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#* जिनवाणी संग्रह *
तुव धुव विजय बुधिवान ॥ ४७ ॥ वादानुवादमंकार । तुव जीत होय उदार । यामें न संशय करहु । शुभ जानि घोरज घरहु ॥४८॥ अथ रकारादि द्वितीय प्रकरण ।
राय । आदिरकार अकार दुइ, जब ये प्रगटें वर्न । तब धनसंपतिलाभ बहु, सुजनसमागम कर्न ॥ ४६ ॥ सोना रूपा ताम्र बहु, वसनाभरन सुरन । प्राप्त होय निश्चय सकल, चिंतित वित जुतजन ॥ ५० ॥ अन्तरैन दीखे सुपन, माला सुमन सुज्ञान । हयगजरथ आरूढ़ अरु, देवागमन विमान ॥ ५१ ॥
रार | आदि रकार अकार पुनि, तापर परै रकार । सुनि पूछ तैं तासु फल, है अभिमतदातार || ५२ || देश प्रजाको लाभ है, खेती वर व्यापार | धन पावै परदेशमें, घर में सब सुखसार ॥५३॥ संगर संकट घोर में, कुलदेवी सुखदाय । करे सहाय प्रसाद तसु, सब विधि सिद्धि लहाय ॥ ५४ ॥
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राहं | आदि रकार अकार पर, हं प्रगटे जब आय । भयकारी धनहानि यह, कृश अशेष कराय ॥५५॥ यह कारज कर्तव्य
नहि लाभ नाहिं या माहिं । बांधव मित्र वियोगता, अस यह सगुन
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कहाहिं ॥ ५६ ॥ जह' कहुं जाहु विदेश नहीं सिद्ध न होवे काज । नातें थिर है कछुक दिन, सुमिरहु श्रोजिनराज ॥ ५७ ॥
रयत । अत पर पाँसा कहे, मग धन लूटहि चोर | द्रव्यहानि हो वहि बहुत, अशुभ फलहि चहुं ओर ॥ ५८ ॥ नाव बु पावक लगे, रोगरु कष्ट कुजोग । कियो काज विनशे सकल, अशुध 'करमके भोग ॥५६॥ तातें शोक न कीजिये, भावीगति बलवान । थिर है निशदिन सुमिरिये, कृपासिंधुभगवान ॥ ६० ॥