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* जिनवाणी संग्रह
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मान्यं ॥ १३६ ॥ मंत्र सु जंग्रह भेष जताई। सैन्य सुथंभन मोहन भाई ॥ और जिती जगमें बर विद्या । तोहि मिलें भ्रम त्याग निषिद्या ॥ १४० ॥
अथ तकारादि चतुथं प्रकरण ।
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तया । जहं तअअ वरन पासा ढरंत । तहं सुनि पूछक जो फल कहंत ॥ जो करहु देव पूजा पुनोत । तो पैहो अभिमत फल विनीत ॥ १४१ ॥ सुत पोत्र सुखद धन धान्य लाहु । यह मिलें तोहि वांछित उछाहु || व्यापारमाहिं बहु मिले दवं । अरु जून विजय नैं लहै सर्व ॥ १४२ ॥ यामें मति विन्ता मानु मित्त | निज इष्ट देव पद भजहु नित्त ॥ विन पुन्य नहीं सुख जगत माहिं । जिमि वीज विना नहिं तरु लगाहिं ॥ १४३ ॥
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तर । जब तअर प्रगट होवे सुजान । तब मध्यम फल जानो निदान ॥ चित चाहहु वनिता पुरुष आदि। सो आल तजहु सुनि भेदवादि ॥ १४४ ॥ निजभावीवश ये मिलहि सर्व । परिवार कुटुंबादिक सुदर्व ॥ पहिले जो कछु धन भयो हान । सोऊ न मिले अब ही सयान || १४५ ॥ कछु काल व्यतीत भये समस्त । है अथ लाभ तुमको प्रशस्त ॥ यह जान हिये निरधारवीर । भि श्रीपति पद सब टरे पीर ॥ १४६ ॥
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तयहं । तत्ता अकार हंकार आय । हे पूछक तोसों इमि कहायः । दिनरात तोहि धनहेत चाह । मनमें यह वर्तत है कि नाह ॥ १४७ ॥ सो पुन्य बिना कहु केम होय । हैं दिन तेरे अति नष्ट जोय ॥ कछु दिवe feat भये प्रमान । धनलाभ होय तोको निदान ॥१४८॥