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* जिनवाणी संग्रह *
आनो ॥ ३ ॥ बहिरातम अन्तरआतम परमातम जोव त्रिधा है। देह जोवको एक गिने, बहिरातम तत्व मुधा है ॥ उत्तम मध्यम जघन त्रिविधिके, अन्तर आतम ज्ञानी। द्रिविधि संग बिन शुध उपयोगी, मुनि उत्तम निजध्यानी॥ ४ । मध्यम अन्तर आतम हैं जे. देशव्रती आगारो। जघन कहे अविरत समदृष्टि, तीनों शिवमगचारी॥ सकल निकल परमातम हँशिधि तिनमें घाति निवारी। श्री अरहन सकल परमातम, लोकालोक निहारी ॥ ५ ॥ ज्ञानशरीरी त्रिविध कर्ममल वर्जित सिद्ध महंता। ते हैं निकल अमल परमातम, भोगें शर्म अनन्ता ॥ यहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हजे। परमातमको ध्याय निरन्तर, जो नित आनंद पूजे ॥ ६ ॥ चेतनता बिन सो अजीव है, पंच भद ताके हैं। पुद्गल पंचवरण रस गंध दो फरसबम जाके है.॥ जिय पुद्गलको चरन सहाई, धर्मद्रव्य अनरूपी। तिष्टत होय अधर्म सहाई, जिन बिन मूर्ति निरूपी ॥ ७ ॥ सकलद्रव्यको बास जासमें, सो आकाश पिछानो। नियत बर्तना निशिदिन सो व्यवहार काल परिमानो॥ यो अजीव अब आश्रव सुनिय, मन वच काय त्रियोगा। पिथ्या अविरत अरु कपाय पर, --माद सहित उपयोगा ॥ ८ ॥ ये हो आतमको दुखकारण तातै इनको नजिये । जीव प्रदेश बंध विधिसों सो, बंधन कबहुन सजिये ॥ शमदमतें जो कर्म न आवै. सो वा आदरिये । नप बलनै विधि झरन निरजरा, ताहि सदा पावरिये ॥ ६ ॥ सकलकत रहिन अवस्था, सो शिव घिर सुख कारी। इहिबिधि जो सरधा नत्वनको, सो समकित व्यवहारो॥ देव जिनेन्द्र गुरू परिग्रह विन, धर्मदयायुत सारो। येह मान सम