे ॥३॥ रोग अलाध्य जहाँ बहु देखे कारण और निहारे । वात बड़ी है जो बनि आवे भार भवन को डारे ॥ जो न बने तो घरमें रह करि सबसों होय निराला । मात पिता सुत त्रियको सोंपै निज परिग्रह इहि काला ॥४॥ कछु चैत्या. लय कछु श्रावक जन कछु दुखिया धन देई । क्षमा क्षमा सबहो सों कहिके मनकी शल्य हनेई ॥ शत्रुन सों मिलि निज कर जोरे मैं बहु करी है बुराई । तुमसे प्रीतम को दुख दीने ते सय बकसो भाई ॥५॥ धन धरती जो मुख सो मांगे सो सब दे संतोषे । छहो कायके प्राणी. ऊपर करुणा भाव विशेषे ॥ ऊ'च नीच घर बैठ जगह इक कडू भोजन कछू ले। दूधा धारी क्रम क्रम तजिके छाछ अहार पहेले ॥६॥ छाछ त्यागिके पानो राखे पानी जि संथारा। भूमिमांहि फिर आसन माहे साधर्मी ढिग प्यारा ॥ जब तुम जानो यह न जपै है तब जिनबानी पढ़िये। यो कहि मौन लियो सन्यासी पंव परम पद गहिये ॥७॥ वो आराधन मनमें ज्यावे बारह भावन भावे । दश लक्षण मन धर्म विवारे रत्नत्रय मन लावे ॥पैंतिस सोलह षट पन
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भठायनाते।
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an.nanvar
चौ दुइ इक बरन विचारे । काया तेरी दुखकी ढेरी शान मई तू सारे ॥८॥ अजर अमर निज गुण सो पूरे परमानन्द मुभावे । आनन्द कन्द चिदानन्द साहब तीन जगतपति ध्यावे ।। क्षुधा तृषादिक होइ परीषह सह भाव सम राखे । अतीवार पांचो सब त्यागे शान सुधारस चाखे ॥६॥ हाड़ मांस सब सूखि जाय जब धरम लीन तन त्यागे । अदभुत पुण्य उपाय सुरगमें सेज उठे ज्यों जागे। तह तैं आवे शिवपद पावे बिलसे सुख अनन्तो। धानत यह गति होय हमारी जैन धरम जयवन्तो ॥ १० ॥ (२८) अठारहनाते लिख्यते ।
(श्रीयुत कुन्दनलाल कृत कोई किसीका सगा नहीं झूठी सब नातेदारी। अठारह नाते हुए हैं एक जन्मही मैं जारी ॥ टेक ॥ मालवदेश उज्जैन शहरमें सेठ सुदत्त वसे भारी, वसन्ततलिका वेसवा जिन्होंने निज घरमें डारी। रोग सहित जब भई बेसवा सेठि अरुचि चितमें धारी, गर्भवतीको महलसे छिनमें कर दीनी उनने न्यारी॥
शैर-निरादर हो गणिका वहां से घर अपने आई है। खड़ी दिलगीर हो सोचें पड़ी कैसी तबाहो है ॥ जने लड़का और लड़की जोडले ऐसी भाई है । जुदे इनको करू घरसे जभी मेरी रिहाई है ।। सुतडारा उत्तरदिशि माहीं तनुजा दक्षिणदिशि डारी । अठारह नाते हुए हैं एक जन्मही मैं जारी ॥१॥ प्रयागवासी बनजारेकी लड़की
पर जा नजर पड़ी। उठागोदमें नाम कमला जा रक्खा बिसी घड़ी ।। 'दूजे बनजारे सुभद्रकी लड़के पर जा द्दष्टि पड़ी। उठा गोदमें नाम धनदेव रखा परवरिस करी ॥ ले लड़का अरु लड़की दोनों के
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जिनवाणी संग्रह। अपने घर आए हैं। परवरिस पा बड़े हुये ध्याहने योग्य पाए हैं। बनी दुलहिन कमला दुलहा धनदेव भाई है। मिला संयोग जुर ऐसा बहिन भाई विवाहे हैं। भोग भोगवे भाई बहिन मिलि विधना तेरी बलिहारी। अठारह नाते हुये हैं एक जन्मही मैं जारी ॥२॥ समय पाय व्योपार हेत धनदेव गया उज्जैन नगर । देव योगसे मई निज मातासे दो चार नजर || अनरथ ऐसा हुआ किया विभचार जु दोनोंने मिलकर । भेद न जाना भोगने भोग लगे माता सुत जुर ॥ कई दिन तक वहां धनदेवको गणिका रमाया में। रोग संयोग जुग ऐसा वरुण इक लाल जाया है। कहीं कमलाने यह सब भेद मुनिवर सेती पाया है। पालना मलता चालक वरुण जहँ पर बताया है। पहुंची सो उज्जैन नगर जहँ रचना देखी संसारो। अठारह नाते हुये हैं एक जन्महो मै जारी ॥३॥ हाय हाय सो करे अरे विधना तूने कीनी क्यारी। होते ही से मुझे क्यों नहिं तूने गर्दन मारी ॥ क्या कहके अब झुलाऊ इस वीरनको षता विधातारी। छै नाते हैं मेरे इस बालकसे सुन महतारी ॥ प्रथम तो पुत्र है मेरा जु मुझ भरतार से उपजा । तनुज धनदेव भाईका लगा जिससे भतीजा है ॥ मेरी तेरी एक है माता जगा इस रीतिसे भ्राता है। मेरे मालिकका लघु भाई लगा देवरका नाता है ॥ माता मेरीका तू देवर चवा इस तरह होता है । सौतके पुत्रका तू पुत्र इस नातेसे पोता है ॥ छहनातेकर विरन झुलाऊ
कथा करी जाहर सारी। अठारह नाते हुए हैं एक जन्म हो मैं जारी ॥४॥ गणिका पतिसे हुआ पिता जिसलघु भाई मुझ वाचा है। बचा पिता सो सगा धनदेव लगा मो वादा है । मेरा मालिक
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अठारह नाते। हुमा धनदेव जिसने मुझे ध्याहा है। मेरी तेरी है मात एक जिससे लगता तु भाया है ॥ वेश्या सौत है मैं हूं धनदेव पुत्र मेरा है। मैं गणिकासुत बधू गनिकापति यों लगा ससुरा है।। कहे धनदेवसे नाते जताया मेद सारा है। सुना अहवाल घबराके शब्द हाहा पुकारा है ॥ देखा जगका हाल हुए कैसे कैसे अवर जकारी । अठारह नाते हुए हैं एक जन्मही मैं जारी॥ ५॥ प्रथम पैदा किया मुझको इस नाते महतारी हैं । मेरे भाईकी स्त्री है जिस करके मुझ भावी है। पिता मुझ धनदेव है जिसकी माता तू दादी है ॥ सौत भी है वह जु मेरे मालिककी प्रिय प्यारी हैं। सौत पुत्र वधू गणिका सो मेरी भी वधू जाहिर। मैं उसके पुत्रकी स्त्री लगी मेरी सासू सरासर । कहे नाते अठारह अतमें इक सुगुरु सीख है। छुटा जगजालसे यहां कर्म शत्रुका बड़ा डर है । कुदन ऐसे अनर्थ माया विधना जगमैं विस्तारी। अठारह नाते हुए हैं एक जन्म ही में जारी ॥ ६॥ * इति *
(२६) अठारह जाते की कथा
मालवदेश उज्जयनीविर्षे राजा विश्वसौन तहां सुदत्त नाम श्रेष्ठी वसे सो सोलह कोटिको धनी, सो वसन्ततिलका नाम वेश्यापर आशक्त होय ताहि अपने घरमें राखी, सो गर्भवती भई, जब रोगसहित देह भई, तब घरमें से काढ़ि दई बहुरि बसन्ततिलका दुखी हो कर अपने घर आई सो उसके गर्षसे एक पुत्र और एक पुत्री साथही जुगल उत्पन्न होने के कारण खेद खिन्न हुई
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जिनवाणी संग्रह।
तब क्रोधित हो कर तिन दोऊ बालकनको जुदे २ कम्बलमें लपेटि पुत्रीको तो दक्षिण द्वारपर डाली सो प्रयागनिवासी बनजारे ने लेकर अपनी स्त्रीको सौंपा कमलानाम धरा, अरु पुत्रको उत्तर द्वारपर डाला सो साकेतपुरेके एक सुभद्र बनजारेने अपनी लो सुबताको दिया और धनदेव नाम धरा बहुरि पूर्वोपार्जित कर्म के वशते धनदेव और कमलाके साथ विवाह हुआ स्त्री भरतार हुए, पाछे धनदेव व्यापार करने वास्ते उज्जयनी नगरो गया तहां बसन्ततिलका वेश्यासों लुब्धा भया तब ताके संयोगते बसन्ततिलकाके पुत्र भया वरुण नाम धरा,उधर एक दिन कमला ने निमित्तानो मुनिसे इसकी कुशल बार्ता पूछी सो मुनिने पूर्वभवसों लेकर बर्तमान तक सकल वृत्तान्त कहा।
इनका पूर्वभव वर्णन । इसी उज्जयनी नगरोविर्षे सोमशर्मा नाम ब्राह्मण ताक काश्यपी नाम स्त्री तिनके अग्निभूत सोमभूत नामके दोय पुत्रसो दोनों कहीं तें पढ़ कर आवें थे, मार्गमें जिनदत्चमुनिको ताको माता जो जिनमती नाम अर्जिकाकू शरीर समाधान पूछता देखा
और जिनमद्रनामा मुनिकों सुभद्रानामा अर्जिका पुत्रकी स्त्री थी सो शरीर समाधान पूछंती देखी तहां दोनों भाई ने हास्य करी कि तरुणके तौ वृद्धस्त्री और वृद्धक तरुणी स्त्री, विधाता ने अच्छी विपरीति रचना करी सो हास्यके पापते सौमशा तो बसन्ततिलका वेश्या हुई बहुरि अग्निभूत दोनो भाई मरिकरि बसन्ततिलका पुत्र पुत्री जुगल हुये तिनने कमला अरु धनदेव नाम
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अठारहनाते की कथा ।
३०३
पाये बहुरि काश्यपी ब्राह्मणीका जीव धनदेव के संयोग तं वरुण नाम पुत्र भया इस प्रकार पूर्वभवका उज्जयनी नगरीविषै सकल वृतान्त स ुनने से कमला को पहिले जन्म का जातीस्मरण हुआ तब वह बसन्ततिलकाके घर गई तहां वरुण पालनेमें झूले था सो ताको कहती भई कि हे बालक ! तेरे साथ मेरे छे नाते हैं सो सुन
१ प्रथम तो मेरा भरतार जो धनदेव ताके संयोगतें तू पैदा भया सो मेरा भी ( सौतेला) पुत्र है - २ दूजे धनदेव मेरा भाई है ताका तूं पुत्र तातैं मेरा भतीजा भी है ।- -३ तीजे तेरी माता बसन्ततिलका सो ही मेरी माता है तिस तैं सहोदर भी है४ चौथे तू मेरे भरतार धनदेवका छोटा भाई तिसकारण मेरा देवर भी है --- ५ पांचवें धनदेव मेरी माता बसन्ततिलकाका भरतार है तातें धनदेव मेरा पिता भया ताका तू' छोटा भाई तातै मेरा चाचा भी है - ६ छठयें मैं बसन्ततिलकाकी सौतिन तातें धनदेव मेरा पुत्र ताका तू पुत्र तातें तू मेरा पोता भी है।
इस प्रकार वरुणके साथ छह नाते कहतो हती सो बसन्ततिलका तहां आई और कमलाको बोली कि तू कौन है सो मेरे पुत्रों इस प्रकार छे नाते सुनावै है ? तब कमला बोली तेरे साथ भी मेरे छह नाते हैं सो सुन
१ प्रथम तो तू मेरी माता है क्योंकि धनदेवके साथ तेरे ही उदरसे युगल उपजी हूं - २ दूजे धनदेव मेरा भाई ताकी तू स्त्री तातें मेरी भौजाई भी है— तीजे तू मेरी माता ताका भर्तारं धनदेव मेरा पिता भया ताकी तू माता तातें मेरी दादी भी है४ चौथे मेरा भरतार धनदेव ताको तू स्त्री तस्तें मेरी सौतिन
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३०४
जिनवार्णो संग्रह।
भी है-५ पांचवें धनदेव तेरा पुत्र सो मेरा भी पुत्र ताको तू स्रो तातें मेरी पुत्रवधु भी है-६ छ? मैं धनदेवकी स्त्री तू धनदेवकी माता सो मेरी सासू भी है। इस प्रकार वेश्या छ नाते सुनकर चित्तमें विचारने लगी त्यो ही तहां धनदेव आया ताकों देखि कमला बोली कि तुम्हारे साथ भी मेरे छह नाते हैं सो सुनो-१ प्रथम तो तूं और मैं इसी वेश्याके उदर सों जुगल (उपजे सो मेरा भाई है-२ दूजे तेरा मेरा विवाह भया सो मेरा पति भी है-२ तीजे बसन्ततिलका मेरी माता ताका तू भरतार तातें मेरा पिता भी है-४ चौथे बरुण तेरा छोटा भाई सो मेरा काका भया ताका तू पिता सो काकाका पिता सो मेरा दादा भी भया-५ पांचव मैं बसन्ततिलकाकी सौति अरु तू मेरा सौतिनि पुत्र तातें तू मेरा भी पुत्र है-६ छ? तू मेरा भरतार तातें तेरी माता बसन्ततिलका मेरी सासु भई और सासू के तुम भरतार तातें मेरे ससुर भी भये ।
इस प्रकार एक ही जन्ममें :इन प्राणियोंके परस्पर अठारह नाते भये ताको उदाहरण (दृष्टांत) कहा कि इस भांति इस संसार की विचित्र विडंबना है इसमें कुछ सन्देह नहीं।
इस प्रकार अठारह नातेका व्योरा समाप्त । (३०) चौबीस तीर्थकरोंके चिन्ह । १ ऋषभनाथके बैल २ अजित नाथके हाथी ३ संभवनाथके घोड़ा ४ अभिनन्दन नाथके बन्दर ५ सुमति नाथके चकवा ६ पद्म प्रभके कमल ७ सुपार्श्वनाथके सांघिया ८ चन्द्रप्रभके चन्द्रमा ८ पुष्पदन्तके नाकू १० शीतलनाथके कल्पवृक्ष ११ श्रेयांसनाथ
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बारह चक्रवर्ती। के गेंडा १२ वासुपूज्यके भेसा १३ विमलनाथके सुअर १४ अनंत नाथके सेहो १५ धर्मनाथके बादण्ड १६ शान्तिनाथके हिरण १७ कुथनाथके बकरा १८ अरहनाथके मच्छी १८ मल्लिनायके कलश २० मुनिसुव्रतनाथके कछवा २१ नमिनाथके कमल २२ नेमिनाथके शंख २३ पार्श्वनाथके सर्प २४ महावीरके सिंह ।
(३१) बारह चक्रवर्ती। भरतचक्री, २ सगरचक्रो, ३ मघवाचको ४ सनत्कुमारवक्री ५ शान्तिनाथचक्री ( तीर्थंकर), ६ कुन्थनाथचक्री, ( तीर्थंकर ),७ अरनाथकी ( तीर्थंकर ), ८सभूमवक्री; ६ पदमचक्री वा महापदम १० हरिषेणचक्री, ११ जयचक्रो, १२ ब्रह्मदत्तवक्री।
(३२) नव नारायण । १ त्रिपृष्ट, २ द्विपृष्ट, ३ स्वयंभू, ४ पुरूषोत्तम, ५ पुरुषसिंह, ६ पुण्डरीक, ७ दत्त ८ लक्ष्मण, ८ कृष्ण ।
(३३) नव प्रतिनारायण । . १ अश्वग्रीव, २ तारक, ३ मेरक. ४ मधु (मधुकैटभ) ५ निशुभ, ६ बली, ७ प्रहलाद, ८ रावण, ८ जरासंघ ।
(३४) क्लभद्र १ अचल, २ विजय, ३ भद्र, ४ सुप्रभ ५ सुदर्शन, ६ आनंद, ७ नंदन (नंद), ८ पम (रामचन्द्र), ८ राम (बलभद्र)।
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जिमवाणी संग्रह।
(३५) नव नारद। १ भीम, २ महाभीम, ३ रुद्र, ४ महारुद, ५ काल, ६ महाकाल ७ दुर्मुख, ८ नरकमुख, ८ अधोमुख ।
१ भीमबली २ जितशत्रु ३ रुद्र ४ विश्वानल ५ सुप्रतिष्ट ६ अचल • पुण्डरीक ८ अजितधर, ८ जितनाभि, १० पीठ, ११ सात्यको
(३७) चौबीस कामदेव । १ बाहुबलो, २ अमिततेज,३ श्रीधर ४ दशभद्र,५ प्रसेनजिन्, ६ चंद्रवर्ण, ७ अग्निमुक्ति, ८ सनत्कुमार (चक्रवर्ती) ८ वत्सराज, १० कनकप्रभ, ११ सेधवर्ण, १२ शांतिनाथ (तीर्थकर), १३ कुथ नाथ (तीर्थंकर), १५ विजयराज, १६ श्रीचंद्र, १७ राजा नल, १८ हनुमान्, १८ बलराजा, २० वसुदेव, २१ प्रद्युम्न, २२ नागकुमार, २३ श्रीपाल, २४ ज बूस्वामी।
[३८] चौदह कुलकर
१ प्रतिश्रुति, २ सन्मति, ३ क्षेमंकर, ४ क्षेमंधर, ५ सीमंकर, ६ सीमधर, ७ विमलवाहन, ८ चक्षुष्मान ८ यशस्वी, १० अभिचंद्र. ११ कंद्राभ, १२ मरदेव, १३ प्रसेनजित् १४ नाभिराजा ।
(३६) बारह प्रसिद्ध पुरुष १ नाभि, २ श्रेयांस, ३ बाहुषली, ४ भरत, ५ रामचन्द्र, ६ मोट-तीर्थकर, चक्रर्ती, नारायण, प्रतिनारायण वलभद यह बेषठ सलाका पुरुष बहादे हैं तथा नारद, द, कामदेव, कुलकर, और तीर्थकरोंके मातापिता १६६ पुष्य पुरुष कहाते हैं।
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भविष्य की खौवीसी। हनुमान, सीता, ८ राषण, कृष्ण, १० महादेव, ११ भीम, १२ पाच नाथ।
(४०) विदेहक्षेत्रके २० विद्यमान तीर्थकर ।
१ सीमन्धर, २ युगमधर, ३ बाहु, ४ सुबाहु, ५ सुजात, ६ स्वयंप्रभ, ७ वृषभानन, ८ अनन्तवीर्य, सूरप्रभ, १० विशालकीर्ति, ११ बजधर, १२ चंद्रानन, १३ चन्द्रबाहु, १४ भुजंगम,१५ ईश्वर, १६ नेमप्रभ (नमि), १७ वोरसेन, १८ महाभद्र, १८ देवयश, २० अजितवार्य।
(४१) भूतकालकी चौबीसी १ श्रीनिर्वाण, ३ सागर, ३ महासिंधु, ४ विमलप्रभ,५ श्रीधर ६ सु दत्त, ७ अमलप्रभ, ८ उद्धर, 2 गिर, १० सन्मति, ११ सिधुनाथ, १२ कुसुमांजलि, १३ शिवगण, १४ उत्साह, १५ शानेश्वर, १६ परमेश्वर, १७ विमलेश्वर १८ यशोधर,१८ कृष्णमति,२० ज्ञानमति, २१ शुद्धमति, २२ श्रीभद्र, २३ अतिक्रांत,२४ शांति ।
४२ भविष्यकी चोवीसी । १ श्रीमहापा, २ सुरदेव, ३ सुपार्श्व, ४ स्वयंप्रभ, ५ स;त्मभू, ६ श्रीदेव, ७ कुलपुत्रदेव, ८ उदकदेव, ८ प्रोष्ठिलदेव, १० जयकीर्ति, ११ मुनिसुव्रत, १२ अरह ( अमम ) १३ निष्पाप, १४ निःकषाय, १५ विपुल, १६ निर्मल, १७ चित्रगुप्त, १८ समाधिगुप्त, १८ स्वयंभू, २० अनिवृत्त, २१ जयनाथ, २२ श्रीविमल.२३ देवपाल, २४ अनन्तवीर्य।
