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* जिनवाणी संग्रह *
कभी अकाम निर्जरा करे। भवनत्रिकमें सुर-तन धरै ॥ विषय चाह दावानल दह्यो। मरत विलाप करत दुःख सह्यो ॥१५॥ जो विमानवासी हू थाय। सम्यकदर्शन बिन दुख पाय ॥ तहते चय थावर तन धरै । यों परिवर्तन पूरे करै ॥ १६ ॥
द्वितीय ढाल-पद्धरीछंद १५ मात्रा। ऐसे मिथ्या द्वग ज्ञान वर्ण । वश भ्रमत भरत दुःख जन्म मर्ण। ताते इनको तजिये सुमान । सुन तिन संक्षेप कहूं बखान ॥ १ ॥ जीवादि प्रयोजन भततत्त्व । सर तिन मांहि विपर्ययत्व ॥ वेत. नको है उपयोग रूप। बिन मूरति चिन्मूरति अनूप ॥२। पुद्गल नभ धर्म अधर्म काल । इनतैन्यारी है जीव वाल ॥ तान जान विपरीति मान । करि करें देहमें निज पिछान ॥३॥ मैं सुखी दुखी में रङ्क राव । मेरो धन गृह गोधन प्रभाव ॥ मेरे सुन तिय मैं सबल दीन । वे रूप सुभग मूरख प्रवीन ॥४। तन उपजत अपनी उपजजान । नन नशत आपको नाश मान । रागादि प्रगट ये दुःख दैन । तिनहीको सेवन गिनत चैन ॥५॥ शभ अशुभ बंधके फल मकार । रति अरत को निजपद बिसार । आतम हितहेतु विराग ज्ञान । ते लखे औपत कष्ट दान ॥६॥ रोके न चाह निज शक्ति खोय। शिव. रूप निराकुलता न जोय। या ही प्रतीत युत कछुक ज्ञान । सो दुखदायक अज्ञान जान ॥७॥ इन जुत विषयनिमें जो प्रवृत्त । नाक जानो मिथ्या चरित्त ॥ यो मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह। अब जे गृहीत सुनिये सुतेह ॥८॥ जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव । पोखौं विर दर्शन मोह एव ।। अन्तर रागादिक धरे जेह। बाहर धन अंबरते सनेह ॥६॥ धारे कुलिंग लहि महत भाव । ते कुगुरु जन्म जल