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अठारह नाते। हुमा धनदेव जिसने मुझे ध्याहा है। मेरी तेरी है मात एक जिससे लगता तु भाया है ॥ वेश्या सौत है मैं हूं धनदेव पुत्र मेरा है। मैं गणिकासुत बधू गनिकापति यों लगा ससुरा है।। कहे धनदेवसे नाते जताया मेद सारा है। सुना अहवाल घबराके शब्द हाहा पुकारा है ॥ देखा जगका हाल हुए कैसे कैसे अवर जकारी । अठारह नाते हुए हैं एक जन्मही मैं जारी॥ ५॥ प्रथम पैदा किया मुझको इस नाते महतारी हैं । मेरे भाईकी स्त्री है जिस करके मुझ भावी है। पिता मुझ धनदेव है जिसकी माता तू दादी है ॥ सौत भी है वह जु मेरे मालिककी प्रिय प्यारी हैं। सौत पुत्र वधू गणिका सो मेरी भी वधू जाहिर। मैं उसके पुत्रकी स्त्री लगी मेरी सासू सरासर । कहे नाते अठारह अतमें इक सुगुरु सीख है। छुटा जगजालसे यहां कर्म शत्रुका बड़ा डर है । कुदन ऐसे अनर्थ माया विधना जगमैं विस्तारी। अठारह नाते हुए हैं एक जन्म ही में जारी ॥ ६॥ * इति *
(२६) अठारह जाते की कथा
मालवदेश उज्जयनीविर्षे राजा विश्वसौन तहां सुदत्त नाम श्रेष्ठी वसे सो सोलह कोटिको धनी, सो वसन्ततिलका नाम वेश्यापर आशक्त होय ताहि अपने घरमें राखी, सो गर्भवती भई, जब रोगसहित देह भई, तब घरमें से काढ़ि दई बहुरि बसन्ततिलका दुखी हो कर अपने घर आई सो उसके गर्षसे एक पुत्र और एक पुत्री साथही जुगल उत्पन्न होने के कारण खेद खिन्न हुई