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जिनवाणो संग्रह।
(४३) गुणस्थान १ मिथ्यात्व, २ सासादन, ३ मिश्र, ४ अविरत सम्यक्त्व, ५ देशवत, 4 प्रमत्त, ७ अप्रमत्त, ८ अपूर्वकरण, ८ अनिवृत्तिकरण, १० सूक्ष्मसापराय, ११ उपशांतकषाय वा उपशांतमोह, १२ क्षीम कषाय वा क्षीणमोह, १३ संयोगकेवली, १४ अयोगकेवली ।
(४४) सोलहकारगा भावना १ दर्शनविशुद्धि, २ विनयसंपन्नता, ३ शीलवतेष्वनतिवार,४ अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, ५ संवेग, ६ शक्तिस्त्याग, ७ तप ८ साधुसमाधि, ८ वेय्यावृत्य, १० अर्हद्भक्ति, ११ आचार्यभक्ति, १२ बहुश्रु तभक्ति, १३ प्रववनभक्ति, ७४ आवश्यकपरिहाणी,१५ मा. . प्रभावना, १६ प्रवचनवात्सल्य ।
(४५)श्रावकोंके उत्तरगुण । १ लज्जावंत, २ दयावंत, ३ प्रसन्नता, ४ प्रतीतिवन्त, ५ पर. दोषाच्छादन, ६ परोपकारी, ७ सौम्यदृष्टि, ८ गुणग्राही, मिष्टवादी, १० दीर्घविचारी, ११ दानवंना १२ शोलवंत, १३ कृतज्ञ, १४ तत्वज्ञ, १५ धर्मश, १६ मिथ्यात्व रहित, १७ संतोषवंत १८ स्याद्वाद भाषी, १८ अभक्ष्यत्यागी, २० षटकर्मप्रवीण २१ ।
(४६) श्रावककी ५३ क्रिया।। ८ मूलगुण, १२ व्रत, १२ तप, १ समताभाव, ११ प्रतिमा, ४ दान, ३ रजत्रय, जल छाणन क्रिया, १ रात्रिभोजन त्याग और दिनमें अम्मादिक भोजन शोधकर खाना अर्थात् छानबीन कर देश भालकर खाना।
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श्रावक की ५३ किया।
श्रावकके ८ मूलगुण-५ उदबर । ३ मकार । १२ व्रत-५ अणुव्रत, ३ गुणवत, ४ शिक्षाप्रत ।
५ अगुणवत-१ अहिंसा अणुव्रत, २ सत्याणुवत, ३ परस्त्री त्याग अणुवत, ४ ( अचौर्य ) चोरी त्याग अणुवत, ५ परिग्रहप्रमाण अणुव्रत।
३ गुणवत-१ दिगवत २ देशवत, ३ अनर्थदंडत्याग।
४ शिक्षाबत-३ सामायिक, २ प्रोषधोपवास, ३ अतिथि-संविभाग, भोगोपभोगपरिमाण ।
.१२ तप आचार्यके ३६ गुणोंमें लिखे हैं। इनके भी वही नाम । श्राव कोंके अणुव्रत कम परीषहवाले।
११ प्रतिमा–दर्शनप्रतिमा, व्रत, सामायिक, प्रोषधोप वास, सवित्तत्याग, रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ त्याग, परिग्रहत्याग, अनुमति, त्याग, उहिष्ट त्याग।
चारदान-आहारदान, औषधदान, शास्त्रदान, अभयदान ३-रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यगज्ञान, सम्यक्चारित्र ।
दातारके २१ गुण-2 नवधाभक्ति, ७ गुण ५ आभूपण । यह २१ गुण दातारके हैं अर्थात् दान देनेवाले दातामें यह २१ गुण होने चाहिये।
नवधाभक्ति-पात्रको देख बलाना, उच्चासनपर बैठाना,
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जिनवाणी संग्रह। चरण धोना, वरणोदक मस्तकपर चढ़ाना, पूजा करना, मन शुद्ध रखना, विनयरूप बोलना, शरीर शुद्ध रखना शुद्ध आहार देना।
दातारके सात गुण-श्रद्धावान्, शक्तिवान्, अलोभी, दयावान्, भक्तिवान्, क्षमावान् और विवेकवान् ।।
दाताके पांच भूषण-आनन्दपूर्वक देवे, आदरपूर्वक देवे प्रिय वचन कहकर देवे, निर्मल भाव रखे, जन्म सफल माने ।
दाताके पांच दूषण-बिलम्बसे देवे, विमुख होकर देवे, दुर्वचन कहकर देवे, निरादर करके देवे, देकर पछतावे । (४७) ग्यारह प्रतिमाओंका सामान्य स्वरूप ।
प्रणम पंच परमेष्टि पद, जिन आगम अनुसार, श्रावकप्रतिमा एक दश, कटु भविजन हितकार ॥ १ ॥ सवैया ३१ ॥ श्रद्धाकर व्रत पाले सामयिक दोष टाले, पौसौ मांठ सचित कौं त्यागेंलों घटायक रात्रिभुक्त परिहरै, ब्रह्मचर्य नित धरै, आरम्भको त्याग करै मन बच कायके। परिग्रह काज टारे अघ अनुमत छारें, खनिमित कृत टारे असत बनायकै। सब एकादश येह प्रतिमा जु शर्म गेह, धारै देशवती उर हरष बढ़ायके ।
दशन पतिमा अष्ट मूलगुण संग्रह कर, विशुन अभक्ष्य सबै परिहरे ॥ युत अष्टांग शुद्ध सम्यक्त, धरहिं प्रतिक्षा दरशन रक्त ॥ १ ॥
व्रत पतिमा स्वरूप अणुवतपन अतिचार विहीन, धारह जो पुन गुणवत तीन, शिक्षाप्रत संजुत जो सोय; व्रत प्रतिमा पर श्रावक होय ॥२॥
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ग्यारह प्रतिमा स्वरूप।
सामायक पतिमा स्वरूप-गोतका छंद-सब जियन में समभाव धर शुभ भावना संयममहीं, दुरध्यान आरत रौद्र तज कर त्रिविध काल प्रमाणहीं। परमेष्ठि पन जिन वचन निज बृष बिम्ब जिन जिनग्रह तनी, बंदन त्रिकाल करह सुजानहु भव्य सामायक धनो ॥ ३॥
पोषध प्रतिमा स्वरूप- ( पद्धरी छंदवर मध्यम जघन्य त्रिविध धरेय, प्रोषध विधि युत निजबल प्रमेय, प्रति मास चार पत्रो मझार, जानष्टु लो प्रोषध नियम धार ॥४॥
सचित्तत्याग पतिमा स्वरूप-चौपाईजो परि हरे हरी सब चीज, पत्र प्रवाल-कंद फल-बीज, अरु अप्रासुक जल भी सोय, सचित्त त्याग प्रतिमा धर होय
रात्रिभुक्तत्याग पतिमा स्वरूप-अडिल्ल छन्दमन बच तन कृत कारित अनुमोदै सही, नवविध मैथुन दिवस माहिं जो बर्ज हो । अरु चतुबिध आहार निशा माहो तजै. रात्रिभुक्ति परित्याग प्रतिमा सो सजे ॥६॥
ब्रह्मचर्यप्रतिमा स्वरूप-चौपाईपूर्व उक्त मैथुन नव भेद, सब प्रकार तज निरस्नेय, नारि कथादिक भी परिहरे ब्रह्मचर्य प्रतिमा सो धरे ॥ ७ ॥
आरंभ त्याग प्रतिमा स्वरूप-चौपाईजो फछु अल्प बहुत अघ काज, ग्रह सबंधी सो सब त्याज, निरारम्भ व्हे वृष रत रहै, सो जिय अष्टमो प्रतिमा वहै ॥८॥
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जिनवाणी संग्रह। परिग्रहत्याग प्रतिमा स्वरूप-चौपाई बस्त्र मात्र रख परिग्रह अन्य, त्याग कर जो व्रतसंपन्न, तापे पुनः मूर्छा परहरै, नवमी प्रतिमा सो भवि धरै ॥८॥
अनुमतत्याग प्रतिमा स्वरूप-चौपाई जो प्रमाण अघमय उपदेश, देय नहीं परको लवलेस, ॥ अरु तसु अनुमोदन भी तजे, सोही दशमी प्रतिमा सजे ॥१०॥
उद्दिष्टत्याग प्रतिमास्वरूप-चौपाईग्यारम थान भेद हैं दोय, इक छुल्लक इक ऐलक सोय, खण्ड वस्त्रधर प्रथम सुजान, युत कोपीनहि दुतिय प्रछान॥११॥ ए ग्रह त्याग मुनिन ढिग रहैं, वा मठ, मन्दिर में निवसहै, उत्तर उदण्ड उचित आहार, करहिं शुद्ध अंत्रायन बार ॥ दोहा-इम सय प्रतिमा एकदश दौल देशव्रत यान,
ग्रह अनुक्रम मूल सह, पाले भवि सुखदान ॥
(४८) श्रावकोंके १७ नियम । १ भोजन,२ अवित बस्तु, ३ गृह, ४ संग्राम, ५ दिशागमन, ६ औषधिविलेपन,७ तांबल,८ पुष्षसुगन्ध, ८ नाच, १० गीतश्रवण ११ स्नान, १२ ब्रह्मचर्य, १३ आभूषण, १४ वस्त्र १५ शय्या, १६ औषध खानी, १७ घोड़ा बैंलादिककी सवारी* ॐ नोट-प्रतिदिन जिम २ चीजोंकी जरूरत हो उसका प्रमाद करे कि भाज यह कहंगा; शेषका प्रतिदिन त्याग करे।
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लघु मभिषेक पाठ।
३१३ (४६)सात व्यसनका त्याग। जूवा, मांस, मदिरा, गणिका, शिकार चोरी परस्त्री।
(५०) बाईस अभक्ष्यका त्याग । पांच उदम्बर-१ उदम्बर (गूलर ), २ कटूम्बर, ३ बड़फल, ४ पीपलफल, ५ पाकर फल ( पिलखन फल )।
तीन मकार-१ मांस, २ मधु, ३ मदिरा ।
शेष १४ अभक्ष्य-ओला, विदल, रात्रि भोजन, बबीजा, बैंगन, कन्दमूल, बगैर जाना फल, अचार, विष, माटी, बरफ, तुच्छ फल, चलित रस, मास्नन ।
(५१) श्रावकके षट कर्म । देव पूजा, गुरुसेवा, स्वध्याय, संयम, तप, दान यह छह कर्म प्रत्येक श्रावकको करना चाहिये ।
(५२) दशलक्षण धर्म। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन, ब्रह्मचर्य।
(५३) लघु अभिषेक पाठ । श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवन्यजगत्रयेशं स्याद्वादनायकमनन्तचतुष्टयार्हम् । श्रीमूलस'धसुद्शां सुकृत कहेतु जैनेंद्रयाविधिरेष महाभ्यधायि ।।
(इस श्लोकको पढ़कर जिनचरणों में पुष्पांजलि छोड़नो चाहिये) श्रीमन्मन्दरसुन्दरे शुचिजलधौते सदर्भाक्षतः
पीठेमुत्तिकरनिधाय, रवित स्थपादपास्त्रजः इन्द्रोऽहनिजभूषणार्थकमिदं यज्ञोपवीतं दधे ।
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जिनवाणी संग्रह। , मुद्राकङ्कणशेखरान्यपि तथा जैनाभिषकोत्सवे ॥ (इस श्लोकको पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको यज्ञोपवीत तथा नाना प्रकारके सुन्दर आभूषण धारण करना चाहिये।) सौगन्धसगतमधुव्रतक्षकृतेन, सौवर्ण्यमानमिव गंधमनिंद्यमादौ। आरोपयामि बिबुधेश्वरवृन्दवन्द्य पादारविन्दमभिवन्ध जिनोत्तमानां इसे पढ़कर अभिषेक करनेवालोंको अङ्गमें चन्दनके नवतिलक करना चाहिये।
ये सन्ति केचिदिह दिव्यकुलप्रसूता नागाः प्रभूतबलदपयुता विबोधाः। संरक्षणार्थममृतेन शुभेन तेषां प्रक्षालयामि पुरत: स्नपनस्य भूमिम् ॥
। इसको पढ़कर अभिषकके लिये भूमिका प्रक्षालन करे ) क्षीरार्णवस्य पयसां शुचिभि: प्रवाहै:, प्रक्षालितं सुखरैयदनेकवारम् । अत्युद्यमुद्यतमहं जिनपादपीठं प्रक्षालयामि भवसंभव तापहारि ॥ (जिस सिंहासन पर विराजमान करके अभिषेक करना हो उसका प्रज्ञालन को श्रीशारदासुमुखनिर्गतवाजवणं श्रीमङ्गलोकवरसर्बजनस्य नित्यं । श्रीमत्स्वयं क्षयतयस्य विनाशविघ्न श्रीकारवर्ण लिखितं जिनभद्रपीठे।
(इस श्लोकको पढ़कर पीठपर श्रीकार लिखना चाहिये ।) इन्द्राग्निदंडधरने तपाशपाणि वायूत्तरेशशशिमौलिफणीन्द्र चन्द्राः । आगत्य यूयमिहसानुचरा: सचिन्हा: स्वं स्वं प्रतीच्छत बलि जिनपाभिषेके॥ (मीचे लिखे मंत्रोंको पढ़कर क्रमसे दश दिकपालोंके लि' अर्घ चढ़ानो)
१ ॐ माँ को ही इन्द्र मागच्छ आगच्छ इन्द्राय स्वाहा।
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श्रीमुनि शांतिसागर जी
Av
श्रीमुनि सूर्यसागरजो
श्रीमुनि अनंतसागरजी
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देवशाल गुरुकी भाषा पूजा। इह मांति दीप प्रजाल कंजनके सुभाजनमा० । दोहा-स्वपर प्रकाशक जोति अति, दीपक तमकरि हीन ।
जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुम्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥ जो कर्म-ईधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसे। घर धूप तासु सुगन्धिताकरि सकल परिमलता हसे ॥
इह भाँति धूप चढ़ाय नित भवज्वलनमांहीं नहिं पा दोहा-अग्निमाहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलोन ।
जासों पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ७॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं ॥ . लोचन सुरसना प्राण उर, उत्साहके करतार हैं। मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फलगुणसार हैं।
सो फल चढ़ावत अर्थ पूरन, परम अम्रतरस स ॥०॥ दोहा-जे प्रधान फल फलवि, पंचकरण-रसलीन ।
जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तोन ॥८॥ ॐ ह्रीं देवाशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं॥ जल परम उज्जवल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरू। वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमके पातक हरू ।
इहभांति अर्घ चढ़ाय नित भवि,करत शिवपङ्कति मा . दोहा-सुविधि अर्ध सँजोयके, अति उछाह मन कीन ।
जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ८ ॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघेपदप्राप्तये अश्यं ॥
प्रय जयमाला देवशालगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
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३२२
जिनवाणी संग्रह। भिन्न भिन्न कहु आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥
चऊकर्मकी सठ प्रकृति नाशि । जीते अष्टादशदोषराशि । जे परम सगुण हैं अनंत धीर ।कहवतकेछयालिस गुण गंभीर ॥२
शुभ समवशरणशोभा अपार!शत इन्द्र नमत कर शीस धार देवाधिदेव अरहंत देव । बन्दो मनवचतन करि सु सेव ॥३॥
जिनकी धुनि है ओंकाररूप। निरक्षरमय महिमा अनूप । दश अष्ट महा भाषा समेत । लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥
सो स्यादवादमय सप्त भङ्ग । गणधर गूथे बारह सुअङ्ग। रविशशि न हरै सो तम हराय। सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय।
गुरु आचारज उवझाय साधु । तन नगन सनत्रय निधि अगाध। संसारदेह बैराग धार । निरवांक्षि तर्फे शिवपद निहार ॥ ६ ॥
गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस । भवतारन तरन जिहाज ईस गुरुकी महिमा वरनी न जाय । गुरु नाम जपों मन बचनकाय ॥७॥ सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै ।
'द्यानत' सरधावान, अजर अमर पद भोगवै ॥८॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महायं निर्बपामीति स्वाहा ।
(५६) बासतीथं कर पूजा भाषा। द्वीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा कर मनवच तन धरि शीस ॥१॥ ॐ ह्रीं विद्यमानबिंशतितीर्थंकरा! अत्र अवतर अतवर ।
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सनिहितो भव भव । वषट् । इन्द्रफणींद्रनरेद्रबन्ध, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी।
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सतीर्थंकर
पूजा भाषा ।
क्षीरोदधिसम नीरसों (हो) पूजों तृषा निवार ॥ सीमन्धर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ॥ श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जिहाज ॥ १ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो जन्ममृत्युविनाशनाय जलं ॥ (इस पूजा में यदि वीस पुअ करना हो तो इस प्रकार मन्त्र बोलना चाहिये | )
ॐ ह्रीं सीमन्धरयुग्मंधर- बाहु-सुबाहु सुजात स्वयंप्रभ-ऋषभानन अनन्तवीर्य्य-सूरप्रभ- विशालकीर्ति- बज्रधर-चन्द्रानन- चन्द्रबाहुभुजगम-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरषेण-महाभद्र-देवयशाऽजितवीर्य्येतिविप्रतिविद्यमानतीर्थंकरोभ्यो जन्ममृत्युविनाशाय जलं ॥ १ ॥
तीन लोकके जीव, पाप आताप सताये । तिनकों साता दाता, शीतल वचन सुहाये ॥ बावन चन्दनसों जजू (३), भ्रमन तपन निरवार | सीमं ॥ २ ॥
ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थं करेभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं ॥
३२३
यह संसार अपार, महासागर जिनस्वामी !
