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जिनवाणी संग्रह।
दुःन देत है। जग जीवोंकी शक्ति सभी हर लेत है ॥ याको हति निज वीर्य अनन्त लहाय जी। सो चौथा गुण वीर्य लखो मन ल्याय जी ॥ मन ल्याय तिहुं जग माहि जानो नाम कर्म महान हैं । इस कर्म वश जग जीव चहुगति भटकते हैरान हैं ॥ याको हनो तब ही अमूर्वि भयो आतमराम है । सो मत्त गुण तब होत जगमें बहुर नाहीं काम है ।। ६ ॥ आयु कर्म से जीव चहूं गतिमें बसे । बंदीखाने मांह यथा कैदी फसे ॥ याहि हरत गुण प्रगट होत अवगाहना । एक सिद्ध में सिद्ध अनन्त सम्भावना ॥ सम्भावना जग जीव सब ही गोत्र विधि के बश परें। पद ऊंच नीच लहैं सुबहु विधि दुःख दावानल जरें । इस गोत्र कर्म बिनाशने से भाष सम प्रगटे सदा। सो गुण अगुण लघु होय तब ही ऊंच नीच न रहें कदा ॥७॥ वेदनी कर्म वशाय जगति के जीव जी। भोगे दु:ख अपार अचिंत सदीव जी ॥ अव्यावाध गुण होइ हरे जब याहिजी । सुख दुःख दोनों रहित नहीं कछु चाह जी ॥ चाह तिहु जगकाल तिहु के सुख इकट्ठ कीजिये। तिनसे अनन्तः सुख है इक समय मांहि लहीजिये ॥ यासे तिन्हों के आठ गुण को प्रात उठ नित ध्याइये। उर नेम धर के पंचपद में सिद्ध मंगल गाइये ॥ ८॥
(१४) श्री आचार्यपरमेष्टी मंगल । दर्शन मोह विनाश आप दर्शन लहो। सोही दशनावार भिन्न परसे कहो ॥ खपर भेद लख शान थकी निज लीन जी। सोही झानाचार लखो सु प्रवीणजी।। प्रवीण निज पद माहि थिर हो यही चरित्र गुण सही। इच्छा अभ्यन्तर रोक अनसन वाह्य गुण