________________
श्री आचार्यपरमेष्टी मंगल
२६१
तप जानहीं || जब कष्ट बहु विधि आवता नहि टरें यह गुण वीर्य जी । आचरें' पंचाचार यह गुण लहें बहु घर धीर्य जी ॥ १ ॥ वर्ष अनऋतु मास पक्ष आदिक तनी । करें सदा उपवास लहें गुण अनसनी || पूर्ण ग्रास बत्तीस अन्न जलके गुणी । लेय तामें ऊन ऊनोदर सो मुनी ॥ मुनिचर्या निमित्त वनमें व्रत अटपटे घर चलें । व्रत परि संख्या कहो यह गुण और जनसे ना पलें ॥ कोई रसको तजें कबहुँ सर्व रस तज देत हैं । गुण ज्ञान रस परित्याग सुन्दर महा अद्भुत भजत है || २ || गिरि कन्दर एकान्त रहत सु मसान मे । धरें ध्यान अनागार लीन निज ज्ञान में ॥ विव्यक्त शय्यासन सो कहत गुण याहि जी । साहस ऐसा धार ममत्व सो नाहिं जी ॥ नाहिं तनको तनक सो भी ममत तिनके उर बसे । पावस समय तरुके तले धरे ध्यान पातक सब नसे || हेमन्त सरिता ग्रीषम गिरि शिर उम्र जो तप करें। गुण लखो काय कलेश येही सकल दुखको परिहरें ॥ ३ ॥ प्रातः घरें व्रत जेह सम्हाले सांझजीं। कोई लागो दोष लखें ता मांझ जी ॥ गुरुसे कह सब दोष दण्डको आचरें । प्रायश्चित्त गुण येह महा सुखको करें ॥ करें मन बच काय सेती देव गुरु श्रुतिका विनय । अरु पूजनीक पदार्थ तिनकी विनय गुण तप के गिनय ॥ रोगातियुत या वृद्ध मुनिवर देख वैयावृत धरे । उन्माद मद तज लखे' वैयावृत्य गुण तब विस्तरे ॥ ४ ॥ पंच भेद स्वा ध्याय आप नित ही करें। बोध बंधके हेतु परनको उच्चरें ॥ सो ही गुण स्वाध्याय सकलमें सारजी । नाशा दृष्टि लगाय बड़े अनगारजी ॥ अनगार दोनों कर लुभायें लोन निज आतम विषे ।