तातें तारे बड़ी भक्ति-नौका जग नामी ॥ तंदुल अमल सुगंधसों (हो) पूजों तुम गुणसार । सीमं० ॥३॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यो अक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् ॥ भविक - सरोज- विकाश, निद्यतमहर रविसे हो । जतिश्रावक आचार कथनको, तुम्ही बड़ेहो ॥
फूलसुवास अनेकसों (हो), पूजों मदन प्रहार | सोमं० ॥४॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो कामवाण विध्वंसनायपुष्पं ॥ कामनाग विषधाम, नाशको गरुड़ कहे हो ।
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३२४
जिनवाणी संग्रह। क्षुधा महादवज्वाल, तासुको मेघ लहे हो। नेवज बघत मिष्टसों (हो), पूजों भूख घिडार । सीम० ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो झुधारोगविनाशनायनैवेद्य ॥
उद्यम होन न देत, सबै जगमाहिं भलो हैं।
मोह महातम घोर, नाश परकाश कसो है ॥ पूजों दीप प्रकाशसों (हो) ज्ञानज्योतिकरतार । सीमं० ॥ ६ ॥ ॐ ह्रीं विधमानविंशतितीर्थ करेभ्योः मोहान्धकारविनाशनायनैवेद्य
कर्म आठ सब काठ,-भार विस्तार निहारा।
ध्यान अगनि कर प्रगट, सरब कीनों निरवारा ॥ धूप अनुपम खेबतें (हो), दुःख जले निरधार । सीमं ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरभ्योऽष्टकर्मविध्वंसनाय, धूपंनि०॥ मिथ्यावादी दुष्ट, लोभऽहंकार भरे हैं। सबको छिनमें जीत, जैनके मेर खरे हैं।
फल अति उत्तमसों जजों (हो), वांछित फल दातार सी०॥८॥ ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थ करेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फल।
जल फल आठों दर्ष, अरघ कर प्रीत धरी हैं।। गणधर इन्द्रनिहतै, थुति पूरी न करी हैं। 'धानत' सेवक जानके (हो), जगते लेहु निकार । सीम०॥८॥ ॐ ह्रीं विद्यमानबिंशतितीर्थ करेभ्योऽनर्ध पदप्राप्तये अर्धनि०
अथ जयमाला भारतो। सोरठा-ज्ञानसुधाकर चन्द, भविकखेतहित मेघ हो ।
भ्रमतमभान अमन्द, तिथं कर बीसों नमों ॥ १ ॥ सीमन्धर सीमन्धर स्वामी । जुगमन्धर जुगमंधर नामी।
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सोलह कारण पूजा।
(६३) सोलह कारण पूजा अडिल्ल-सोलहकारण माय तीर्थ कर जे भये। हरषे इन्द्र अपार मेरूपै ले गये ॥ पूजा करि निज धन्य लख्यौ बहु वावसौं । हमहू षोड़शकारण भावें भावसों ॥१॥
ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोड़शकारणानि ! अत्रावतरअवतर। संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। अत्र मम सन्निहितोभव भव वषट् । चौपाई-कंचनझारी निरमल नीर । पूजौं जिनवर गुणगंभीर ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दर्शविशुद्धि भावना भाय। सोलह तीर्थकर पदपाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ १ ॥ ॐ हीं दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यो जन्ममृत्युविनाशाय जलं।
चंदन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्रीजिनवरके पाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्श ॥२॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः चन्दनं ।
तन्दुल धवल सुगन्ध अनूप, । पूजौं जिनवर तिहु जगभूप।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शवि० ॥३॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ।
फूल सुगन्ध मधुपगुजार। पूजौं जिनवर जगदाधार । परमगुरु हो जय जय नाथ परमगुरु हो ॥४॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः कामवण विध्वंसनायपुष्पं॥
सदनेवज बहुविध पकवान। पूजौं श्रीजिनवर गुणखान परमगुरु हो, जब जब नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शवि० ॥ ५ ॥
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जिनवाणी संग्रह। ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयाविषोडशकारणेभ्यक्ष धारोगविनाशनायनैवेद्य दीपकजोति तिमर छयकार । पूजू श्रोजिन केवलधार ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्शवि० ।। ६ ।। ॐहीं दर्शन विशुद्धयादिषोडशकाणेभ्यो मोहांधकारविनाशायदोपं ॥
अगर कपूर गन्ध शुभ खेय। श्रोजिनवर आगे महकेय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्श० ॥ ७ ॥ ओं ही दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपं ॥ श्रीफल आदि बहुत फलसार। पूजों जिन बांछितदातार ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो।। दर्शवि० ८॥ ओं ह्रीं दर्शन विशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यो मोक्षफलप्रातायेफलं जल फल आठों दरव चढ़ाय । 'द्यानत' वरत करों मनलाय । परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो । दर्श० ॥ ८ ॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्योऽनयंपदप्राप्तये अयं ॥
अथ जयमाला। दोहा-षोड़शकारण गुण को, हरै चतुरगतिवास । पाप पुण्य सब नाशक, ज्ञान भान परकास ॥१॥
चौपाई १६ मात्रा । दर्शविशुद्ध धरै जो कोई । ताको आवागमन न होई ।। विनय महा धार जो प्रानी । शिवबनिताकी सखो बखानी ।२। शील सदा दिढ़ जो नर पालें । सो ओरनकी आपद टालें । ज्ञानाभ्यास कर मनमाहीं। ताक मोहमहातम नाहीं ॥ ३ ॥ जो संवेगभाव विस्तारै । सुरगमुकतिपद आप निहारे ।। दान देय मन हरष विशेखे । इह भव जस परभवसुनदेखे ।।४।।
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दशलक्षण धर्म पूजा।
३३५ जो तप तपै व अभिलाषा। चूरै करमशिखर गुरु भाषा ॥ साधुसमाधि सदा मन लावै । तिह जगभोग भोगि शिव जावे ॥५॥ निशदिन बयावृत्य करैया । सो निह भवनीर तिरैया ॥ जो अरिहन्तभगति मन आनै । सो जन विषय कषाय न जाने ॥६॥ जो आचारजभगति कर है। सो निर्मल आचार धरै हैं । बहुश्रु तबतभगति जो करई। सो नर सम्पूरण श्रुत धरई ॥८॥ प्रवचनभगति करे जो ज्ञाता। लहैं ज्ञान परमानंद दाता ॥ पट्आवश्य काल जो साधै । सो ही रतनत्रय आराधै ८ ॥ धरमप्रभाव करें जे ज्ञानी। तिन शिवमारग रीति पिछानो॥ बात्सलअङ्ग सदा जो ध्यावे । सो तीर्थंकर पदवी पावै ॥ ८ ॥ दोहा-एही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय ।
देवइन्द्रनरवन्धपद, 'द्यानत' शिवपद होय ॥ १० ॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्य: पूर्णाऱ्या निर्बपामि ॥ (६४) अथ दशलक्षणधर्मपूजा।
अडिल्ल-उत्तम क्षिमा मारदव आरजव भाव हैं । सत्य शौच सञ्जम तप त्याग उपाव हैं ॥ आकिञ्चन ब्रह्मवरज धरम दश सार हैं । वहुँ गतिदुखतें काढ़ि मुकत करतार हैं ॥ १ ॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्रावतर अवतर! संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । बषट् ।
सोरठा-हेमाचलकी धार, मुनिचित सम शीतल सुरभ । भवआताप निवार, दश लच्छन पूजों सदा ॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधमांय जल' निर्वपामि ॥१॥
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जिनवाणी संग्रह।
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा । भवआ० ॥ ओं ह्रीं उत्तमादिदशलक्षणधर्माय चन्दन निर्बपामि ॥ २॥ अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ ॥ भवआ० ॥
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षतान निर्यपामि ॥३॥ फूल अनेक प्रकार, महके ऊरधलोक लो । भबआ० ॥
ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय पुष्पं निर्वपामि ॥ ४ ॥ नेबज विविध प्रकार. उत्तम पटरससंजुतं ॥ भवआ०॥ ____ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय नैवेद्य निर्वपामि ।। बाति कपूर सुधार, दीपकजोति सुहावनी ॥ भवआ० ॥ ६ ॥ ____ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय दीप निर्यपामि ॥ ६ ॥ अगर धूप विस्तार, फेले सर्व सुगन्धता ॥ भवा० ॥ ७ ॥
ओ ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय धूपं निर्व पामि ॥ ६ ॥ फलकी जाति अपार, घ्राण नयन मनमोहने ॥ भवआ० ॥८॥
____ओ ह्रीं उत्समक्षमादिदशलक्षणधर्माय फलं निर्वपामि ॥ ८ ॥ आठों दरब संभार' 'द्यामत' अधिक उछाह सों ॥ भवा० ॥६॥ ओं ह्रीं उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्मायार्घ्य निर्व पामि ॥ ८ ॥
अंग पूजा। सोरठा-पीडै दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें। धरिये क्षिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ॥ १ ॥
चौपाई मिश्रित गीताछन्द । उत्तम छिमा गहो रे माई । इहभव जस परभव सुखदाई ॥ गाली सुनि मन खेद न आनो । गुनको भौगुन कहै अयानो॥ कहि है अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करे। घरतें
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दशलक्षण पूजा।
निकारै तन विदार, बैर जो न तहां धरै ।। जे करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नाहं जीयरा। अति क्रोध अगनि बुझाय प्रानी, साम्य जल ले सोयरा॥
ओं ह्रीं उत्तमक्षमाधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ मान महाविषरूप करहि नीचगति जगत में । कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ॥२॥ उत्तम मादेवगुन मन माना। मान करनको कौन ठिकाना || वस्यो निगोदमाहिं तें आया। दमरी रूकन भाग विकाया ।। रूकन विकाया भागवशते, देव इकान्द्री भया। उत्तम मुआ वण्डाल हुआ, भूप कीड़ोंमें गया। जीतव्य जोबन धनगुमान, चहा कर जलबुदबुदा । करि विनय बहुगुन बड़े जनकी, शानका पावै उदा।।
ओं ह्रीं उत्तममादेवधर्माङ्गाय अयं निवपामीति स्वाहा ॥२॥ कपट न कीजै कोय, चोरनके पुर ना बसे । सरल सुभावो होय ताके घर बहु सम्पदा ॥३॥ उत्तमआर्जव रीति बखानी । रंचक दगा बहुत दुखदानी ॥ मनमें हो सो बचन उवरिये। बचन होय सो तनसौं करिये ॥ करिये सरल तिहुँ जोग अपने,देख निमल आरसी मुख कर जैसा लम्बे तैसा, कपट प्रीति अँगारसी ॥ नहि लहै लछमी अधिक छलकरि, करमबंध विसेखता। भय त्यागि दूध बिलाव पीवे, आपदा नहिं देखता। ___ओं ही उत्तमानवधर्माङ्गाय अभ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ धरि हिरद सन्तोष, करहु तपस्या देहसों। शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसारमें | उत्तम शौच सर्व जग जाना । लोभ पाएको पाप जाना | मासाफांस महा दुखदानी । सुख पावे सन्तोषी
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जिनवाणी संग्रह। इहभव विभववाह दुखदानी । परभवभोग सहै मत प्रानी ॥ प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरमगुरुप्रभु परखिये। परदोष दकिये धरम डिगतेको सुथिर कर हरखिये। चहुसंघको वात्सल्य कीजे, धरमकी परभावना ।
गुन आठसों गुन आठ लहिके, इहां फेर न आवना ॥२॥
ओं ह्रीं अष्टाङ्गसहितपञ्चविंशतिदोषरहिताय सम्यग्दर्शनाय पूर्णाध्यं निर्बपामीति स्वाहा ॥२॥
(६८) ज्ञानपूजा। दोहा-पंचभैद जाके प्रगट, शेयप्रकाशन भान ।
मोह तपन हर चन्द्रमा, सोई सग्यकशान ॥१॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र अवतर अवतर । सगौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । गषट सोरठा-नीर सुगन्ध अपार, त्रिषा हरे मल छय करै ।
सम्यकज्ञान विचार; आठ भेद पूजौं सदा ॥१॥
ओं हीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ जलकेसर धनसार, ताप हरे शीतल करै । सम्यकज्ञा० ॥२॥
ओं ही अष्टनिधासम्यग्ज्ञानाय चंदनं निपामीति स्वाहा ॥२॥ अछत अनुप निहार, दारिद नाशे सुख भरै । सम्यग्ज्ञा० ॥३॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ॥३॥ पहुपसुवास उदार, खेद हरे मन शुचि करे । सम्यकशा० ॥४॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पुष्पं निर्व पामीति स्वाहा ॥४॥ जेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करे । सम्यकशा० ॥५॥
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय नैवेद्य निर्व पामीति खाहा ॥५॥
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ज्ञानपूजा ।
दीपज्योतितमहार, घटपट परकाशे महा । सम्यक्षा० ॥६॥ ओ ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ॥६॥ धपधानसुखकार, रोग विधन जड़ता हरे । सम्यकशा० ||७||
ओं ही अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ॥१॥ श्रीफल आदि विचार निहचे सुरशिवफल करे | सम्यकशा० ||८|| आँ ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय फलं निर्वपामीमि स्वाहा० ॥ ८ ॥ ज गंधाक्षत चारु, दीप धूप फल फूल चरु । सम्यकशा० ॥ ॥ ओं ह्रीं अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ॥८॥
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अथ जयमाला
दोहा - आप आप जान नियत, प्रथपठन व्योहार ।
संशय विभ्रम मोह विन, अष्टअङ्ग गुनकार ॥१॥
चौपाई मिश्रित गीताछन्द
I
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सम्यकज्ञान रतन मन भाया । आगम तीजा नैन बताया । अक्षर शुद्ध अरथ पहिचानौ । अच्छर अरथ उभय संग जानौ जानौं सुकालपठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइये । तपरीति गहि बहु मान देकेँ, विनयगुन चित लाइये ॥ ए आठ भेद करम उछेदक, ज्ञानदर्पन देखना ।
इस ज्ञानहीसों भरत सीझा, और सब पटपेखना ॥ ३॥ ओं ह्रीं अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय पूर्णार्थं निर्वपामीति स्वाहा |२| ( ६ ) चारित्र पूजा ।
विषयरोग औषध महा, दवकषायजलधार । तीर्थंकर जाक धरें, सम्यकचारितसार ॥१॥
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जिनवाणी संग्रह। ओं हीं त्रयोदशविधसम्यकचारित्र ! अत्र अवतर अवतर। संघी षट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ।उ: :। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सोरठा-नीर सुगंध अपार, त्रिषा हरे भल छय करें। ____ सम्यकचारित्र सार, तेरहविधि पूजौं सदा ॥१॥
ओं ही त्रयोदशविधसम्यकचारित्राय जलं निर्वपामि । जल केसर घनसार, ताप हरे शोतल करे। सम्यकचा० ॥२॥ओं ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय चंदन निर्वामीति स्वाहा । अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरे। सम्यकचा० ॥३॥ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । पुहपसु वास उदार, खेद हरै मन शुचि करै । सम्यकचा०॥४॥ओं ह्रीं त्रयो दशविधसम्यकवारित्राय पुष्पं निवेपामीति स्वाहा । नेवज विविध प्रकार, क्षुधा हरे थिरता करे । सम्यक ॥५॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय नैवेद्य निर्वपामोति स्वाहा । दीपज्योति तमहार, घटपट परकाशे महा । सम्यकचा० ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविध सम्यक् चारित्राय दीपं निर्वपामि । धूप घान सुखकार, रोग विधन जड़ता हर । सम्यकवा० ॥ ७॥ ओं ह्रीं प्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा । श्रीफलआदि विथार, निह सुरशिवफल करै । सम्यकचा० ॥८॥ ओं ह्रीं त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा । जल गंधाक्षत चारु दीप धूप फल फूल वरु । सम्यकवा० ॥८॥ ओं ही त्रयोदशविधसम्यक्चारित्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला। आप आप थिर नियत नय, तपसजम व्योहार । स्वपर दया दोनों लिये, सेरहविध दुखहार ॥१॥
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चारित्र पूजा।
चौपाई मिभित गोता छंद । सम्यकवारित रतन सँभालो। पांच पाप तजिकै व्रत पालो। पंचसमिति प्रय गुपति गही। नरभव सफल करहु तन छोजे। छीजें सदा तनकों जतन यह एक संजम पालिये। बहु रूल्यो नरकनिगोदमाहीं, कषायविषयनि टालिये ॥ शुभ करमजोग सुघाट आया पार हो दिन जात है । 'धानत' धरमकी नाव बैठो, शिवपुरी कुशलात है ॥ २ ॥ ओं ही प्रयोदशबिधिसम्यक्चारित्राय महायं ।
अथ समुच्चय जयमाला। दोहा-सम्यकदरशन ज्ञान प्रत, इन बिन मुकत न होय । अंध पंगु अरु आलसी, जुदे जले दव लोय ॥१॥
