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* समायिक पाठ भाषा*
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तीरहिं गये। अविकार अधल अरूर शुष, चिद्रूप अविनाशी भये ॥ १२ ॥ निजमाहि लोक अलोक गुण, पर्याय प्रतिविम्बित थये । रहि हैं अनन्तानन्त काल यया तथा शिव परणये ॥ धनि धन्य है जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया । तिनही अनादी भ्रमण पञ्च, प्रकार तजि बर सुख लिया ॥ १३॥ मुख्योपचार दुभेद यों वड़, भागि रत्न त्रय धरै । अरु धरेंगे ते शिव लहैं तिन,सुजशजलजगमल हरॆ ॥ इम जानि आलस हानि साहस, ठानि यह सिद्ध
आदरों। जबलों न रोग जरा गहै तब लों जगत निजहित करों ॥ १४॥ यह राग आग दहै सदा ताते समामृत पीजिये ॥ चिर भजे विषय कषाय अब तो, त्याग निजपद लोजिये। कहा रच्यो पर पदमें न तेरो, पद यहै क्यों दुख सहे। अब दौल होउ सुखी स्वरद रवि, दाव मत चूको यहै. ॥५॥
दोहा-इक नव वसु इक वर्षकी, तोज सुकुल बैशाख । करयो तत्व उपदेश यह, लखि बुधजनकी भाख ॥१॥ लघु धी तथा प्रमादते, शब्द अर्थकी भूल। सुधी सुधार पढो सदा; जो पावो भव कूल ॥ २॥
३३ समायिक पाठ माका ।
अथ प्रथम प्रतिक्रमण कर्म। काल अनन्त भ्रम्यो जगमें सहियो दुख भारी । जन्ममरण नित किये पापको है अधिकारी ॥ कोटि भवांतरमाहिं मिलन दुर्लभ