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* छह टाला
विरिवों पद । पर सम्यक्ज्ञान न लाघौ । दुर्लभ निजमें मुन साधौ ॥ १३ ॥ जे भाव मोहतें न्यारे । द्वगज्ञान वृतादिक सारे ॥ सो धर्म जवे जिय धारे। तबहीं सुख अचल निहारे ॥ १४ ॥ सो धर्म मुनिनकरि धरिये । तिनकी करतूति उचरिये ॥ भवि प्राणी । अपनो अनुभूति पिछानी ॥ १६ ॥
ताकू सुनिये
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अथ षष्टम ढाल - हरिगीता छंद २८ मात्रा । काय जीवन हननतै सब, बिध दरब हिंसा दूरी | रागादि भाव निवारते, हिंसा न भावित अवतरी ॥ जिनके न लेश मृषा न जल तृण, हूं बिना दीयौं गहैं । अठदश सहस विधि शीलघर विदब्रह्ममें नित रमि रहें ||१|| अन्तर चतुर्दश भेद बाहर, संग दशधातै टलें । परमाद तजि चऊ करम हो लखि, समिति ईय्यते चलें 11 जग सुहितकर सब अहित हर श्रुति सुखद सब संशय हरै | भ्रम रोग हर जिनके बचन मुख, चद्रतें अमृत भरें ॥२॥ छ्यालीस दोष बिना सुकुल, श्रावक तणे घर अशनको । लैं तप बढ़ावन हेत नहिं तन; पोषते तजि रसनको ॥ शुचि ज्ञान संयम उपकरण लखि, के ग लखिकें करें । निर्जंतु थान विलोक तन मल, मूत्र श्लेषम परिह ||३|| सम्यकप्रकार निरोध मन वच, काय आतम ध्यावते । तिन सुथिर मुद्रा देखि मृगगण, उपल खाज खुजावते ॥ रस रूप, गंध तथा फरल अरु, शब्द शुभ असुहावने । तिनमें न राग विरोध पंचेंद्रिय जयन पद पावने ॥ ४ ॥ समता सम्हारें श्रुति उचारें; बन्दना जिन देवको । नित करें श्रुति रति करें प्रतिक्रम तजें तन अहमेवको || जिनके न न्हौन न दंतधावन, लेश अंबर आवरण | भूमाहिं पिछली रयनिमें कछु शयन एकासन करण॥५॥