चौपाई १६ मात्रा। तापै ध्यान सुथिर बन आवै । ताके फरम बंध कट जाये।। . तासों शिवतिय प्रीति बढ़ावे। जो सम्त्रकरतनत्रय ध्यावे ॥२॥ ताकों बहुगतिके दुख नाहीं । सो न परे भवसागरमांहीं ॥ जनमजरामृतु दोष मिटावे । जो सम्यकरतनश्रय ध्यावे ॥३॥ सोई दशलच्छनको साधै। सो सोलहकारण आराधे ॥ सो परमातम पद उपजाये । जो सम्यकरतनत्रय ध्यावे ॥४॥ सोई शक्रवक्र पदलेई । तीनलोकके सुख विलसेई ॥ सो रागादिक भाव बहावै । जो सम्य करतनत्रय ध्यावे ॥५॥ सोई लोकालोक निहारे । परमानंददशा वि सतारे। आप तिरे औरन तिरवाय। जो सम्यकरतनत्रय ध्याच॥६॥ दोहा-एकस्वरूपप्रकाश निज, पवन कहो नहिं जाय ।
तीन भेद व्योहार सब, धानतको सुखदाय ॥७॥ नों ही सम्यप्रनत्रयाय महाय निर्वापामीति स्वाहा।
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जिनवाणी संग्रह।
(७०) श्रीनन्दाइकर पूजा।
अडिल्ल-सरब परबमें बड़ो अठाई परव है। नंदीश्वर सुर जाहिं लेय वसु दरब है । हमें सकति सो नाहिं इहां करि थापना । पूजों जिनगृह प्रतिमा है हित आपना ॥१॥
ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्धोपेद्विपंचाशजिनालयलजिनप्रतिमासमूह । अत्र अवतर अवतर । संवौषट्, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। अत्र मम सनिहितो भव भव । वषट् ।
कंचनमणिमय भृगार, तीरथनीरभरा। तिधार दयो निरवार, जामन मरन जरा । नंदीश्वर श्रीजिनधाम, बावन पुंज करों। वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनदभाव धरों ॥१॥
ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्धीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे द्विपञ्चासजिनालयस्थजिनप्रतिमाभ्यो (इतना मंत्र प्रत्येक अष्टकके अंतमें बोलना चाहिये) जन्मजरागृत्युविनाशनाय जलं निर्मपामोति स्वाहा ॥१॥
भवतपहर शोतलवास, सो चंदननाहीं। प्रभु यह गुन कीजे सांच, आयो तुम ठाहीं ॥नंदी०॥
ओ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे भवाताप विनाशनाय चंदनं ॥२॥ उत्तम अक्षत जिनराज, पुज धरे सोहें। सब जीते अक्षसमाज; तुम सम अरुको हैं ॥ नंदी० ॥
ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ॥३॥ तुम कामविनाशक देव, ध्याऊं फूलनसौं । लहिं शील लच्छमी एव, छूटें सूलनसौं भनंदी०॥
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मदीश्वर पूजा। ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे कामयाण विध्वंसनाय पुष्पं ॥४॥ नेवज इन्द्रियबलकार, सो तुमने चूरा। चरु तुम ढिग सोहै सार, अचरज है पूरा आनन्दी॥ __ओं ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्य ॥५॥ दीपककी ज्योति प्रकाश, तुम तनमांहिं लसै॥ टूट करमनकी राश, शानकणी दरसे ॥ नन्दी० ॥ ___ओं ह्रीं श्री नंदीश्वर द्वीपे मोहान्धकार विनाशनाय दीपं ॥६॥ कृष्णागरुधूपसुवास दशदिशिनारि वर । अति हरषभाव परफाश, मानों नृत्य करें ॥ नन्दी० ॥
ॐ ह्रीं श्रीन दीश्वरद्वीपे अष्टकर्मदहनाय धूपं ॥७॥ बहुबिधफल ले तिहुंकाल, आनद रावत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल, तो हम जावत हैं ॥ नन्दी० ॥
ॐ ह्रीं श्रीनन्दीश्वरद्वीपे मोक्षफलप्राप्तये फल ॥८॥ यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपत हों। 'द्यानत' कीनो, शिवखेत, भूप समरपत हों। ॐ ह्रीं श्रीन दीश्वरद्वीपे अनर्घ्यपदप्राप्तये अभ्यं ॥2॥
। अथ जयमाला। दोहा-कार्तिक फागुन साढ़के, मत आठ दिनमाहि । - नदीसुर सुर जात हैं, हम पूजे इह ठाहि ॥ १॥ एकसौ सठ कोड़ि जोजनमहा। लाख चौरासिया एक दिशमें लहा ॥ आठमों द्वीपे नंदीश्वरं भास्वर'। भौन बावन्न प्रतिमा नमो सुखकर ॥ २॥ चारदिशि वार अंजनगिरी राजहीं। सहस चौरासिया एकदिश छाजहीं। दोलसम गोल अपर तले सुदर।
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जिनवाणी संग्रह |
भोन ० ० ॥ ३ ॥ एक इक बार दिशि चार शुभ बावरी । एक इक लाख जोजन अमल जलभरी ॥ बहु दिशा चार वन लाखजोजन वर ॥ भौन० ० ॥ ४ ॥ सोल वापीनमधि सोल गिरि दधिमुखं । सहस दश महा जोजन लखत ही सुख ॥ यावरीकोंन दो माहि दो रतिकर | भौन० ॥ ५ ॥ शैल बत्तीस इक सहस जोजन कहे । चार सोले मिले सर्व बावन लहे | एक इक सीसपर एक जिनमंदिर | भौन० ॥ ६ ॥ बिंव अट एकसौ रतनमई सोह ही । देवदेवी सरव नयनमन मोह ही ॥ पांचसे धनुष तन पद्मआसनपर । भौन ० ० ॥ ७ ॥ लाल नख मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं । स्यामरंग मोह सिर केश छबि देत हैं । वचन बोलत मनो हंसत कालुषहर ॥ भौन० ० ८ ॥ कोटशशि भानदुति तेज छिप जात है । महावैराग परिणाम ठहरात है । बयन नहिं कहें लखि होत सम्यकघर | भौन० ॥ ८ ॥
सोरठा - नदीवर जिनधाम, प्रतिमा महिमाको कहे ॥ 'द्यानत' लोनों नाम, यही भगति सब सुख करै ॥ १० ॥
ॐ ह्रीं श्रोन दीश्वरद्वीपे पूर्वपश्चिमोत्तरदक्षिणे दिपञ्जाशज्जिनालय स्थजिनप्रमिमाभ्य: पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
(७१) निर्वाणक्षेत्रपूजा ।
परम पूज्य चौवीस, जिहँ जिह थानक शिव गये । सिद्ध भूमि निशदीस, मनवचतन पूजा करों ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्राणि ! अत्र अवतरत अवतरत । संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत, ठः ठः अत्र मंम सन्निहितानि भवत । वषट् ।
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नंदीश्वरपूजा।
३५३
गोता छंद। शुचि क्षोर दधि सम नीर निरमल, कनकझारीमें भरौं ।
संसारपार उतार स्वामी, जोरकर विनती करौं । सम्मेदगिरि गिरनार चपा, पावापुरी कैलासकों
पूजों सदा चौवीसजिननिर्वाण भूमिनिवासकौं ।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो जलं ॥१॥ केशर कपूर सुगंध चंदन सलिल शीतलं विस्तरौं। भवपापको संताप मेटो, जोर कर विनती करौं । सम्मे ॥ ___ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकर निर्वाणक्षेत्र भ्यो चंदनं ॥ २ ॥ मोतीसमान अखंड तंदुल, अमल आनंदधरि तरौं। औगुन हरौ गुन करौ हमको,जोर कर विनती करौं । सम्मे० ___ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थकर निर्वाणक्षेत्रभ्यो अक्षतान् शुभफूलरास सुबासवासित, खेद सब मनके हरौं। दुखधाम काम विनाश मेरो, जोर कर विनती करौं ।सम्मे० ॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्र भ्यो पुष्पं ॥ ४ ॥ नेवज अनेक प्रकार जोग मनोग धरि भय पिरिहरौं । यह भूखदूखन टार प्रभुजी, जोर कर विनती करौं ।सम्मे० ।।
ॐ हीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो नैवेद्य ॥ ५ ॥ दीपक प्रकाश उजास उजल, तिमिरसेती नहिं डरौं। संशविमोहविभरम-तमहर, जोर कर विनती करौं ॥सम्मे० ॥ ___ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो दीपं । ६॥ शुभ धूप परम अनूप पाघन, भाव पावन आचरौं। सब करमपुज जलाय दीजे, जोर कर विनती करौं ।सम्मे० ॥
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जिनवाणी संग्रह। ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रभ्यो धूपं ॥७॥ बहु फल मँगाय चढ़ाय उत्तम, चारगतिसों निरवरौं। निहचे मुफतफल देहु मौकों, जोर कर विनती करौं ।सम्मे॥
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरनिर्वाणक्षेत्रभ्य: फलं ॥८॥ जल गंध अच्छत फूल बरु फल, दीप धूपायन धरों। 'द्यानत' करो निरभय जगततें, जोर कर विनती करौं ।सम्मे० ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रभ्यो अभ्यं ॥६॥
अथ जयमाला। सोरठा-श्रीचौबीस जिनेश, गिरिकैलाशादिक नमों। तीरथ महाप्रदेश महापुरुष निरवाणतें ॥१॥
चौपाई १६ मात्रा। नमों रिषभ कैलासपहारं । नेमिनाथ गिरनार निहारं ।। वासु. पूज्य चपापुर बंदौं।सनमति पावापुर अभिनंदौं ॥२॥ बंदौं अजित अजितपददाता । बंदी संभवभवदुखघाता ॥ चंदौं अभिनंदन गण नायक । वंदो सुमति सुमतिके दायक ॥३॥ बंदौं पदम मुकतिपदमाकर । बंदौं सुपार्श आशपासाहर ।। बंदौं चदाप्रभ प्रभुचदा.. बंदौं सुविधि सुविधि निधि कंदा ॥४॥ बंदो शीतल अघ तप शीतल । बंदों श्रियांस श्रियांस महीतल ॥ बंदौं विमल विमल उपयोगी। बंदों अनंत अनंत सुखभोगी ॥५॥ बंदों धर्म धर्म बिसतारा । बंदो शांति शांतिमनधारा ॥ बंदौं कुथु कुथु रखवाल | बंदों अरि अरहर गुणमालं ॥ ६ ॥ बंदी मल्लि काममल चरन । बंदी मुनिसुव्रतत्रतपूरन । बंदी नमि जिन नमित सुरा सुर । बंदी पार्श्व पास भ्रमजगहर ॥७॥ बीसों सिद्धभूमि जा ऊपर
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देव पूजा ,
३५५ सिखर सम्मेद महागिरि भूपर ॥ एकबार बंदे जो कोई । ताहि नरक पशुगति नहिं होई ॥८॥ नरगति नप सुर शक कहावै । तिहुं जग भोग भोगि शिव पावै॥विधन विनाशक मंगलकारी । गुण बिलास बंदो नरनारी॥ ८॥ घता-जो तीरथ जावे पाप मिटाई, ज्यावे गावै भगति करे। ताको जस कहिये संपति लहिये, गिरिके गुणको बुध उचरे ॥१०॥ ॐ ह्रीं वतुर्विंशतितीर्थकरनिर्वाणक्षेत्रेभ्यो अयं ।
(७२) देवपूजा । दोहा-प्रभु तुम राजा जगतके, हमें देय दुख मोह ।
तुम पद पूजा करत हू, हम करुना होहि ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्वत्वारिषद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवन् अत्र अवतरअवतर। संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव ! वषट् ।
बंद विभंगी। बहु तृषा सतायो, अति दुख पायो तुमपै आयो जल लायो। उत्तम गंगाजल, शुचि अति शीतल, प्राशुक निर्मल, गुन गायो॥ प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो। यह अरज सुनीज, ढील न कीजै, न्याय करीजै, दया धरो, ॥१॥ ___ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितवटचत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्रभगवदभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्व पामीति स्वाहा । अघतपत निरंतर, अगनि पठंतर, मो उर अंतर, खेद करयो। ले बावन चंदन दाहनिकंदत; तुमपदबंधन, हरष धरयो ॥ प्रभु०॥
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३५६
जिनवाणी संग्रह |
उन्हीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीजिनेभ्योचन्दनं औगुन दुखदाता, कह्यो न जाता, मोहि असाता, बहुत करे । तंदुल गुनमंडित, अमल अखंडित, पूजत पंडित प्रीति घरे ॥ प्र० || ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित अक्षतान । सुरनर पशुको दल, काम महाबल, बात कहत छल, मोहि लिया । ताकेशरलाऊ फूल चढ़ाऊ, भगति बढ़ाऊ, खोल हिया || प्रभु ० ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट् चत्वारिशद्गुणसहित पुष्पं ।
सब दोषनमाहीं, जासम नाहीं, भूख सदा हो, मो लागे । सद् घेवर बावर, लाडू बहु घर, थार कनक भर तुम आगे। प्र० ॐ ह्रीं अष्टादशदोपरहितष्टचत्वारिशद्गुणसहित नैवेद्य ० ॥ अज्ञान महातम, छाय रह्यो मम, ज्ञान ढक्यो हम दुख पाव I तम मेटनहारा, तेज अपारा, दीप सँभारा, जस गावें ॥ प्रभुः ओं ह्रीं अष्टादशदोषरहितपट् चत्वारिंशद्गुणसहित दीपं ॥ इह कर्म महावन, भूल रह्यो जन, शिवमारग नहिं पावत हैं । कृष्णागरधूपं, अमल अनूपं, सिद्धस्वरूपं, ध्यावत हैं | प्रभु अंतरजामी, त्रिभुवननामी, सबके स्वामी, दोष हरो । यह अरज सुनीजै, ढील न कीजें, न्याय करीजै दया धरो ॥७॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहित धूपं० ॥ सबतैं जोरावर, अंतराय अरि, सुफल विघ्न करि डारत हैं। फल पुंज विविध भर, नयनमनोहर, श्रीजिनवरपद धारत हैं ॥ प्रभु०॥
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट्चत्वारिंशद्गुणसहित फल ० ॥ आठौं दुखदानी, आठनिशानी, तुम ढिग आनी, निवारन हो 1 दीनन निस्तारन, अघमउधारन, 'द्यानत' तारन, कारन हो । प्रभु०
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देव पूजा |
ॐ ह्रीं अष्टादशदोषरहितष्ट चत्वारिंशद्गुणसहित अर्ध
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अथ जयमाला ।
दोहा - गुण अनतको कहि सके, छियालीस जिनराय ।
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प्रगट सुगुन गिनती कहू, तुमहो होहु सहाय ॥ १ ॥ एक ज्ञान केवल जिनस्वामी । दो आगम अध्यातम नामी ፀ तीन काल विधि परगट जानी। चार अनंत चतुष्टय ज्ञानी ॥२॥ पंच परावर्तन परकासी । छहों दरबगुनपरजयभासी ॥ सात भागचानी परकाशक । आठों कर्म महारिषु नाशक ||३|| नव तत्वन के भाखनहारे । दशलच्छनसौं भविजन तारे । ग्यारह प्रतिमाके उपदेशी । बारह सभा सुखी अकलेशी ॥४॥ तेर हिविधि चारितके दाता चौदह मारगनाके ज्ञाता | पंद्रह भेद प्रमाद निवारी | सोलह भावन फल अविकारी ||५॥ तारे सत्रह अङ्क भरत भुव । ठारै थान दान दाता तुव ॥ भाव उनीस जु कहे प्रथम गुन । बीस अंक गण धरजीकी धुन ॥ ६ ॥ इकइस सर्व घात विधि जाने । बाइस बंध नवम गुन थाने ॥ तेइस निधि अरु रतन नरेश्वर । सो पूज' चौवीस जिनेश्वर || || नाश पचीस कषाय करी हैं। देशघाति छब्बीस हरी हैं ॥ तत्व दरब सत्ताइस देखे । मति विज्ञान अठाईस देखे ॥ ८ ॥ उनतिस अक मनुष सब जाने । तीस कुलाचल सर्व वखाने ॥
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कति पटल सुधर्म निहारे । बत्तिस दोष समाइक टारे ॥२॥ तेतिस सागर सुखकर आये । चोतिस भेद अलब्धि बताये ॥ तिस अच्छर जप सुखदाई । छत्तिस कारन रीति मिटाई ||१०|| सैंतिस मग कहि ग्यारह गुनमें । अड़तिस पद लहि नरक अपुनमें । उनतालीस उदीरन तेरम । चालिस भवन इंद्र पूर्जे नम ॥११॥ इक
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जिनवाणी संग्रह। तालीस भेद आराधन । उद बियालीस तीर्थकर भन । तेतालीस बंध शाता नहि, द्वार चवालिस नर चौथे महि ॥१२॥ पैतालोस पल्यके अच्छर छियालीस विन दोष मुनीश्वर। नरक उदै न छियालिस मुनि धुनि प्रकृति छियालिस नाश दशमगुन ॥ १३ ॥ छियालीस धन राजु सात भुव । अङ्क छियालीस सरसो कहि कुछ। भेद छियालीस अन्तर तपवर । छियालीस पूरन गुन जिनव॥१॥ अडिल्ल-मिथ्या तपन निवारन वन्द समान हो मोहितिमिर वारनको कारन भान हो ॥ काल कषाय मिटावन मेघ मुनीश हो 'धानत' सम्यकरतनत्रय गुनईश हो ॥१५॥
ओं ह्रीं अष्टादशदोषरहितषट् चत्वारिंशद्गुणसहितश्रीजिनेन्द्र भवद्भ्यो पूर्णाऽध निर्व पामि ॥ इति श्रीदेव पूजा समाप्त ।
१७३] सरस्वती पूजा। दोहा--जनम जरा मृतु छय करे, हरे कुनय जड़ रोति ।
भवसागरसो ले तिरै, पूजें जिनवचप्रीति ॥१॥ ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीबाग्वादिनी! अत्र अवतर' अवतर। संवोषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् ।
विभगी। छीरोदधि गङ्गा, विमल तरंगा, सलिल अभङ्गा, सुखगङ्गा । भरि कंचन झारी, घार निकारी, तृपा निवारी, हित बड़ा । तीर्थकरकी धुनि, गनधरने सुनि, अङ्ग रचे चुनि, शानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन मानी, पूज्य मई ॥१॥
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सरखतो पूजा। ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वती देव्यंजलं निर्पपामि । करपूर मंगाया, चन्दन आया, केशर लाया, रङ्ग भरी। शारदपद यंदौं, मन अभिन दौं, पापनिकंदौं दाह हरी ॥तीर्थ ॥२॥ ___ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वती देव्ये जलं निर्वपामि । सुखदास कमोद, धारकमोदं, अतिअनुमोदं, चंदसमं । बहुभक्ति बढ़ाई, कीरति गाई, होहु सहाई, मातामं ॥तीर्थं० ॥३॥ ___ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अक्षतान् निर्वपामि ॥३॥ बहुफू लसुवास, विमलप्रकाशं, आनदरासं, लाय धरै । मम काम मिटायौ, शील बढ़ायो, मुख उपजायो, दोष हरै ॥तीर्थं०
ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरातीदेव्यै पुष्पं निर्वपामि ॥४॥ पकवान बनाया, बहुघृत लाया, सब विध भाया, मिष्ट महा । पूजू थुति गाऊ', प्रीत बढ़ाऊ, क्षुधा नशाऊ, हर्ष लहा॥तीर्थं.
