________________
११६
* जिनवाणी संग्रह *
सामायिक धन्य आज मैं भयो योग मिलियो सुख दायक ॥ १ ॥ हे सर्वज्ञ जिनेश किये जे पाप जु मैं अब । ते सब मनवचकाय योगकी गुप्ति बिना लभ ॥ आप समीप हजूरमाहिं मैं खड़ी खड़ो अब । दोष कहू सो सुनो करो नठ दुख देहि जब ॥ २ ॥ क्रोध मान मद लोभ मोह मायावश प्रानी । दुःखसहित जे किये दया तिनकी नहिं आनी ॥ बिना प्रयोजन एकेंद्रिय बिति च पंचेंद्रिय । आप प्रसादहि मिटे दोष जो लग्यो मोहि जिय || ३ || आपसमें इक ठोर थापि करि जे दुख दीने । पेलि दिये पगतले दाबकरि प्राण हरीने || आप जगत के जीव जिते तिन सबके नायक । अरज करों मैं सुनो दोष मेटो सुखदायक ॥ ४ ॥ अंजन आदिक चोर महा घनघोर पापमय । तिनके जे अपराध भये क्षिमा क्षिमा किय || मेरे जे अब दाष भये तं क्षमों दयानिधि | यह पड़िकोणो कियो आदि पट कर्ममांहि विधि ||५||
अथ द्वितीय प्रत्याख्यानकर्म ।
जा प्रमादवश होय विराधे जीव घनेरे । तिनको जो अपराध भयो मर अघ ढेरे ॥ सो सब झूठो होउ जगतपतिके परसादै । जा प्रसाद मिले सर्व सुख दुःख न लाधे ॥ ६ ॥ मैं पापी निर्लज्ज दयाकरि हीन महाशठ | किये पाप अति घोर पापमति होय वित्त दुठ ॥ निदू हूं मैं बारबार निज जियको गरहूं । सबविध धर्म उपाय पाय फिर पापहिं करहूं || ७|| दुर्लभ है नरजन्म तथा श्रावककुल भारी । सतसंगति संयोग धर्म जिन श्रद्धाधारी ॥ जिनवचनामृतधार समा वर्तें जिनवानी । तौहू जीव संहारे धिक धिक धिक हम जानी ॥८ इन्द्रियलंपट होय खोय निज ज्ञान जमा सब । अज्ञानी जिम करे