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* जिनवाणी संग्रह *
विद्रूप परमानन्द मंदिर, सिद्ध परमातम भयो ॥ १३ ॥ तनुपरमाणू दामिनिपर, सब खिर गये । रहे शेष नखकेशरूप; जे परिणये । तब हरिप्रमुख चतुरविधि; सुरगण शुभ सच्या। माया मई नखकेश रहित जिनतनु रच्यो ॥ रवि अगर चन्दन प्रमुख, परिमल, द्रव्य जिन जयकारिया। पद पतत अग्निकुमार मुकटानल मुविधि संस्कारियो ॥ निर्वाण कल्याणक सुमहिमा सुनत सब सुख पा. इयो। भण रूपचन्द्र सुदेव जिनवर जगति मङ्गल गाइयो ॥ मैं मतिहीन भक्तिवश भावना भाइयो। मंगल गीत प्रबन्ध सो निज गुण गाइयो । जो नर सुनहि बखानहीं स्वर धरि गावहीं। मन बांछित फल ते नर निश्चय पावहीं ॥ पावें ते आठो सिद्धि नवनिधि मन प्रतीत जो आनिये। भ्रम भाव छूटे सकल मनके जिन स्वरूप ये जानिये। पुनि हरै पातक टरत विघ्न सो होय महल नित नये । भण रूपचन्द्र त्रिलोकपति जिनदेव चौसंगहि गये ।। ॥ इति श्रीजिनेन्द्रनिर्वाण कल्याण मङ्गल समाप्तम् ॥
३२ छहढाला श्रीयुत पण्डित दौलतरामजी कृततोन भुवनमें सार, वीतराग विज्ञानता। शिवस्वरूप शिवकार, नमहं त्रियोग सम्हारिके ॥
प्रथमढाल-चौपाई छन्द १५ मात्रा। जे त्रिभुवनमें जीव अनन्त । सुख चाहें दुखतें भयवन्त ॥ तातें दुखहारी सुखकार । कहैं सीख गुरु करुणाधार ॥१॥ ताहि सुनो भवि मन थिर आन। जो वाहो अपनो कल्यान ॥ मोह महा मद