ओं ही जिनमुखोद्भगसरस्वतीदेव्यै नवेद्य निर्व पामी ॥६॥ करि दीपक ज्योतं, तमछय होतं, ज्योति उदोतं, तुमहिं चढ़े। तुम हो परकाशक, भरमविनाशक, हम घट भासक, ज्ञान बढ़े।ती. ___ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामि ॥६॥ शुभगंध दशोंकर, पावकमें धर, धूप मनोहर, खेवत हैं। सब पाप जलावे, पुण्य कमावै, दास कहावे खेवत हैं ॥तीर्थं०॥
ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्य धूपं निवपामि ॥७॥ बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी, ल्यावत हैं। मनवांछित दाता मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं ॥तीर्थ।।
ओं ही श्रीजिनमुखोद्गवसरस्वतीदेव्य फलं निर्व पामि ॥८॥ मयननसुख कारी, मृदुगुनधारी, उज्वलभारी, मोद धरै ।
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जिनवाणी संग्रह।
शुभगंधसम्हारा, घसन निहारा, तुमतर धारा, शान करें। तीर्थकरकी धुनि, गणधरने सुनि अंग रचे चुनि, ज्ञानमई । सो जिनवरवानी, शिवसुखदानो, त्रिभुवनमानी, पूज्य भई ॥
___ओं ह्रीं श्रीजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्ये वस्त्र निवं पामि ॥८॥ जलचंदन अच्छत, फूल चरू चत, दीप धूप अति, फल लाये । पूजाको ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत"सुख पावै ॥तीय।। ओं ह्रीं श्रोजिनमुखोद्भवसरस्वतीदेव्यै अयं निर्व पामि ॥१०॥
अप जयमाला। सोरठा--ओङ्कार धुनिसार, द्वादशांग वाणी विमल ।
नमों भक्ति उर धार, शान करै जड़ता हरे॥ वेसरी छन्द --पहला आचारांग वखानो। पद अष्टादश सहस प्रमानो। दूजा सूत्रकृतं अभिलाष । पद छत्तीस सहस गुरु मापं ॥ १॥ तीजा ठाना अग सुजान। सहल बियालिस पद. सरधानं ॥ चौथो समवायांग निहार। चौसठ सहस लाख इकधार॥ २ ॥ पंचम व्याख्याप्रगपति दरशं। दोय लाख आट्टाइस सहस छट्ठा ज्ञातृकथा बिसतार। पांचलाख छप्पन हजार ॥३॥ सतम उपासकाध्ययन ग। सत्तर सहस ग्यारलख भग। अष्टम अतकृत दस ईस। सहस अठाइस लाख तेईस ॥४॥ नवम अनुत्तरदस सुविशाल । लाख वानवै सहस चवाल। दशम प्रश्नव्याकरण विचार। लाख तिरानव सोल हजार ॥५॥ ग्यारम सूत्रविपाक सु भाखं। एक कोड़ चौरासी लाख। चार कोड़ि अरु पंद्रह लाख। दो हजार सब पद गुरुशा ॥ ६ ॥ द्वादश दृष्टिवाद पनभेद । इकलो आठ कोड़ि पन वेदं ॥ अड़सठ
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गुरुपूजा।
लाख सहस छप्पन हैं। सहित पंचपद मिथ्या हन हैं ॥ ७॥ इक सो बारह कोड़ि वखानो। लाख तिरासो ऊपर जानो। ठावन सहस पंच अधिकाने। द्वादश अंग सर्व पद माने ॥ ८ ॥ कोड़ि इकावन आठहि लालं। सहस चुरासी छहसौ भावं साढ इकीस शिलोक बताये । एक एक पदके ये गाये ॥६॥
घत्ता--जा बानीके ज्ञानमें, सूझ लोक अलोक । 'द्यानत' जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक इत्याशीर्वाद: ॥
(७४) गुरुपूजा। दोहा-चढंगति दुखसागरविणे, तारनतरनजिहाज ।
रतनत्रयनिधि नगन तन, धन्य महा मुनिराज ॥ १ ॥
ॐ ह्रीं श्री आचार्योपाध्यायसर्बसाधुगुरुसमूह ! अत्रावतराव. तर सवौषट । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव । वषट् । शुचि नोर निरमल छोरदधिसम, स गुरु चरन चढ़ाइया । तिहुधार तिगतिटार स्वामो, अति उछाह बढ़ाइया ॥ भवभोगतनवैराग्य धार, निहार शिव तप तपत हैं। तिहु जगतनाथ अराध साधु सु पूज नित गुण जपत है ॥ १ ॥ ___ओं ह्रीं श्रीआचार्योपाध्यायसर्वसाधुगुरुभ्यो जलनि. करपूर वदन सलिलसौं घसि सु गुरुपद पूजा करौं । सब पाप ताप मिटाय स्वामी, धरम शीतल बिस्तरौं । भव भोगतन वैराग धार निहार, शिवतप तपत हैं। सिजगतनाथ अराध साधुसु, पूज नितगुन जपत हैं ॥२॥
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जिनवाणी संग्रह |
ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्ब साधुगुरुभ्यो चन्दन नि० freer कमोद सुवास उज्जल, सुगुरुपगतर धरत हैं । गुनार औगुनहार स्वामी, वंदना हम करते हैं ॥ भव भो० ॥३॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्व साधुगुरुभ्यो ऽक्षय पदप्राप्तये अक्षतान् शुभफ लराशप्रकाश परिमल, सुगुरुपायनि परत हों । निरबार मोर उपाधि स्वामी, शील दृढ़ उर धरत हों । भव०॥४॥
ओंह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्य: पुष्पं । पकवान मिट सलोन सुंदर, सुगुरु पांयन प्रोतिसौं 1 कर धारोग विनाश स्वामी, सुथिर कीजे रीतिसौं ॥ भव० ॥५॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्यायसर्व साधुगुरुभ्यः नैवेद्य' । दीपक उदोत सजोत जगमग, सुगुरुपद पूजों सदा ।
तमनाश ज्ञानउजास स्वामी मोहि मोह न हो कदा | भ० ॥ ६ ॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो दीपं ।
बहु अगर आदि सुगंध खेऊ सुगुण पद पद्महि खरे । दुख पुंज काट जलाय स्वामी गुण अछय चितमें धरे ॥ भव०७॥ ओं ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्योऽष्टकर्मदहनाय धूपं नि०
भर थार पूर बदाम बहुविधि, सुगुरु क्रम आगे घरों 1
मंगल महाफल करो स्वामी, जोर कर बिनती करों ॥ भव० ॥८॥ ॐ ह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फल नि० जल गंध अक्षत फूल नेवज, दीप धूप फलावली । 'धान' सुगुरुपद देहु स्वामीं, हमहिं तार उतावली ॥ भव० ॥ ॥ मह्रीं आचार्योपाध्याय सर्व साधुगुरुभ्यो ऽनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं
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गुरुपूजा।
३६३ अथ जयमाला। दोहा-कनककामिनी-विषयवश, दीस सब संसार ।
त्यागी वैरागीमहा, साधु सुगुनभंडार ॥ १ ॥ तीन घाटि नव कोड़ सब, बंदो सीस नवाय । गुन तिन अट्ठाईस लों, कहू आरती गाय ॥२॥
वेसरो छंद । एक दया पाल मुनिराजा, रागदोष द्वै हरन पर। तीनों लोक प्रगट सब देखें, चारौं आराधननिकर' ॥ पंच महाव्रत दुद्धर धारे, छहो दरब जानै सुहित। सप्तम गवानी मन लावें, पावे आठ रिद्ध उचितं ॥ ३॥ नवो पदारथ विधिसों भाख, बन्द दशों चरन शरन । ग्यारह शंकर जाने मान, उत्तम बारह बृत धरन। तेरह भेद काठिया चूरे, वौदह गुनथाणक लखिय। महाप्रमाद पंचदश नाशे, सोलकषाय सवै नखिय ॥ ४ ॥ बधादिक सत्रह सुतर लाखा, ठारह जन्म न मरन मुन' । एक समय उनईस परी. षह, बीस प्ररूपनिमें निपुनं ॥ भाव उदीक इकीलों जान, वाइस अभख न त्याग कर। अहिन्दिर तेईसों बदें, इन्द्र सुरग चौबीस बर॥ ५॥ पञ्चीसों भावन नित भाव', छह सौ अंग उपंग पढे । सत्ताइसों विषय विनाश, अट्ठाईसों गुण सु बढे । शीतलमय सर चौपटवासी, प्रोषमगिरिसम जोग धरै। वर्षा वृक्ष तर थिर ठाढ़े आठ करम हनि सिद्ध बरें ॥६॥ दोहा-कहो कहाँ लो भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर।
हेमराज, सेवक हृदय, भकि करौ भरपूर ॥७॥ ओं ही प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधु गुरुभ्यो अध्यं निर्यपामि ।
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जिनवाणी संग्रह।
मैं अल्प बुद्धि जयमाल गाय। भवि जीव शुद्ध जेकी पनाय ॥२३॥ तुम दया पिशाला सब क्षितिपाला तुम गुणमाला कण्ठधरी। ते भव्य विशाला तज जग जाला नागत भाला मुक्तिवरी।
इत्याशीर्वाद: ।। (७७) सोनागिरि सिद्धक्षेत्र पूजा।
अडिल्ल छन्द। जम्बूद्वीप मझार भरत क्षेत्र सुकहों। आर्यखण्ड सुजान भद्र देशे लहो ॥ सुवर्णगिरि अभिराम सुपर्वत है तहां । पञ्चकोड़ि अरु अर्द्ध गये मुनि शिव जहां ॥१॥ दोहा-सोनागिरिफे शोशपर, बहुत जिनालय जान ।
चन्द्रप्रभू जिन आदिदे, पूजों सय भगवान ॥२॥
ओं ह्रीं अत्रवत्रवतर: संवोषटाहाननं । अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं ॥ अत्र ममऽसन्निहितो भव भव वषट् सनिधीकरणं ।
अथाष्टक सारंग छंद-पदमद्रहको नीर ल्याय गंगासे भरके । कनक कटोरी माहि हेम थारनमें धरके । सोनागिरिके शीश भूमि निर्वाण सुहाई पंचकोडि अरु अद्ध मुक्ति पहुंचे मुनिराई ॥ चन्द्रप्रभु जिन आदि सकल जिनवर पद पूजो। स्वर्ग मुक्ति फल पाय जाय अविवल पद हूजो। दोहा-सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराय।
तिनपद धारा तीन दे, तृषा हरणके काज ।। ॐ ह्रीं श्रीसोनागिरि निर्वाणक्षेत्रभ्यो ॥ जल ॥१॥
केसर आदि कपूर मिले मलयागिरि चन्दन । परमल मधिपती तास और सब दाह .निफन्दन ॥ सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराज । ते सुगन्ध कर पूजिये,दाह निकन्दन काज। सुगन्ध॥२॥
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सोनागिरि लिखक्षेत्र पूजा। तन्दुल धवल सुगन्ध ल्याय जल धोय पवारो। मझय पदके हेतु पुज द्वादश तहां धारो। सोनागिरिके शोशपर, जेते सब जिन राज । तिन पद पूजा कीजिये, माझय पदके काज ॥अक्षत॥३॥
बेला और गुलाब मालतो कमल मंगाये। पारिजातके पुष्प ल्याय जिन वरण चढ़ाये ॥ सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिन राज । ते सब पूजों पुष्प ले, मदन विनाशन काज । पुष्पं ॥४॥
विजन जो जगमांहि नांहघृत माहि पकाये। मीठे तुरत बनाय हेम थारी भर ल्याये । सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराज। ते पूजों ने वेध ले, क्षुधा हरणके काज | नेवेद्य ॥५॥
मणिमग दीप प्रजाल धरौं पंकति भरथारो। जिन मन्दिर तम हार करहु दर्शन नरनारी। सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराज। करों दीपले आरती, शान प्रकाशन काज ॥ दीपं ॥६॥
दशविधि धूप अनूप अरिन भोजनमें डालों।जाकी धूप सुगन्ध रहे भर सर्व दिशालों। सोनागिरिके शीशपर, जेते सब जिनराज धूप कुम्भ आगे धरों, फर्म दहन के काज ॥७॥
उत्तम फल जग मांहि बहुत मीठे अरु पाके । अमित अनार अचार आदि अमृत रस छाके। सोनागिरिफे शीशपर, जेते सब जिनराज । उत्तम फल तिन ले मिलो, कर्म विनाशन काज फलंद
दोहा-जल आदिक बसु द्रव्य अघ करके घर नाचो। बाजे बहुत बजाय पाठ पढ़के मुख सांचो। सोनागिरके शीसपर जेते सष, जिनराज। ते हम पूजे अर्घ ले । मुक्ति रमणके काज ॥ मध ।।
मटिल छन्द। श्री जिनवरकी भकि सो जे नर करत हैं। फल बांगर
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जिनवाणी संग्रह |
नाहि प्रेम उर धरत हैं | ज्यों जगमाहिं किसान खेतीको करें। नाज काज जिय जान सु शुभ आपहि भरें ॥ ऐसे पूजादाम भक्ति वश कीजिये । सुख सम्पति गति मुक्ति सहज पा लीजिये ॥ पूर्णा ॥ १० ॥
काथ जयमाला ।
दोहा- सोनागिरिके शीसपर, जिन मन्दिर अभिराम ।
तिन गुणकी जयमालिका, वर्णत आशाराम ॥ १ ॥ पदरी छंद ।
गिरि नोचे जिन मन्दिर सुवार । ते यतिन रचे शोभा अपार । तिनके अति दीर चौक जान । तिनमें यात्री मेलें सुआन ॥ २ ॥ गुमठी छज्जे शोभित अनूप । ध्वज पंकित सोह्रै विविधरूप । बसु प्रातिहार्य तहां धरे आन । सब मंगल द्रव्यनकी सुखान ||३| दरबाजोंपर कलशा निहार । करजोर सुजय जय ध्वनि उच्चार । इक मन्दिरमें यतिराजमान । आचार्य विजयकीर्ती सुजान ॥ ४ ॥ तिन शिष्य भागीरथ विबुध नाम । जिनराज भक्ति नहिं और काम || अब पर्वतको चढ़ चलो जान । दरवाजो तहां इक शोभमान ॥ ५॥ तिस ऊपर जिन प्रतिमा निहार । तिन बंदि पूज आगे सिधार । वहां दुःखितभुखितको देत दान । यावकजन जहां हैं अप्रमाण ६ आगे जिन मन्दिर दुई ओर। जिन गान होत वाजित्र शोर 1 माली बहु ठाढ़ चौक पौर। ले हार कल्गी तहां देत दौर ॥ ७ ॥ जिन यात्री तिनके हाथ मांहि । वखशीस रीक तहां देत जाहिं । दरवाजो तहां दूजो विशाल । तहां क्षेत्रपाल दोड ओर लाल ॥८॥ दरवाजे भीतर चौक माहिं। जिन भवन रखे प्राचीन आहिं ।
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रविवत पूजा। तिनकी महिमा बस्णी न जाय । दो कुंड सजलकर अति सुहायट जिन मन्दिरकी वेदी विशाल । दरवाजो तीनों बहु सुदाल । ता दरवाजेपर द्वारपाल । ले लकुट खड़े अरु हाथ माल ॥ १० ॥ जे दुर्जनको नहिं जान देय । ते निन्दकको ना दरश देय ॥ चल चन्द्रप्रभूके चौकमाहि । दालाने तहां चौतर्फ आयं ॥ ११ ॥ तहां मध्य सभामंडप निहार । तिसकी रचना नाना प्रकार । तहां चन्द्रप्रभुके दरशपाय । फल जात लहो नरजन्म आय ॥ १२ ॥ प्रतिमा विशाल तहां हाथ सात । कायोत्सर्ग मुद्रा सुहात । बंदे पूजें तहां देय दान । जननत्य भजनकर मधुरगान ॥ १३ ॥ नायेई थेई थेई बाजत सितार । मृदंग वीन मुहचंग सार । तिनकी ध्वनि सुनि भवि होत प्रेम । जयकार करत नाचत सुएम। ते स्तुतिकर फिर नाय शीस। भवि नल मनो कर कर्म खोस । यह सोनागिरि रचना अपार । बरणन करको कवि लहै पार॥१५॥ अति तनक बुद्धि आशासुपाय । बस भक्ति कही इतनी सुगाय । मैं मन्दबुद्धि किम लहों पार । बुद्धिवान चूक लीजो सुधार ॥१६॥ दोहा-सोनागिरि जय मालिका, लघुमति कही बनाय। . पढ़े सुने जो प्रीतिसे, सो नर शिवपुर जाय ॥ १७ ॥
इत्याशीर्वादः । ( ७८ ) रविवतपूजा ।
भरिल। यह भवजन हितकार, सु रविवृत जिन कही । कर भव्यअन लोग, सुमन देके सही ॥ पूजों पार्श्व जिनेन्द्र त्रियोग लगाय
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जिनवाणी संग्रह |
के । मिर्ट सफल सन्ताप
मिळे निघ आपके ॥ मति सागर इक सेठ कथा ग्रन्थन कही। उनहोने यह पूजा कर आनन्द लही ॥ ताते रविवृत सार, सो भविजन कीजिये । सुख सम्पति सन्तान, अतुल निध लीजिये । दोहा - प्रणमो पार्श्व जिनेशको, हाथजोड़ शिर नाय । परभव सुखके कारने, पूजा करू बनाय । एतवार वृत्तके दिना एही पूजन ठान । ता फल सुरग सम्पति लहैं, निश्चय लीजे मान ॥
ओं ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय अत्र अवतर अवतर तिष्ठ २ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो ।
अष्टक ।
उज्जल जल भरके अति लायो रतन कटोरन माहीं । धार देव अति हर्ष बढ़ावत जन्म जरा मिट जाहीं ॥ पारसनाथ जिने श्वर पूजों रविवृतके दिन भाई । सुख सम्पति बहु होय तुरत ही आनद मंगलदाई ॥ ॐ ह्रीं श्री पार्श्वनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल निर्वपामीति स्वाहा ॥ मलयागिरि केशर अति सुन्दर कुमकुम रंग बनाई। धार देत जिन चरनन आगे भवेआताप नसाई । पारसनाथ० । सुगन्ध । मोती सम अति उज्जल तन्दुल ल्यावो नीर पखारो। अक्षय पदके हेतु भावसो श्री जिनवर ढिग धारो । पारस० । अक्षतं । केला अर मचकुन्द चमेली पारजातके ल्यावो । चुन चुन श्री जिन अग्र चढ़ाऊ मनवान्छित फल पावो । पारस० । पुष्पं । वावर फेनी गोजा आदिक घृतमें लेस पकाई । कञ्चन थार मनोहर भरके चरनन देत चढ़ाई। पारस०| नवेद्य । मनमय दीप रतनमय लेकर जगमग जोत जगाई। जिनके
