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* जिनवाणी संग्रह *
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नाशा नेत्र कर्ण मल नहीं । जीभ दन्त मल मूत्रन कहीं ॥ ११ ॥ क्षीर बराबर रुधिर अनूप । शंख वर्ण शुचि मान सरूप ॥ समच. तुरस्त्र सुभग संठान । तुग देह दश ताल प्रमान ॥१२॥ दोहा--अग्ने कर अंगुष्ठ सो, मध्यमिका परयंत।
बारह अंगुल ताल यह, अव धारो मतिवन्त ॥१३॥ याहो अपने ताल सों, दशगुण ऊच शरीर ।
सम चतुरस्त्र संठानको, यह प्रमाण है बीर ॥१४॥ चौपाई-प्रथम सार संहनन अबिद्ध । वज्रबृषभ नाराव प्रसिद्ध । रूप सम्पदा अवरजकार । सुर नर नाग नयन मनहार ॥१५॥ सहस अठोतर लक्षण लसैं । चक्रोके तन चौसठ बसें ॥ लक्षण पाय सुल. क्षण भिन्न । सो प्रतिमाके आसन विह्न ॥ १६ ॥ सहज सुगन्धि बसै वपुमाहिं। सब सुगन्धि जासो द्रवजाहिं ॥ लोक उठावन शक्ति निवास । अतुल अनन्त देह बल जास ॥ २७॥ प्रिय हित वचन अमृत उनहार । सब जगजन्तु श्रवण सुखकार । जन्म जान अतिशय दश येह । अब दश केवलके सुन लेह ॥ १८ ॥ दोसौ यो. जन परिमित लोय । चहुंविषमें दुर्भिक्ष न होय ॥ व्योम विहार भूमियत जास । बपुसों होय न प्राण निवास ॥ १६ ॥ सब उपलग रहित जग सूप । निराहार अति तृप्त स्वरूप ॥ एक दिशा सन्मुख मुख जोय । चतुरानन देखे सम कोय ॥ २० ॥ सब विद्या हैं अति गंभीर । छाया वरजित विमल शरीर ॥ पलक पात लोचन नहि गहैं । नख अरु केश एकसे रहैं ॥ २१ ॥ सोरठा-नई रसादिक धात, होय न अशन अभावः ।
तिस कारण ते भ्रात, नस्ल अरु केश बढ़े नहीं ॥२२॥