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* छहढाला *
पियो अनादि । भूल आपको भरमत बादि ॥२॥ तास भ्रमण को है बहु कथा पै कछु कहूं कही मुनि यथा ॥ काल अनन्त निगोद मंझार । बीती एकेन्द्री तन धार ॥ ३॥ एक श्वासमें अठदशबार । जन्मो मरो भरो दुख भार ॥ निकस भूमि जल पावक भयो । पवन प्रत्येक बनस्पति थयो ॥ ४ ॥ दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणी। त्यों पर्याय लहो त्रस तणी ॥ लट पिपील अलि आदि शरीर। धरधर मरा सही बहुपीर ॥ ५॥ कबहूं पंचेंद्रिय पशु भयो । मन बिन नि. पट अज्ञानो थयो। सिंहादिक सैनी व कर । निर्बल पशु हति खाए भृर ॥६॥ कबहूं आप भयो बलहीन सबलनकर खायो अति दीन । छेदन भेदन भूखरु प्यास । भार बहन हिम आतप त्रास ॥७॥ वध बंधन आदिक दुख घने । कोट जीभकर जात न भने । अतिसंक्त . श भावते मरो । घोर शुभ्र सागरमें परो॥ ८॥ तहां भूमि परसत दुख इसो। बीछू सहस डसें नहि तिसो ॥ तहां राध श्रोणित बाहिनी । कृमि कुल कलित देह दाहिनो ॥ ६ ॥ सेमरतरु जुत दल असिपत्र । असि ज्यों देह विदारे तत्र । मेरुसमान लोह गलजाय । ऐसी शीत उष्णता थाय ॥ १० ॥ तिल तिल करें देहके खण्ड । असुर भिड़ावे दुष्ट प्रचण्ड । सिंधु नोरते प्यास न जाय। तो पण एक न बूद लहाय ॥ ११॥ तीन लोकको नाज जो खाय । मिट न भूख कणा न लहाय ॥ ये दुख बहु सागरलों सहै। करम योगते नरगति लहै ॥ १२ जननी उदर बसो नवमास । अङ्ग सकुवते पाई त्रास ॥.निकसत जे दुख पाये घोर । तिनको कहत न आवे ओर ॥ १३ ॥ बालपनेमें झान न लयो । तरुण समय तरुणी रत रह्यो । अर्द्धमृतक सम बूढापनो। कैसे रूप लखें आपनो ॥१४॥