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जन्मकल्याण पूजा।
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वसुविध कर्म हगे॥ हरि मेरु० धूपं । श्रीफल अंगूर अनार खारक थार भरों। तुम चरन चढ़ाऊ खार,ताफल मुक्ति वरों ॥ हरि मेरु० फल। जल आदिक आठ अदोष, तिनका अर्घ करों। तुम पद पूजों गुण कोष, पूरन पद सुधरों । हरि मेरु० अर्घ ।
आरती जोगीरासा। जन्मसमय उच्छव करनेको. इन्द्र शवी युत धायो। तिहको कछु वरणन करवेको, मेरो मन उमगायो॥ बुधिजन मोंको दोष न दीजो, थोरो बुद्धि भुलायो साधू दोष क्षमे सब हीके, मेरी करो सहायो॥ १॥
(छद कामिनी-मोहन-मात्रा २० ) जन्म जिनराजको जबहि निज जानियों। इन्द्र धरनिन्द्र सुर सकल अकुलानियों ॥ देव देवाङ्गना चलिय जयकारती शचिय सुरपति सहित करति जिन आरतीं ॥ २ ॥ साजि गजराज हरि लक्ष जोजन तनो। बदन शत बदन प्रति दन्त बसु सोहनो ॥ सजल भरि पूर सरदन्त प्रति धारती। शचिय सुरपति सहित, करति जिन आरती ॥३॥ सरहिं सर पंच दुय एक कमलिनि बनी। तासु प्रति कमल पञ्चीस शोभा घनी॥ कमल दल एकसो आठ विसता. रती । विय सुरपति सहित करत जिन आरतीं ॥४॥ दलहि दल अप्सरा नाचहीं भावसों। करहिं सङ्गीत जयकार सुर चावसों ॥ तगड़दा तगड़ थई करत पग धारतों। शवियं सुरपति स० ॥५॥ तासु करि बेठि हरि सकल परिवारसों। देहि परदक्षिणा जिनहि . जयकारसों। आनि कर शचियं जिन नाथ उर धारतीं। शचिय
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जिनवाणी संग्रह। सुरपति स० ॥६॥ आनि पांडुकशिला पूर्व मुख थाप जिन । करहि अभिषेक उच्छाहसो अधिक तिन ॥ देखि प्रभु बदन छवि कोटि रवि बारतीं। शधिय सुरपति सहित कर० ॥ ७॥ जोजनह भाठ गम्भीर कलशा बने। चारि वौड़ाई मुख एक जोजन तने ॥ सहस अरु आठ भरि कलश शिर ढारतीं। शचियं सुरपति सहि ॥८॥ छत्र मणि स्वचित ईशान करतारहीं। सनत माहेंद्र दोऊ चमर शिर ढारहीं ॥ देव देवीय 'पुष्पांजलिय हारतीं। शचिय सुरपति सहित करत जिन० ॥ ८ ॥ जलसु चन्दन पुहप शालि चरु ले घरों । दीप अरु धुप फल अर्घ पूजा करों ॥ विडिका और नीरांजना बारतीं। शचिय सुरपति सहित कर० ॥१०॥ कियो शृगार सब अंग सामानसों। आनि मातहि दियो बहुरि जिनराजकों ॥ तृपत नहि होत Qग रूप नीहारतीं। शचियं सुरपति सहित करत जिन आर० ॥ ११ ॥ ताल मिरदंग धुनि सप्त सुर बाजहीं। नृत्य तांडव करत इन्द्र अति छाजहीं ॥ करत उच्छाहसों निजसु पद धारती। शविय सुरपति सहित कर० ॥१२॥ भव्य जन आय जिन जन्म उत्सव करें। आपने जन्मके सफल पातिक हरॆ ॥ भक्ति गुरुदेवकी पार उत्तारतीं। शविय सुरपति साहत करहि जिन आरती ॥१३॥ घत्ता-जिनवर पद पूजा भावसु हूजा, पूरण चित आनन्द भया। जयवन्त सु हजो आसा पूजो, लाल विनोदी भाल नया।
ओं ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदऽहत्परमेष्टिने पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा। चौपाई-मंगल गर्भ समयमें जोय। मंगल भयो जन्ममें जोय ।
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श्री सम्मेदशिखर पूजाविधान ।
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मंगल दीक्षा धारत जोय । मंगल ज्ञान प्राप्तिमें जोय ॥ मङ्गल मोक्ष मगनमें जोय । इन्द्रन कीनों हर्षित होय । जाचू बार बार हों सोय । हे प्रभु ! दीजे मङ्गल मोय 1
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत् )
( =२) श्री सम्मेद शिखरपूजाविधान
दोहा - सिद्धक्षेत्र तीरथ परम, है उत्कृष्ट सु थान ॥ शिखिर सम्मेद सदा नमौ, होय पापकी हान ॥१॥ अगनित मुनि जह तँ गए, लोक शिखिरके तीर । तिनके पद पंकज नमो, नासे भवकी पीर ॥२॥ अडिल छन्द - है वह उज्जल क्षेत्र सु अति निर्मल सही, परम पुनीत सुठौर महा गुनकी महो ॥ सकल सिद्धि दातार महा रमनीक है। वंदौ निज सुख देत अचल पद देत है ॥३॥ सोरठा - शिखिर सम्मेद महान, जगमें तीर्थ प्रधान है || महिमा अद्भुत ज्ञान, अल्पमती मैं किम कहो ॥ ४ ॥ पद्धरी छन्द - सरस उन्नत क्षेत्र प्रधान है। अति सु उज्जल तीर्थ महान है । करहि भक्तिसो जे गुन गाइ । वरहि शिव सुरनर सुख पायकें ॥ ५ ॥ अडिल छन्द-सुर हरि नरपति आदि सुजिन बन्दन करै । भवसागर ते तिरे नहीं भवदधि परें ॥ सुफल होय जो जन्म स जे दर्शन करें। जन्म जन्म के पाप सकल छिनमें टरें ॥६॥ पदरी छन्द - श्री तीर्थंकर जिनवर सु बीस 1 अरु मुनि असंख्य सब गुनन ईस ॥ पहुंचे जहं थे केवल सुधाम । तिन सबक अब मेरी प्रणाम ||७|| गीतका छन्द- सम्मेद गढ़ है तीर्थ भारी सबनको - उज्ज्वल करे । विरकालके जे कर्म लागे दरस ते छिनमें टरे ॥ है
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जिनवाणी संग्रह। परम पावन पुन्य दाइक अतुल महिमा जानिए। है अनूप सरूप गिरिवर तासु पूजा ठानिए ॥ ८ ॥ दोहा-श्रीसम्मेद शिखिर महा, पूजों मनवचकाय ॥ हरत चतुरगति दुःस्त्र को, मन वांछित फल दाय ॥ उन्हीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्ध क्षेत्रभ्यो अत्रावतराव. तर संवौषट् इत्यालाननम् परि पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् ॐ ह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्परि पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् । ओह्रीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रभ्यो अत्रमम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं परि पुष्पाञ्जलि क्षिपेत् ।
अष्टकं । अडिल्ल छन्द-क्षीरोदद्धि सम नीर सु उज्जल लीजिये। कनक कलस में भरके धारा दीजिये ॥ पूजौं शिविर सम्मेद सुमन वचकाय जू । नरकादिक दुःख टरै अचल पद पाय जू॥ ॐहीं श्री सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रोभ्यो जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जल। पयसौं घिस मलयागिर चन्दन ल्याइये । केसर आदि कपूर सुगंध मिलाइये॥ पूजौ शिखिर० चन्दनं । तंदुल धवल सु उज्जवल खासे धोयके । हेम वरनके थार भरौं शुचिहोय के ॥ पूजौं शिखिर० । सम्मेदशिखिर सिद्धक्षेत्रेभ्यो अक्षय पदप्राप्ताय अक्षतं ॥३॥ फूल सुगंध सु ल्याय हरष सौ आन चढ़ायौ । रोग शोक मिट जाय मदन सब दूर पलायौ ॥ पूजौं० पुष्पं ॥ षट् रस कर नैवेद्य कनक थारी भर ल्यायो॥ क्षुधा निवारण हेतु सु पूजो मन हरषायो आपूजौ शिखिर० नैवेद्य ॥ लेकर मणिमय दीप सुज्योति उद्योत हो । पूजत होत स्वशान मोह तम नाश हो ॥ पूजों लिखिर० । दीपं ॥६॥ दस विधि धूप अनूप अग्नि मैं खेवहूं। अष्ट कर्मको
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जिनवाणी संग्रह |
३८८
जिन धाम ||२३|| तीन लोक हित करत अनूप । मंगल मय जगमैं विद्रूप ॥ प ॥ चिंतामणी स्वर वृक्ष समान । रिद्ध सिद्ध मङ्गल सुख दान ||२४|| पार्श्व और काम सुर छैन । नाना विध आनन्दको देन । व्याध विकार जाहि सब भाज। मन चिंतें पूरे सब काज ||२५| भवदधि रोग विनाशक होई। जो पद जगमें और न कोई ॥ निमल परम धाम उत्कृष्ट । बन्दत पाप भर्ज अरु दुष्ट ||२६|| जो नर ध्यावत पुन्य कमाय । जश गावत ऐ कर्म नशाय ॥ करें अनादि कर्मके पाप । भज सकल छिनमें सन्ताप ||२७|| सुर नर इन्द्र
फणिन्द्र सबै । और खगेन्द्र महेन्द्र जु नमे ॥ नित सुरसुरी
ज
करे उच्चार | नाचत गावत विविध प्रकार ||२८|| बहु विध भक्त करे मन लाय | विविध प्रकार वाजि त्र बजाय ||२८|| द्रुम द्रुम द्रुम 'बाज' मृदङ्ग | घन घन घंट वजे मुह चङ्ग । झन झन झनिया करे उच्चार । सरसारौंगी धुन उच्चार ॥ ३० ॥ मुरली बोन वजै घन मिष्ट । पट हांतुरी स्वरान्वत पुष्ट || नित सुरगण धित गावत
1
सार । सुरगण नाचत बहुत प्रकार ||३१|| झननन झननन नूपुर तान । तननन तननन टोरत तान । ता थेई थेई थेई थेई थेई चाल । सुर नाचत निज नावत भाल ||३२|| गावत नावत नाना रङ्ग । लेत जहां शुभ आनंद सङ्ग ॥ नितप्रति सुर जहां वन्दे जाय ॥ नाना विध मङ्गल को गाय ॥ ३३॥ आनन्द धुन सुन मोर ज सोथ । प्रापत व्रतकी अति हो होय || तातें हमकू' हैं सुख सोई । गिरधर बंदो कर धर दोई ||३४|| मारुत मन्द सुगन्ध खलेय । गंधो वक तहां बर सोय ॥ जियकी जात विरोध न होई । गिरवर बंदे कर धर दोई ||३५|| ज्ञान चरित तपसा धन होई। निज अनुभौको
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दीपमालिका विधान।
३८८ ध्यान धई। शिव मदिरको धारै सोई। गिरवर बंदे कर धर दोई ॥३६॥ जो भव बन्दे एक जु वार । नरक निगोद पशू गति टार॥ सुर शिवपदकू पावै सोय । गिरवर बंद कर धर दोय ॥३७॥ता की महिमा अगम अपार । गणधर कयहून पावे पार ॥ तुम अद्भुत मैं मतिकर हीन। कहो भक्त वसु केवल लीन ॥३८॥ घसा-श्री सिद्ध क्षेत्र अति सुख देत । सेवतु नासो विघ्न हरा ॥ अरु कर्म बिनाशे सुक्ख पयासै केवल भासै सुक्ख करा ॥ ३८ ॥ ओं ह्रीं सम्मेदशिविर सिद्धपद प्राप्ताय सिद्धक्षेत्रेभ्यो महाघ । दोहाशिखरसम्मेद पूजो सदा । ममवच तन कर नारि ॥ सुर शिवके जे फल लहै, कहते दास जवारि ॥४०॥ इत्यादि आशीर्वादः । (८३) दीपमालिका विधान ।
श्री महावीर पूजा ( कवि मनरङ्गजी)
गोता छंद। शुभनगर कुण्डलपुर सिद्धारथरायके त्रिशलातिया ।तजि पुष्प उत्तर तासु कुक्ष्या वीर जिन जन्मन लिया ॥कर सात उन्नत कनक सा तनु बंशवर इक्ष्वाक है ॥ वें अधिक सत्तरि वरस आउष सिंह चिन्ह भला कहै ॥१॥ __ छदमालिनी-सो जिनवीर दयानिधिके जुग पाद पुनीत पुनीत करेंगे। जावत मोक्ष न होय हमें शुभ तावत थापन रोज करेंगे। आय बिराजहु नाथ इहां हम पूजिके पुण्य भण्डार भरेंगे। ॐ ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय पुष्पांजलि क्षिपेत्॥ पुष्पोंको धालीमें डाले। कनक भसु वारि भरायके। मिल भाषत्रिशुद्ध लगायके । सर
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४००
जिनवाणी संग्रह।
अष्टक छंद द्रतविलय। मदेव जिनेश्वर वीरके । चरण पूजत नाशक पीरके ॐ ह्रीं श्रोबीर नाथ जिनेन्द्राय जन्मरोगविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा जल ॥१॥ परम चन्दन शीतल वामना। करि मुकेशरि मिश्रित पावना ॥ वरमदेव जिनेश्वर वोरके। चरण पूजत नाशक पीरके ॥
ॐ ह्री श्रीवोरनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं ॥२॥ धवल अक्षत वाव चढ़ावही। करि सुपुंज महामन भावहो। चरम० । चरण पूजत० ॥
ॐ ह्री श्रीबीरनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं ॥ ३ ॥
पुहप माल वनाय हिरायके । जुगतिसो प्रभु पास लियायके । चरमदेव०। चरण पूजत० ॥
ॐ ह्रो श्रीवीरनाथ जिनेन्दाय कामबाण बिनाशनाय पुष्पं ॥४॥
नबल घेबरबाबर लायके। घृतसुलोलित पूर्व बनायके । चरमदेव० । चरण पूजत०॥
ॐ ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगनाशाय नैवेद्य ॥ ५॥
करि अमोलक रत्नमई दिया। जगत ज्योति उद्योतमई किया। चरमदेव० । चरण पूजत०॥
ॐ ह्रीं श्रोवीरनाथ जिनेन्द्राय मोहांधकार बिनाशनाय दीप॥६॥
उठत धूम्र घटावलि जासुते । इम सुधूप सुगन्धित तासुते ॥ चरमदेव० ॥ वरण पूजतः ॥ — ॐ हों श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं ॥॥ फणसदाडिम आम्र पके भये। कनक भाजनमें भरके लये ॥
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दीपमालिकाविधान 1
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नरमदेव ० । ॐ ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय मोक्षपद
प्राप्तये भलं ॥ ८ ॥
भरघ ले शुभ भाव चढ़ायके । धवल मङ्गलतूर बजायके । चरमदेव० । ॐ ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय सबैसुखप्राप्ताय
अर्धं ॥ ८ ॥
अथ पंचकल्याणकं गाथा ।
मास आषाढ़ सुदीमे । षष्टीदिन जानि महा सुखकारी । त्रिसला गरम पधारे । तुमपद जजत अर्ध सीरी ॥ ॐ ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय आषाढ़ सुदी ६ गर्भकल्याण काय
अर्घ ॥
चैत्र त्रयोदशि कारी । तादिन जनमे प्रभाव बिस्तारी ॥ अर्ध महाकर धारी। जजव तिहारे चरण हितकारी ॥ ओं ह्रीं श्रीवीर जिनेन्द्राय चैत्रसुदीतेरसजन्मकल्याणकायअर्घं ॥२॥ दशमी अगहन बदीमें। लखि सबजग अथिर भये वैरागी ॥ प्रभू महाव्रत धारे। हम पूजत होत बड़ भागी ॥ ३ ॥ ओं ह्रीं श्रीवीरनाथ जिनेन्द्राय अगहनवदी १० तपकल्याणकाय अघ केवलज्ञानी हुवे । दशमी बैसाख सुदीके माहो ।
सकल सुरासुर पूजै । हम इह पद लखि अरघ चढ़ाही || ओं ह्रीं श्रीवोरनाथ जिनेन्द्राय बैसाखसुदी १० ज्ञानकल्याणकाय अर्ध कार्त्तिक नष्ट कलादिन । पावापुर के गहनते स्वामी ॥ मुकति तिया परनाई। हम चरण पूजि होत बड़ नामी ॥ ओं ह्रीं श्रीरमदेव महावीर जिनेन्द्रीय कार्त्तिकबदी अमावस निर्वाण कल्याणकाय अर्धं ॥ ५ ॥
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४०२
जिनवाणी संग्रह।
जयमाला (इन्द झूलना) वीर जिन धोरधर सिंहपग चिन्हधर तेजतप धरन जयसूर भारी। धर्मकी धुराधर अक्षर बिनु गिराधर परम पद धरन जय मदन हारी। दयाधर सीमधर पंचवर नाम धर अमल छवि धरण जय शरमकारी। पञ्चपरवर्तकी भर्मना ध्यंसिके अचलपद लहत जयजस विथारी ॥१॥
(छन्द प्रोटक) जय आनन्दके घनवोर नमों, जय नाशक हौ भवभीर नमों। जयनाथ महासुख दायक हो, जमराजबिहंडन लायक हो ॥२॥ जय चरमशरीर गंभीर नमो, जय चर्मतिर्थंकर धीर नमो। जय लोक अलोक प्रकाशक हो, जन्मान्तरके दुखनाशक हो ॥३॥ जय कर्म कुलाचल छेद नमो, जय मोह बिना निरखेद नमो। जय पूज्यप्रताप सदा सुथिरा, प्रगटी चहुं ओर प्रशस्त गिरा ॥४॥ तन सात सुहास विथाल नमो कनकाभ महा दशतालनमो। शुभमूरति मो मन माहिं बसी, सिगरी तबते भव भ्रांति नसो ॥५॥ जय क्रोध दवानल मेघ नमो, जय त्याग करो जगनेह नमो। जय अम्बर छोड़ि दिगम्बर भे, गति अम्बरकी धरि अमरभे ॥६॥ जय धारक पञ्चकल्याण नमो, जय रोजनमें गुणवान नमो। जय पाद गहें गणराज रहैं, सचिनायकसे मुहताज रहैं ॥ ७ ॥ जय भौदधि तारण सेत नमो, जय जन्म उधारन हेत नमो। जय मूरति नाथ भली दरसी, करुणामय शांति छया करसी ॥८॥ जय सार्थिक नाम सुधीर नमो, जय धर्मधुराधर वीर नमो। जय ध्यान महान तुरी चढ़के, शिवखेत लिया अति ही बढ़के
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शांतिपाठ ।
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अनुष्टुप - प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञानभास्कराः । कुर्वंतु जगतः बुषभाधा जिनेश्वराः ॥८॥ प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नमः ।
शान्ति
प्र त्येष्ठ प्रार्थना ।
शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः सङ्गति सर्वदाय्यैः । सदवृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितबचो भावना चात्मतत्वे | सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेते ऽपवर्गः ॥८॥
आर्यावृत्तम-तब पादौ मम हृदये, मम हृदयं पदद्वये लीनम् । तिष्ठत जिनेन्द्र तावद्यावनिर्माणसम्प्राप्तिः ॥१०॥
G
आर्या - अक्खरपयत्थहोणं मत्ताहीणं च जं मये मणियं । तं स्वमउ णाणदेव य मज्झवि दुःक्खक्स्वयं दितु ॥ ११॥ दुःखखओ कम्मओ समाहिमरणं च वोहिला हो य । मम होउ जगतवन्धव तव जिणवर वरणशरणेण ||१२|| ( परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् )
विसर्जन पाठ - ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्त' न कृतं मया । तत्सर्व पूर्ण मेवास्तु त्वत्प्रसादाजिनेश्वर ॥ १ ॥ आव्हानं नैव जानामि नैब जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ २ ॥ मंत्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैवच । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ ३ ॥ आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रमम् । ते मयाभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम् ॥ ४॥
1
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(८७) भाषास्तुति पाठ ।
तुम तरण तारण भवनिवारण, भविकमन आनंदनों । श्रीनामिनन्दन जगत बंदन, आदिनाथ निरंजनो ॥ १॥ तुम आदिनाथ अनादि
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जिनवाणी संग्रह। सेङ, सेय पद पूजा करू । कैलासगिरिपर रिषभजिनयर,पदकमल हिरदै धरू॥ २ तुम अजितनाथ अजीत जीते, अष्टकर्म महाबली। यह विरद सुनकर शरण आयो,कृपा कीजे नाथजो ॥३॥तुम चन्द्रबदन सुचन्द्रलच्छन, चन्द्रपुरि परमेश्वरो। महासेननन्दन, जगतयन्दन, चन्द्रनाथ जिनेश्वरो॥ ४ ॥ तुम शांति पांच कल्याण पूजों, शुद्ध मन वच कायजू । दुर्भिक्ष चोरी पापनाशन, विघन जाय पलायज ॥ ५ ॥ तुम बाल ब्रह्म विवेकसागर, भव्यकमलविकाशनो श्रीनेमिनाथ पवित्र दिनकर, पापतिमिर विनाशनो ॥ ६ ॥ जिन तजी राजुल राजकन्या,कामसेत्या-वश करी । चारित्र रथ चढ़ि भये दूलह, जाय शिवरमणी वरी ॥ ७॥ कन्दर्प दर्प सुसर्प लच्छन कमठ शठ निर्मल कियो । अश्वसेननन्दन जगतबन्दन, सकलसंघ मंगल कियो ॥ ८ ॥ जिन धरी बालकपने दीक्षा, कमठमान बिदारक । श्रीपार्श्वनाथ जिनेन्द्र के पद, मैं नमो शिरधारफ॥८॥ तुम कर्मधाता मोक्षदाता, दीन जान दया करो। सिद्धार्थनन्दन जगतबन्दन, महावीर जिनेश्वरो ॥ १०॥ छत्र तीन सोहै सुर नर मोहे, बीनती अबधारिये। कर जोडि सेवक, बीनवें प्रभु, आवाग .. मन निवारियो॥ ११ ॥ अब होउ भव भव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहों । कर जोड़ यों बरदान मांगो, मोक्षफल जावत लहों ॥१२। जो एकमाहीं एक राज, एकमाहि अनेकनो । इक अनेक की नहीं संख्या, नमों सिद्ध निरंजनो ॥ १३ ॥ मैं तुम चरणकमलगुणगाय । बहुविधि भक्ति करी मनलाय । जनम २ प्रभु पाऊ तोहि । यह सेवाफल वीजे मोहि ॥१४॥ कृपा तिहारी ऐसी होय जनम मरन मिटायो मोय। बारबार मैं बिनती करू । तुम से ये
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सुगंधदशमी व्रतकथा ।
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भवसागर तरु ं ।। १५ ।। नाम लेत सब दुख मिट जाय । तुम दर्शन देखो प्रभु आय । तुम हो प्रभु देवनके देव । मैं तो करू चरण तव सेव ॥ १६ ॥ मैं आयो पूजनके काज । मेरो जनम सफल भयो आज । पूजा करके नवाऊ शीश । जगदोश ॥ १७ ॥
मुझ अपराध छमडु
'दसवाँ अध्याय
(E) सुगन्ध दशमी व्रत कथा ।
चौपाई - बर्द्धमान दो जिनराय । गुरु गौतम बंदो सुखदाय सुगन्ध दशमी व्रत की कथा । बर्द्धमान सुप्रकाशी यथा ॥ १ ॥ मगधदेश राजगृह नाम । श्रेणिक राज करे अभिराम ॥ नाम चेलना गृह पटरानि । चन्द्ररोहिणी रूप समान ॥२॥ नृप बैठो सिंहासन परे । बनमाली फल लायो हरे ।। कर प्रणाम बच नृपसे कहो । चित्त प्रमोदसे ठाड़ो रहो || २ || बर्द्धमान आये जिन स्वामि । जिन जीतो उद्यम अरि काम || इतनी सुनत नृपति उठ चलो। पुरजन युत दलबलसै मलो ||४|| समोशरण बन्दे भगवान | पूजा भक्ति धार बहुमान || नरकोठा बैठो नप नृपजाय । हाथ जोड़ पूछे शिर नाय ||५|| सुगन्ध दशमी व्रत फल भाषि । ता नरकी कहिये अब साखि ॥ गणधर कहें सुनों मग्धेश । जम्बूद्वीप विजयाई देश ॥६॥ शिव मन्दिर पुर उत्तरध्रेणी । विद्याधर प्रीत कर जैनी वती मारि अति रूप । सुरकन्तासे अधिक अनूप ॥ सागरदन्त
॥ कमला
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जिनवाणी संग्रह।
बसे तहां साह । जाके जिनव्रतमें उत्साह ॥ धनवत बनिसी गृह कहो । मनोरमा ता पुत्री सही ॥ ८॥ सु गुप्तचार्य गृह आइयो। देख मुनीन्द्र दुःख पाइयो । कन्या मुनिकी निन्दा करी। कुछ मनमें नहिं शङ्का धरी ।। नग्न गात दुर्गन्ध शरीर । प्रगट पने देही नहिं वीर । मुख ताम्बूल हतो मुनि अङ्ग । मानो सुखको कीनो भङ्ग ॥१०॥ भोजन अन्तराय जब भयो। मुनि उठ जाय ध्यान वन दियो। समताभाव धरै उरमांहि । किञ्चित् खेद चित्तमें नाहिं ॥११॥ जीत अवधि समय कछु गयो । मनोरमाका काल सु भयो। भई गधी पुनि कुकरी ग्राम । अपर ग्राम भई सूकरी नाम ॥ १२ ॥ मगध सुदेश तिलकपुर जान । विजय सेन तहका नप मान । चित्ररेखा ता रानी कहीं। ता पुत्री दुर्गन्धा भई ॥ १३ ॥ एक स. मय गुरुबन्दन गयो। पूजा कर विनतीको ठयो ॥मो पुत्री दुर्गन्ध शरीर । कहो भवान्तर गुण गम्भीर ।। १४॥ राजा बचन मुनीश्वर सुने । मुनि वृतान्त रायसे भने ॥ सब वृतान्त हालिजो जान मुनि राजासे कहो बखान ।। १५ । सुन दुगंधा जोड़े हाथ । मो पर कृपा करो मुनिनाथ । ऐसा व्रत उपदेशो मोहि । यासे तनु निरोग अब होहि ॥१६॥ दयावन्त बोले मुनिराय। सुन पुत्री व्रत चित्त लगाय || समता भाव वित्तमें धरो। तुम सुगन्धदशमी व्रत करो॥१॥ यह व्रत कीजे मन वच काय । यासे रोग शोक सव जाय ॥ दुगंधा विनवे निकुताय । कहिये सविधि महा मुनिराय ॥ १८॥ ऐसे वचन सुने मुनि जये। तब बोले पुत्री सुन अवै ।। भादों शुक्ल पक्ष जब होंय । दशमो दिन आराधो सोय ॥ १८ ॥ चारो रसकी धारा देव । मनमें राखो श्रीजिनदेव ।। शीतलनाथकी
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जिनवाणी सर पूरण करो। उद्यापन विधिसे आवसे ॥२१॥ भन्तकाल वे कन्या सार। सुमिरण कोपा नवकार गबारों मरण समाधि सकियो। दश स्वर्ग जन्म तिन लियो ॥२२॥ पोड्स सागर मायु प्रमाण । धर्म ध्यान सेवें तहां जान ॥ सिद्ध क्षेत्रमें कर विहार । क्षायक सम्यक उदय अपार ॥२३॥ सुभग अवन्ती देश विशाल । उज्जेनी नगरो गुणमाल स्थूलमद्र नामा नरपतो। रानी चार लो अति गुणवती ॥ २४ ॥ देव गर्ममें आये चार । ता रानीके उदर मकार प्रथम सुपुत्र देवप्रभु भयो। दूजो सुत गुणचन्द्र भाषियो॥ २५ ॥ परप्रभा तीनों बलवीर। पर स्वारथो चोथो धीर ।। जन्म महोत्सव तिनको करो। अशुभ दोष प्रह दोनो हरो॥२६॥ निकल प्रभा राजाकी सुता ते वारो परणी गुण युता ॥ प्रथम सुता सो ब्राह्मी नाम । दुतिय कुमारी सो गुणधाम ।। २७ ।। रूपवती तोजी सुकुमाल । मृगाक्ष चौथी सो गुणमाल | करो व्याह घर को आइयो । सकल लोक घर आनन्द कियो॥ २८॥ स्थूलभद्र राजा इक दिना । मोग विरक्त भयो भव तना ।। राजपुत्रको दीनो सार। बनमें जाय योग शुभ धार ॥ २८ ॥ तपकर उपजो केवल ज्ञान ।' बसु विधि हनि पायो निर्वाण ॥ अब पुत्र राजको करें। पुण्यका फल पावे ते धरं ॥३०॥ चारों बांधव चतुर सुजान । महि निशि धर्म तनो फल मान । एक समय विरक सो भये । आतम काय चिन्तयत ठये ॥३१॥ चारों बान्धव दिक्षा ल । बनमें जाय तपस्या ठई । निज मनमें विपाराधि । शुक्ल ध्यानको पायो साधि ॥ १२॥ सर्व विमल केवल अग्नो। सुख प्रान्त तबही सो ठनो । करो महोत्सव देव कुमार। अब अब शब्द मयो तिहि
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मुकावली व्रत कथा |
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बार | ३३ शेष कर्म निर्वाळ तिन करे। पहुंचे मुतिपुरीमें बरे । अगम अगोचर भव जल पार । दशलक्षण व्रतके फल खार ॥ ३४ ॥ वीर जिनेश्वर कही सुजान । शीतल जिनके बाड़े माग । गौतम गणधर भाषी सार । सुनि क्षणिक आये दरबार ||३६|| जो यह व्रत नरनारो करे । ताके गृह सम्पति अनुसरे || भट्टारक श्री भूषण वीर । तिनके खेळा गुण गम्भीर ॥ ३६ ॥
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सागर सुविचार | कही कथा दशलक्षण सार || मन बचतन प्रत पाले जोह । मुक्ति बारांगणा भोगे सोइ ||३७| सम्पूर्ण ।
(६२) मुक्तावली व्रत कथा |
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दोहा - ऋषभनाथके पद नमों, भषि सरोज रवि जान । मुक्तावलि व्रतकी कथा, कहूं सुनो घर ध्यान ॥ १ ॥ चौपाई -मगध देश देशोंमें प्रधान । तामें राजगृह शुभ थान ॥ राज्य करे तहां श्रेणिकराय । धर्मवन्त सबको सुखदाय ॥ २ ॥ ता गृह नारि चेलना सती । धर्म शील पूरण गुणवती ॥ इक दिन समोशरण महावीर आयो विपुलाबल पर धीर ॥ ३ ॥ सुन नृप अत्यानन्दित भयो । कुटुम सहित बन्दनको गयो | पूजा कर बैठो सुख पाय । हाथ जोड़ कर अर्ज कराय ॥ ४ ॥ हे प्रभु मुक्कावलि - 5- व्रत कहो। यह कर कौने क्या फल लहो | तब गौतम बोले हर्षाय । सुनों कथा मुक्काबलिराय ॥ ५ ॥ याही जम्बूद्वीप मंकार | भरत क्षेत्र दक्षिण दिशि सार ॥ अङ्गदेश सोहे रमनीक | मगर बसे चम्पापुर ठोक ॥ ६ ॥ मगर मध्य इक ब्राह्मण बसे । नाम सोम शर्मा तसु लसे । ता गृह एक सुता जो मई । योवन मद
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जिनवाणी संग्रह। करपून ठई क दिन देले श्रीगुरु जये। नग्न गात सो निन्दे तवे । अति खोटे दुर्वचन कहाय । बहुत ही ग्लानि चित्त लाय ताकरि महा पाप बांधियो। अवधि व्यतीते मरण हु कियो । नरक जाय माना दुःख सहे। छेदन मेदन जाय न कहे ॥ मरक आयु पूरी कर जोइ । भव भूमि हिज गृह पुत्री होई। निओमिका पड़ा तिस माम। अति दुगंधा देह निकाम ॥ १॥ कोई ढिग भावे नहि हो । क्रमकर बड़ो भई सो वहां । अब पानफर दु:खित महा। भूठन भले कष्ट अति लहा ॥ ११॥ एफ दिवस देखे मुनिराय। कर प्रणाम विनवे शिर नाय ॥ कौन पाप. मैं कीनों देव। मैं पायो अति दुःख अमेव ॥ १२ ॥ तब मुनिवर पूरव भव कहे । गुरुकी निन्दासे दुःख लहे। तब दुगंधा जोड़े हाथ। ऐसा व्रत बीजे मोहि नाथ ॥ १३ ॥ यासे रोग शोक सय जाय। उत्तम भव पाऊ गुरुराय ॥ तब श्रीगुरु बोले हर्षाय। मुक्कावली करो मन लाय ॥ १५॥ तासे सर्व पाप जर जाय । सुख सम्पत्ति मिले अधिकाय ॥ तब दुगंधा कहे विचार । कौन भांति कीजे प्रत सार ॥ १५ ॥ तय मुनिवर इम ववन कहाय । सुनो'" भेद व्रतका वित लाय ॥ भादों सुदी सप्तम दिन होइ । ता दिन व्रत कीजे भवि लोड ॥१६॥ प्रात समय जिन मन्दिर जाय । पूजा कथा सुनो मन लाय ॥ सब आरम्भ तजो दिन मान । संयम शील सजो गुणलान ॥ १७ ॥ मोर भये जिन दर्शन करो। शुद्ध मसन कीजे तब बरो। दुजो व्रत पूर्ववत करो । अश्विन बदि छठि पापनि हरो ॥ १८॥ तीजोत की उर धीर। अश्विन यदि रखि सुखकार ||कर उपवास पालो गुण एसी। बोपी
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मुकावली व्रत कथा |
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मन वच काय
अश्विम सुदी ग्यारसी ||१८|| पञ्चम व्रत कीजे मन हाथ। कार्तिक यदी वारस सुखदाय || फिर छठवां उपवास सुजान । कार्तिक शुक्र तीज गुणखान ॥ २० ॥ सप्तम व्रत जिनबरने कहो । कार्तिक सुदि ग्यारसि शुभ लहो । फेर करो अष्टम व्रत लोय । मार्गसिर बहि ग्यारसि जब होय ||२१|| नवमों व्रत मार्ग सुदी तीज । ये व्रत धर्म वृक्षके बीज ॥ या विधि करौ नव वर्ष प्रमान । शुद्धता ठान ॥ २२ ॥ अब व्रत पूरण होय निदान । उद्यापन कीजे गुणवान || श्रीजिनवर अभिषेक कराय । करो माड़नो जिनगृह जाय ॥ २३ ॥ अष्ट प्रकारी पूजा करो। जन्म २ के पातक हरो यथाशकि उपकरण बनाय । श्रीजिन धाम चढ़ावो जाय ॥ २४ ॥ उद्यापन की शक्ति न होय । वो दूनो व्रत कीजे लोय || सब विधि सुन दुर्गंधा बाल | मन बच तन व्रत लीनो हाल ॥ २५ ॥ गुरु भाषित तिन त ये कियो । पूर्व भव अघ पानी दियो ॥ ता फल नारि लिङ्ग छेदियो । सौधर्म स्वर्ग देव सो भयो ॥ २६ ॥ तहां आयु पूरण कर सोय । चलत भयो मथुराको लोय ॥ श्रीधर राजा राज करन्त । ताके सुत उपजो गुणवन्त ॥ २७ ॥ नाम पद्मरथ पंडित भयो । एक दिवस बन क्रीड़ा गयो ॥ गुफा मध्य मुनिवर को देख । बन्दन कर सुन धर्म विशेष ॥ २८ ॥ तहां पूछ मुनिवरसे सोय । तुमसे अधिक प्रभा प्रभु कोय || तब मुनिवर वोले सुन बाल । वांसपूज्य दिन दीस विशाल ॥ २८ ॥ चस्पापुर राज जिनराज | तेज पुत्र प्रभु धर्म जहाज | यह सुन धर्म धिषे वित दयो । समोशरण जिन बन्दन गयो || २० || नमस्कार कर दीक्षा लई । तप कर गणधर पदवी भई ॥ अष्ट कर्म इस विधि जार
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जिनवाणी संग्रह श
हुंचो शिवपुर सिद्ध मंकार ॥ २१ ॥ यो भव्य व्रतका सो प्रभाव । राज भोगि भयो शिवपुर राय ॥ जो नर नारि करे त सार । सुर सुब कहि पावे भव पार ॥ ३२ ॥
(१३) पुष्पांजलि व्रत कथा |
दोहा-वीर देवको प्रणमि कर, अर्चा करों त्रिकाल ।
पुष्पांजलि व्रतकी कथा, सुनो भव्य अघटाल ॥ खोपाई - पर्वत विपुलाचलपर आय । समोशरण जिनवरका पाय । तहां सुन राजा श्रेणिकराय । बन्दन चले प्रियायुत भाय ||२|| बन्दन कर पूछे नृप त । हे प्रभु पुष्पांजलि व्रत भबे ॥ मोसे कहो करों चित लाय । कोने को कहा भई आय ॥ ३ ॥ बोले गौतम वचन रसाल | जम्बू द्वीप मध्य सो विशाल । सीता नदी दक्षिण दिशि सार । मंगलावती सुदेश अपार ॥४॥
दोहा -रत्न संचयपुर तहां, वज्रसेन मप आय ।
जयवंती बनिता लसे, पुत्र बिहानी थाय ॥ ५॥
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खोपाई - पुत्र बाह जिन मन्दिर गई । श्रानोदधि मुनि वंदित भई ॥ हे मुनिनाथ कहो समझाय । मेरे पुत्र होइके नाय ॥ ६ ॥ दोहा -मुनि बोले हे वालकी, पुत्र होय शुभ सार । भूमि छह खंड सुसाधि है, मुक्ति तनो भरतार 101 सुनके मुनिके वचन तब, उपजो हर्ष अपार । क्रमसे पूरे मास नव, पुत्र भयो शुभ सार ॥८॥ यौवन वयस सो पायके, क्रोडा मण्डप सार । तहां व्योमसे बाहयो नम भूप रति सवार ॥॥ रक्षशेखरको देखकर बहुत प्रीति उर माहि । मेहनने पांच सो, विद्या दीनीं वाहि ॥१॥
