________________
* छहढाला *
&
}
कितको कारण, अष्ट अंग जुत धारो ॥ १०॥ वसुमद टारि निवारि त्रिशठता, पट अनायतन त्यागो | शंकादिक बसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ॥ अष्ट अंग अरु दोष पचीसों, अब संक्षेपहु कहिये । बिन जाने ते दोष गुननकों, कैसे तजिये गहिये ॥ १.१ ॥ जिन बचमें शंका न धार वृष, भवसुख वांछा मार्ने । मुनितन मलिन न देख घना, तत्वकुतत्व पिछाने || निजगुण अरु पर औगुण ढाँके, वा निजधर्म बढ़ावें । कामादिक कर वृपतें विगत निज परको सु दिढ़ावे ॥ १२ ॥ धर्मीसो गऊ बच्छ प्रीति सम, कर जिन धर्म दिपावें । इन गुणतै विपरीत दोष बसु, तिनको सतन
पावै ॥ पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूपको मदन ज्ञानको, धनबलको मद भानें ॥ १३ ॥ तपको मदन मदजु प्रभुताको; करे न सो निज जाने । मद धारे तो यही दोष वसु, समकितको मल ठाने || कुगुरु कुदेव कुवृष सेवककी: नहि प्रशंस उचरें है । जिन मुनि जिन श्रुति विन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करे है । दोष रहित गुणसहित सुधी जे: सम्यक्दर्श स हैं; वरित मोहवश लेश न संजम पं सुरनाथ जजै हैं ॥ गेही पै गृहमें न रचे ज्यों; जलमें भिन्न कमल है। नगरनारिको प्यार यथा कादेमें हेम अमल है ॥ १५ ॥ प्रथम नरक विन षटभू ज्योतिष; वान भवन सब नारी । थावर विकलत्रय पशुमें नहि; उपजत सम्यक्धारी ॥ तीनलोक तिहुंकाल माहि नहिं दर्शन सो सुखकारी | सकल धरमको मूल यही इस बिन करनी दुखकारी || १६ || मोक्षमहलको परथम सीढी, या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्य कना न लहैं सो दर्शन; धारो भव्य पवित्रा || दौल समझ सुन चेत
-