________________
* अध्यात्म पश्चासिका *
१५६
कहों ब्रह्म जिन दास यह, ग्रन्थ धर्मकी खान ॥२६॥ द्यानत जे बांवें सुनें, मनमें करें उछाय । ते पावें सुख शान्ति भी, मन वांछित फल दाय ॥ ॥ इति ॥
६६ अध्यात्म पकारिका । दोहा-आठ कर्मके बंधेमें, यन्धजीव भव यास । कमै हरै सब गुण भरे, नमों सिद्धि सुखरास ॥१॥ जगत मांहिं चहुं गति विधे, जन्म मरण वश जीव । मुक्ति माहिं तिहुंकालमें, चेतन अमर सदीव ॥२॥ मोक्ष माहिं सेती कमी, जगमें आवे नाहिं । जगके जीव सदीव ही, कर्म काट शिव जाहिं ॥३॥ पूर्व कर्म उद्योगते जोव करें परिणाम । जैसे मदिरा पानते, करै गहल नर काम ॥४॥ नार्ते बाधैं कर्मको, आठ भेद दुखदाय । जैसे चिकने गातमें, धूलिपुञ्ज जम जाय ॥ ५॥ फिर तिन कर्मनके उदय, करै जीव बहु भाय । फिरके बांधे कमको, ये ससार सुभाय ॥ ६ ॥ शुभ मावन ते पुण्य है, अशुभ भाव ते पाप। दुहू आच्छादित जीवसो, जान सके नहीं आप ॥ ७॥ चेतन कम अनादिके, पावक काठ बखान । क्षीर नीर तिल तेल ज्यों, खान कनक पाखान ॥ ८॥ लाल बन्ध्यों गठड़ी विध; भानु छियो घन मांहिं । सिंह पीअरे मैं दियो, जोर चले कछु नाहिं ॥६॥ नीर बुझावै आगको, जले टोकनी माहि, देह माहि चेतन दुखी, निज सुख पावे नाहिं ॥१०॥ तदपि देहसों छुटत है, अन्तर तन है संग । सो न भ्यान अग्नी दहै, तब शिव होय अ. भंग ॥ ११ ॥ राग दोष से आप ही, पड़े जगतके माहिं । ज्ञान भाव ते शिव लहै, दूजा संगी नाहिं ॥ १२ ॥ जैसे काह पुरुषके द्रव्य