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नदोश्वर प्रत कथा।
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एकासन कर लोय ॥४२॥ फल उपवास सहस्र दश होइ । अब सीजो दिन सुनिये लोह जिन पूजा कर पात्रहि दान । भोजन पानी भात प्रमान 18 नाम त्रिलोकसार दिन कहो । साठ लाख प्रोषध फल लहो ॥ चतुर्थ दिन कर आमौदर्य । नाम चतुमुख दिनसोहर्य ॥४४॥ तहां उपवास लक्ष फल हो । पञ्चम दिन विधि फरियो सोई । जिन पूजा एकासन करो। हय लक्षण जु नाम दिन धरो ॥ ४५ ॥ फल चौरासी लक्ष उपास । जासे जाय भ्रमण भव नास ॥ षष्टम दिन जिन पूजा दान । भोजन भात आमिलो पान ॥४६॥ ता दिन नाम स्वर्ग सोपान । ब्रत चालीस लक्ष फल जान ॥ सप्तम दिन जिन पूजा दान । कीजे भविजनका सन्मान ॥४७॥ सब सम्पति नाम दिन सोह। भोजन भात त्रिवेली होय ॥ फल उपवास लक्षकों जान । अष्टम दिन व्रत वितमें आन ॥ ४८॥ कर उपवास कथा रुचि सुनो। पात्र दान दे सुकृत गुनो ॥ इन्द्रध्वजवृत दिन तस नाम । सु मिरो जिनवर आठों जाम ।४। तीन करोड़ अति लाख पचास। यह फल होय हरे सब त्रास ॥ यह विधि आठ वर्षमें होइ । भाव सहित कीजे भवि लोइ ५० उत्तम सात वर्ष विधि जान । मध्यम पांव तीन लघु मान ॥ उद्यापन विधि पूर्वक सचो । वेदी मध्य माडनो रचो । ५१ । जिन पूजारु महा अभिषेक । चन्द्रोपम ध्वज कलश अनेक ॥ छत्र चमर सिंहासन करो । बहुविधि जिन पूजा अघ हरो ॥५२॥ चारों दान सुपात्रहि देउ। बहुत भक्ति कर विनय फरेउ । बहु विधि जिन प्रभावना होई। शक्ति समान करो मषि लोहे १५३॥ उद्यापनकी शक्ति न होय । तो दूनो व्रत की लो ।। जिन
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जिनवाणी संग्रह। यह प्रत कीनो अमिराम । तिन पद लयो सुक्नको धाम । ५४ । यह प्रत पूर्व महा फल लियो। प्रथम ऋषम जिनवरने कियो। अनन्तवीर्य अपराजित पाल । चक्रवर्ति पदवी भई हाल । ५५ । श्रीपाल मैना सुन्दरी । प्रत कर कुष्ट व्याधि सब हरी ॥ बहुतक नर नारी ब्रत करो। तिन सब अजर अमर पद धरो। ५६ । सुनो विधानराय हरसेन । अति प्रमोद मुख जपे बेन ॥ सब परि. वार सहित व्रत लयो। मुनिवर धर्म प्रीतिकर दयो । ५७ । बत कर फिर उद्यापन करो। धर्म ध्यान कर शुभ पद धरो॥ अन्त समाधिमरणको पाय। भयो देव हरसेन सुराय । ५८ । पर्यायान्तर जैहैं मुक्ति।ौंणिक सुनो सकल व्रत युक्ति ॥ गौतम कहो सकल अधिकार । सुनो मगधपति चित्त उदार । ५८ । जो नर नारी यह व्रत करें । निश्चय स्वर्ग मुक्ति पद धरै ॥ संकट रोग शोक सब जाहिं । दुःख दरिद्रता दूर बिलाहिं । ६० । यह व्रत नन्दीश्वरकी कथा। हेमराज सु प्रकाशी यथा ॥ शहर इटावा उत्तम स्थान । श्रावक करें धर्म शुभ ध्यान । ६१ । सुने सदा ये जैन पुराण । गुणीजनोंका राखें मान । तिहिठा सुना धर्म सम्बन्ध । कीनी कथा चौपाई बंध । ६२ । कहें सुनें देचे उपदेश । लहें भावसे पुण्य अशेष ॥ जाके नाम पाप मिट जाय । ता जिनवरके बन्दों पांय ॥ ६३ ॥ श्रीनन्दीश्वर व्रत कथा सम्पूर्णम् ॥ , (१६) निशिभोजन कया। दोहा-नमों सारदा सार बुध, करें हरै अघ लेप।
निशि भोजनभुजकी कथा, लिखू सुगम संक्षेप ॥१॥
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निशिमोजान था।
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जंबूदीप जगत विख्यात । भरत खंड छवि कहिय न जात ॥ तहां देश कुरु जांगल नाम। हस्तनागपुर उत्तम ठाम ॥ यशो भद्र भूपत गुण वास। खदत्त द्विज प्रोहित तास । सश्वमास तिथि दिन आराध । पहिली पड़वा कियो सराध बहुत बिनय सों नगरी तने। न्योत जिमाये ब्राह्मण धने ॥ दान मान सवहीकों दियो । आप विप्र भोजन नहिं कियो । इतने राय पठायो दास । मोहित गयो रायके पास ॥ राज काज कछु ऐसो भयो। करम करावत सब दिन गयो । घरमें रात रसोई करी। चुल्हें ऊपर हांडी धरी । हींग लैन उठि बाहर गई। यहां विधाता औरहीठई । मैंडफ उछल परो ता माहि । त्रिया तहां कछु जानो नाहिं । वेंगनछोंक दिये तत्काल । मैंडक मरो होय बेहाल ॥ तबई विप्र नहि आयो धाम । धरी उठाय रसोई ताम ॥ पराधीनकी ऐसी बात । औसर पायो आधी रात॥ सोय रहे सब घरके लोग । आग न दीवा कर्म संयोग ॥ भूखो प्रोहित निकसे प्रान । ततछिन बैठो रोटी खान || बेगन भोले लीनो ग्रास मेंडक मुहमें आयो तास ॥ दांतन चले वषा नहिं जबै । काढ़ धरो थालीमें तब ॥ प्रात हुए मैंडक पहिचान । तो भी विप्र न करी गिलान ॥ तिथि पूरी कर छोड़ी काय । पशुकी योनी उपजो आय ॥ सोरठा छन्द-१ घुघू २ काग ३ विलाव, ४ सावर ५गिरत्र पखेरुमा । ६ सूकर ७ अजगर भाष, ८ घाघ ८ गोह जलमें १० मगर । दश भव इहि विधि थाय, दसों जन्म नरकहि गयो । दुर्गति कारण पाय, फली पाप बट बीजयत्। दोहा-निशि भोजन करिये नहीं, प्रगट दोष अविलोय।
परभवसब सुख संपजे यह भव रोग न होय॥
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जिनवाणी संग्रह।
छप्पय (छन्द) कोड़ी बुध बल हरे, कम्प गद करे कसारी। मकड़ी कारण. पाय कोढ़ उपजे दुख भारी। जुआं जलोदर जने फांस गल विधा बढ़ाये। बाल सबे सुरभंग बमन मात्री उपजावे ॥ तालुवे छिद्र बीछ भखत और व्याधि बहुकरहि सब । यह प्रगट दोष निश असनके परमव दोष परोक्ष फल जो अघ इहि भव दुख करे, परभव क्यों न करेय। डसत सांप पौड़े तुरत, लहर क्यों न दुख देय। सुवचन सुन डाहारजे, मूरख मुदित न होय । मणिधर फण फेरे सही, नहीं सांप नहीं होय ॥ सुववन सत गुरुके ववन, और न सुववन कोय । सत गुरु वही पिछानिये,जा उर लोम न होय॥५॥ भूधर सुषचन सांभलो,स्वपरपक्ष कर बौन । समुद्र रेणुका जो मिले, तोड़े तें गुण कौन ॥इति
(१७) श्रीरविब्रत कथा चौपाई-श्रीसुखदायक पार्स जिनेश।सुमति सुगति दाता परमेश ॥ सुमिरों शारद पद अरिवृन्द । तिनकर व्रत प्रगटो सानंद ॥१॥. वाणारस नगरी सुविशाल । प्रजापाल प्रगटो भूपाल ॥ मतिसागर तहां सेठ सुजान । ताका भूप करे सन्मान ॥ २ ॥ तासु त्रिया गुणसुन्दरि नाम । सात पुत्र ताके अभिराम ॥ षट् सुत भोग करें परणीत । बाल रूप गुण धर सुविनीत ॥ ३ ॥ सहस्रकूट शोभित जिन धाम । आये पति पति खंडित काम ॥ सुनि मुनि आगम हर्षित भये । सर्व लोग बन्दनको गये ॥ ४ ॥ गुरु वाणी सुनिके गुणवती । सेठिन तब जो करी बीमती ॥५॥ करुणा
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रवि प्रत कथा।
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निधि मा मुनिराय। सुनो मध्य तुम चित्त लगाय । जब आषाढ़ सुदि पक्ष विचार। तब को अंतिम रविवार ॥६॥ अनशन अथवा लघु आहार। लषणादिक जो करे परिहार नवफल युत पंचामृत धार। वसु प्रकार पूजो भवहार ॥ ७॥ उत्तम फल इक्यासी जान। नवश्रावक घर दीजे आन ॥ या विधि करो नव वर्ष प्रमाण। याते होय सर्व कल्याण ॥८॥ अथवा एक वर्ष एक सार। कीजे रविव्रत मनहिं विचार ॥ सुन साहुन निज घरको गई। व्रत निन्दासे निन्दित भई ॥८॥ प्रत निन्दासे निर्धन भये। सात पुत्र अयोध्यापुर गये ॥ तहां जिनदत्त सेठ गृह रहे । पूर्व दुःकृतका फल लहें ॥ १० ॥ मात पितां गृह दु:खित सदा । अवधि सहित मुनि पूछे तदा ॥ दयावन्त मुनि ऐसे कहो । व्रत निन्दासे तुम दुःख लहो ॥ ११ ॥ सुन गुरु वचन बहुरि वृत लयो। पुण्य कियो घरमें धन भयो । भविजन सुनो कथा सम्बन्ध । जहाँ रहते थे वे सब नन्द ॥१२॥ एक दिवस गुणधर सुकुमार । घास ले आये गृह द्वार ॥ क्षुधा वन्त भावज पे गयो । दंत बिना नहिं भोजन दयो ।॥ १३ ॥ बहुरि गये जहां भूलों दन्त । देखो तासे अहि लिपटन्त ॥ फणिपतिकी तहां विनती करी। पद्मावति प्रगटी सुदरी ॥१४॥ सुन्दर मणिमय पारसनाथ । प्रतिमा पंचरत्न शुभ हाथ ॥ देकर कहो कुवर कर भोग । करो क्षणक पूजा सयोग ॥१५॥ आनधि निज घरमें धरो। तिहकर तिनको दाखि हरो ॥ सुख बिलास सेबे सप नन्द । निन प्रति पूजों पार्स जिनेन्द्र ॥ १६ ॥ साकेत नगरी अभिराम । जिन प्रसाद राचा शुभ धाम ॥ करी प्रतिष्ठा पुण्य
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पयुषण पव भजनावली।
४५५ मूकाला । ये मंत्रोंमें मंत्र निराला,सुखसे पूर पूर पूरब सब सुन लो गैनी भाई, ये छल है बहु दुख दाई । है निश्चय धरम सहाई, विपदा चूर चूर चूर ॥ ३ ॥ कोई रंचक दगा न करना, छलियासे डरते रहना । सब मनमें सदा सुमरना, जिनका नूर नूर नूर ॥४॥ हे सरल स्वभावी जैनी, इस छलकी धारा पैनी। “विद्या" मत चढ़ये नसेनी, श्रावक शूर शूर शूर ॥ ५॥
उत्सम सत्य
जगत में उत्तम सत्य महान ! बुद्धिवान गुणवान ॥जगतमें। झूठ बचन नहिं मुखसे बोलो, झूठ महा दुख खान जगतमें॥ दुनियामें है सत्यकी महिमा, सत्य ही मंत्र महान ॥जगतमें।। दृढ़ प्रतिज्ञ बन जो सत बोले तो निश्चय कल्याण ॥ जगतमें० ॥ पर विश्वास घात न करना,और न करना मान ॥ जगतमें || पर वस्तुमें मन न लुभानो, चाहे जाचे प्राण ॥ जगतमें० ॥ सत्य सत्य सब नित्य हो सुमरो, गाकर उसका गाम ॥ जगतमें ॥ उत्तम सत्यकी माला जपलो,धरफर हृदे ध्यान ॥जगतमें॥हाथ जोड़ सब शीश नवावें, दे प्रभु यह बरदान ॥जगत में ॥ विद्या विनय यही है प्रभुजी, पाऊ उच्च स्थान ॥ जगतमें ॥
उत्तम शौच जैनी धारियो जी,उत्तम शौच आज मन भाया ॥टेका दुख दाई ला. लच दुख देता सुनलो उसका हाल । सच्चे मनसे लोभ त्याग दो ये जोका जंजाल ॥१॥टेक॥ कौन कहत है लोभ बिना तुम,होवोगे कंगाल । दूर हटाओ दिलसे इसको कैसा रही ख्याल ॥२॥ टेक॥ निर्लोभी बननेकी शिक्षा प्रभुसे लेलो आज । उत्तम शौचकी जाप
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पर्युषण पर्वनावली।
४५० वाहिये ॥ ४ ॥ नर भव महा दुर्लभ रतन मुश्किलसे “विद्या" है मिला । तो क्या बिना तपके इसे, योंही गमाना चाहिये ॥ ५॥
उत्तम त्याग ( राग-बंजारा ) मन उत्तम त्याग समाया, नरभव जीवनका पाया। है दान चार परकारा, दे औषधि दान अहारा ॥ टेक ॥ दिल अभय शास्त्र मनमाया, नरभव जीवनका पाया । तप, राग द्वेष, निरवारे, मेरे कर्म शत्रुको मारे । मुनियोंने देह तपाया,मेरे मन त्याग सुहाया।२।। ये जीवन बहु दुखदाई; ये विपदा तप बिन आई। क्यों पाप कूप खुदाया, नर भव जीवनका पाया ॥ ३ ॥ दुनिया भी अन्तमें न्यारी “विद्या" निश्चय है ख्वारो। कह प्रभुसे नेह लगाया, मेरे मन त्याग समाया ॥४॥
(उत्तम आकिचन) ( रघुवर कौशल्याके लाल मुनिकी यज्ञ रवाने वाले) उत्तम आकिंवन व्रतधार जैनी मात्र कहाने वाले । जनी मात्र कहाने वाले, त्यागका रूप दिखाने वाले ॥ १ ॥ त्यागो चौबिस परिप्रह भेद । फिर घर तीरथ सिखर सम्मेद करना अवश्यक नहीं खेद, धर्मकी बाढ़ बढ़ाने वाले ॥ २॥ निश्चय जिनवाणी श्रद्धान, जगमें जैनी धर्म प्रधान । कहते बुद्धिवान गुणवान, जग उपदेश सिखाने वाले॥ ३॥ ये है दुस्खदाई संसार, इसमें सुखपाना दुश्वार । जीवके दुश्मन कई हजार, पग पग दुःख दिलाने वाले ॥४॥ है दुनियां निस्सार जायेंगे सब कोई हाथ पसार । “विद्या" दान चार परकार, मुक्तिकी राह बताने वाले ॥५॥ . मोट-भी मतो वियावतो कृत "विद्याविनोद" नामक बड़ा संग्रह अलग तबार होगा।
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संसार दुख दर्पण |
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जियने, सुरगति सुन्दर पाई । दुख पायो अधिकाई ॥ बदन किरायो । देखा २ सुख भोग पराये, 1
वह जिय जाने, या प्रभु केवल ज्ञानी ॥ कुछ शुभ भावन कर या पर मन इच्छित सुख नहि पायो, रंक भयो, लख सम्पत परकी, झुर कुर कर चिन्ता, दुख पायो 1
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बहु दुख माना, चिन्ता कीनी, रुदन किया दुःबदाई | जब मृत्युसे मास छः पहिले, गलमाला मुरझाई ॥ हा हा ! यह सुख भोग छुटेंगे अब होगी थिति पूरी इच्छा मनकी पूरी नाहीं, रह गई हाय अधूरी ॥ कोई पुन्य उदय जब आयो, तब मानुष गति पाई । कर्म उदय कर या गति मांदो, कष्ट अनेक लहाई ॥ पुत्र बिना दुखिया नर कोई, विन्तत मनमें ऐसे 1 मम धन संपति कौन भोगवे, नाम चलेगा कैसे ॥ होत पुत्र मरजाय दुखी तब, यह कह रुदन मचावे | जो ना होता तो अच्छा था, कष्ट सहा नहि जाबें ॥ जोयो पुत्र भयो दुर्व्यसनी धन सम्पति सब खोयो । अब दुख मानत मातपिता सब, कुलका नाम डुबोयो || मित्र स्वारथी स्वारथ सावन कर आंखें दिखलावे । बैरो बनकर धन यश प्राणन, का ग्राहक बन जावे ॥ कुलटा नारी कहल कारणी, कर्कश बचन उबारे । दोऊ कुलकी लाज गंवावे, पतिको विष दे मारे । वेश्यागामी, परतिय लम्पट, ज्वारी, मांसाहारी । मदु मतवाले पतिसे दुखिया है पतिबरता नारी ॥ पुत्र पिता पर अरि सम टूट, या यह मर जाये । पिता पुत्र पर रुष्ट होय कर, घर से दूर करावे ॥ भाई भाई लड़त स्वान सम, हैं प्राणनके लेवा | धार कषाय उपाधि मंचाने, हैं दोऊ दुख देवा बिन दुखिया बिन नारी पति कोई कोई बाला वृद्ध पती पर,
विधवा नारि पती
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________________ 468 जिनवाणो संग्रह। ऐसा कहिये, नास न जाको होई॥ जल बद् बुद्वत् जीवन जगमें, आस नहीं इक दिनकी / काल बली मुख खोलत जोहै, बाट एक पल छिनकी // फिर जगमें, किससे मोह कीजे, कौन बस्तु थिर कहिये। ऐसे जग जंजाल जालमें, फँसकर बहु दुख लहिये // कूए भांग पड़ीको पीकर, सबने सुध बुध खोई / उत्तम नर भव क्षेत्र पायकर, बेल न सुखकी बोई // धर्म साध, परहित नहिं कीना, योंही जन्म गंवाया / मूढ पुरुषने रत्न अमोलक, सा. गर बीच डुबाया // सुख चाहत भी सुख नहिं पावत, दुख पाव संसारी / याका कारण, मोह अज्ञता, अरु मिथ्यात दुखारी // जो चाहे सुख, जिय संसारी, आपा परको जान / हित अनहित अरु पाप पुन्यका, सभी भेद पहिचान // विश्व प्रेम हिरदय बिच धारे, पर उपकारी होबै / पाप पंक आतम पर लागो संजम जलसे धोके // दर्शन: शान, सुचारित्र पाल, इच्छा भाव घटावै। पंच महावत धारण करके, जगसे मोह हटाबै // यह जग वस्तु समस्त विनासें, इनसे ममता त्यागे / आत्म चितवन कर, निजमनमें, आतम हितमें लागे॥ मैं आतम परमातम, विद् आनन्द रूप सुख रूपी। अजर अमर गुण शान शांतिमय हू आनद स्वरूपी / यह तन रूप स्वरूप न मेरो, मैं चेतन अविनाशी। ज्ञाता दृष्टा सुख अनन्त मय, हूं शिवपुर का वासी // मेरी केवल झान ज्योतिसे, भरम तिमर नस जावे। मैं ऐसा शुद्धात्म, चिदानन्द, जब यह जीव लखावे // तब ही कर्म कलंक बिनासे, जीव अमर पद पावै / मिले निराकुल सुखा अविनाशी, परमातम कहलाये // आबे कब वह शुभ दिन जब मम, शान "ज्योति" जग जाये। सत्य अमर आतम को पाकर, मम जियरा सुख पाये। दोहा-मेरी है यह भाषना, सुख पावे संसार / मिले निराकरता मु, हो आनन्द अपार /