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* समायिक पाठ भाषा *
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तिसो विधि हिंसक है अब ॥ गमनागमन करतो जीब विराध भोले । ते सब दोष किये निन्दू अब मनबच तोले ॥६॥ आलोचनविध थकी दोष लागे जू घनेरे । ते सब दोष बिनाश होउ तुमतें जिन मेरे || बार बार इस भांति मोह मद दोष कुटिलता । ईर्षादिकतै भये निन्दिये जे भयभीता ॥ १० ॥
तृतीय सामायिक कर्म ।
सब जीवन मैं मेरे समताभाव जग्यो है । सब जिय मो सम समता राखो भाव लग्यो है || आर्स रौद्र द्वय ध्यान छांड़ि करिहं सामायक || संयम मो कब शुद्ध होय यह भाव वधायक ॥ ११ ॥ पृथिवी जल अरु अग्नि वायु च काय वनस्पति । पांचहि थावरमाहिं तथा सजीव बसें जिन ॥ वे इन्द्रिय तिय वउ पंचेंद्रियमांहि जीव सब। तिनमें क्षमा कराऊ मुझपर क्षमा करो अब ||१२|| इस अवसर मैं मेरे सब सम कञ्चन अरु त्रण | महल मसान समान शत्रु अरु मित्रहि सम गण || जामन मरन समान जानि हम समता कीनी । सामयिकका काल जिने यह भाव नवोनो ॥ १३ ॥ मेरो है इक आतम ताने ममत जु कोनौ ॥ ओर सबै मम भिन्न जानि समतारस भोनो ॥ मात पिता सुत बंधु मित्र जिय आदि सवे यह । मते न्यारे जानि जथारथरूप कर्यो गह ॥ १४ ॥ मैं अनादि : जगजालमाहिं फंसरूप न जान्यो । एकेंद्रिय दे आदि जन्तुको प्राण हरायो || ते अंब जीव समूह सुनी मेरी यह अरजी भवभवको अपराध क्षमा कोज्यो करि मरजी ॥१५॥
अथ चतुर्थ स्तवन कर्म ।
नमू' ऋषभ जिनदेव अजित जिन जोत कर्मको । संभव भव
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