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* पंचकल्याणक पाठ *
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धर्मवक चले आगे: रवि जहं लाजहीं। फुनि भृगार-प्रमुख वसु; मंगल राजहीं ॥ राजहीं चौदह वारु अतिशय; देवरचित सुहावने । जिनराज केवल ज्ञानमहिमा, अवर कहत कहा बने ॥ तब इंद्र. आनि कियो महोच्छव: सभा शोभित अति वनी ॥ धर्मोपदेश दियो तहां: उच्छरिय वानी जिनतनो ॥ २० ॥ क्षुधा तृषा अरु राग: द्वेष असुहावने। जनम जरा अरु मरण; त्रिदोष भयावने ॥ रोग शोक भय विस्मय, अरु निद्रा घणो। खेद स्वेद मद मोह, अरति चिंता गणो ॥ गणिये अठारह दोष निनकरि: रहित देव निरञ्जनो ॥ नव परमकेवल लब्धिमंडित: शिवरमणि-मनरञ्जनो ॥ श्रीज्ञानकल्याणक सुमहिमा: सुनत सब सुख पावहीं । भणि 'रूपवन्द' सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं ॥२१॥
श्री निर्वाण कल्याणक । केवलदृष्टि चराचर: देख्यो जारिसो। भविजनप्रति उपदेश्यो; जिनवर तारिसो ॥ भवभयभीत महाजन; शरण आइया । रत्नत्रयलच्छन शिवपंथ लगाइया ॥ लगाइया पंथ जु भव्य फनि, प्रभु नृतिय सुकल जू पूरियो। नजि तेरहें गुणथान योग: अयोग पथ. पग धारियो ॥ पुनि चौदहें चौथे सुकलबल, बहत्तर तेरह हनी । इमि धाति वसुविधि कर्म पहुंच्यो, समयमें पंचमगती ॥२२॥ लोकशिखर तनुवान, बलयमहं संठियो। धर्मद्रव्यविन गमन न; जिहिं
आगे कियो ॥ मयनरहित मूषोदर, अबर जारिसो। किमपि हीन निजतनुते, भयौ प्रभु तारिसो॥ तारिसो पञ्जय नित्य अविचल; अर्थपर्नय क्षणक्षयी। निश्चयनयेन अनन्तगुण विवहार, नय वसु गुणमयी ॥ वस्तु स्वभाव विभावविरहित, शुद्ध परणति परिणयो।