________________
* जिनवाणी संग्रह *
इकबार लेत अहार दिनमें खड़े अलप निज पानमें। कचलोंच करत न डरत परिवह, सों लगे निज ध्यानमें ॥ अरि मित्र महल मसान कंचन, कांच, निन्दन धुतिकरण । अर्घावतारण असि प्रहा रण में सदा समता धरण ॥६॥ तप तपैं द्वादश धरें वृष दश, are से सदा । मुनि साथमें वा एक विचरें, वह नहिं भवसुख कदा ॥ यों हैं सकल संयम चरित सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिट परकी प्रवृति सब || || जिन परम पैनी सुबुधि छैनी डार अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादिने, निज भावको व्यारा किया || निजमाहिं निजके हेत निजकर, आपको आपै गह्यो । गुणगणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञ ेय, मंकार कछु भेदन रह्यो ॥ जहं ध्यान ध्याता ध्येयको न, विल्कप बच भेद न जहां | विद्वाव कर्म विदेश कर्ता, चेतना किरिया तहां ॥ तीनों अभिन्न अखिन्न शुद्ध, उपयोगकी निश्चल दशा । प्रगटी जहां गज्ञानवत ये, तीनधा एक लशा ॥ ६ ॥ परमाण नय निक्षेपको न उद्योत, अनुभवमे दिखे। हग-ज्ञान- सुख-बल मय सदा नहिं आन भाव जो मो विखै । मैं साध्य साधक मैं अवाधक, कर्म अरु तसु फलनितें ॥ वितपिंड चंड अखंड, सुगुन करड च्युत पुनि कलनितें ॥ १० ॥ यों चिन्त्य निजमें थिर भए तिन, अकथ जो आनन्द लहो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ॥ तवही शुकल ध्यानाग्नि करि चउ, घात विधि कानन दहो । सब लख्यो केवलज्ञान करि भवि, लोककों शिवमग कह्मो ॥११॥ पुनि घाति शेष अघात बिधि, छिनमाहिं अष्टम भू बसे । बहु कर्म विनसे सुगुण बसु, सम्यक्त आदिक सब लसै ॥ संसार खार अपार पारावार, तरि
११४
.