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श्रीसिद्धपरमेष्ठी मंगल। ___२५६ एक सिद्धके माँहि अनन्ते सिद्ध हैं। राजत गुण समुदाय लिये निज ऋद्धि हैं ॥ किंचित कायोत्सर्ग और पदमासनं । सकल सिद्ध सम शीर्ष विराजत भासनं ॥ भासना आकार काजै लखो इक दृष्टान्त जी। सांचो करो इक मोम को फिर गारालेपधरन्त जी। सुकवाय ताको अग्नि देकर मोम काढ़न ठानिये। पोलारवा में रहै जैसी सिद्ध आकृति जानिये ॥ २ ॥ पौने सोलह सौ धनु महा गिनाय जी। बात वलय तन की सुलखो मोटाय जी। पन्द्रह सौ का भाग देव ताको सही। सबा पांच सौ धनुष होंय संशय नहीं ॥ संशय नहीं अवगाहना उत्कृष्ट सिद्धन की लखो। तन बातकी मोटाई पुन: भाग नव लख का रखो॥ अवगाहनादि जघन्य गिनले हाथ साढ़े तीन जी। पुनः मध्य भेद अनेक हैं अवगाहनाके चीत जी॥३॥ मोहनी नामाकर्म महा बलवन्त जी। कीन्हीं बातिल बुद्धि सकल जग जन्तु जी॥ ताहि मूल से नाश शुद्ध सम्पति लही । प्रगटी गुण सम्यक्त्व प्रथम अद्भुत सही ॥ सहोगृण यह जगतिके दुख नाशने को मूल है। या बिना सब ही अकारथ बासना बिन फल है ॥ बिन नीव मन्दिर मूल बिन तरु नीर बिन सागर यथा । सम्यक्त्व गुण बिन सकल करणी सफल नाहीं सवथा ॥४॥ ज्ञानावरणी कर्म दयो सब टार जो। हस्त रेख समलोक अलोक निहार जी ॥ दूजे गुण तब ज्ञान शुद्ध सुप्रगट लहो । यासम और न कोइ जगति में गुण कहो ॥ कहो तीजो कर्म नामो दर्शना वरणी लखो । दीखे नहीं जाके उदय जिमि वस्त्र पर ढाकन रखो ॥ इस कर्मको विध्वंस करके लहो केवल दर्शना । गुण होय मिटे तब ही वस्तु देखन तर्सना ॥५॥ अन्तराय बलवान महा