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सोलह कारण पूजा।
(६३) सोलह कारण पूजा अडिल्ल-सोलहकारण माय तीर्थ कर जे भये। हरषे इन्द्र अपार मेरूपै ले गये ॥ पूजा करि निज धन्य लख्यौ बहु वावसौं । हमहू षोड़शकारण भावें भावसों ॥१॥
ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादि षोड़शकारणानि ! अत्रावतरअवतर। संवौषट् । अत्र तिष्ठ तिष्ठ । ठः ठः। अत्र मम सन्निहितोभव भव वषट् । चौपाई-कंचनझारी निरमल नीर । पूजौं जिनवर गुणगंभीर ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ॥ दर्शविशुद्धि भावना भाय। सोलह तीर्थकर पदपाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ १ ॥ ॐ हीं दर्शनविशुद्धयादिषोड़शकारणेभ्यो जन्ममृत्युविनाशाय जलं।
चंदन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्रीजिनवरके पाय ।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्श ॥२॥ ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः चन्दनं ।
तन्दुल धवल सुगन्ध अनूप, । पूजौं जिनवर तिहु जगभूप।
परमगुरु हो, जय जय नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शवि० ॥३॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्योऽक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् ।
फूल सुगन्ध मधुपगुजार। पूजौं जिनवर जगदाधार । परमगुरु हो जय जय नाथ परमगुरु हो ॥४॥ ओं ह्रीं दर्शनविशुद्धयादिषोडशकारणेभ्यः कामवण विध्वंसनायपुष्पं॥
सदनेवज बहुविध पकवान। पूजौं श्रीजिनवर गुणखान परमगुरु हो, जब जब नाथ परमगुरु हो ॥ दर्शवि० ॥ ५ ॥