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जिनवाणी संग्रह। करपून ठई क दिन देले श्रीगुरु जये। नग्न गात सो निन्दे तवे । अति खोटे दुर्वचन कहाय । बहुत ही ग्लानि चित्त लाय ताकरि महा पाप बांधियो। अवधि व्यतीते मरण हु कियो । नरक जाय माना दुःख सहे। छेदन मेदन जाय न कहे ॥ मरक आयु पूरी कर जोइ । भव भूमि हिज गृह पुत्री होई। निओमिका पड़ा तिस माम। अति दुगंधा देह निकाम ॥ १॥ कोई ढिग भावे नहि हो । क्रमकर बड़ो भई सो वहां । अब पानफर दु:खित महा। भूठन भले कष्ट अति लहा ॥ ११॥ एफ दिवस देखे मुनिराय। कर प्रणाम विनवे शिर नाय ॥ कौन पाप. मैं कीनों देव। मैं पायो अति दुःख अमेव ॥ १२ ॥ तब मुनिवर पूरव भव कहे । गुरुकी निन्दासे दुःख लहे। तब दुगंधा जोड़े हाथ। ऐसा व्रत बीजे मोहि नाथ ॥ १३ ॥ यासे रोग शोक सय जाय। उत्तम भव पाऊ गुरुराय ॥ तब श्रीगुरु बोले हर्षाय। मुक्कावली करो मन लाय ॥ १५॥ तासे सर्व पाप जर जाय । सुख सम्पत्ति मिले अधिकाय ॥ तब दुगंधा कहे विचार । कौन भांति कीजे प्रत सार ॥ १५ ॥ तय मुनिवर इम ववन कहाय । सुनो'" भेद व्रतका वित लाय ॥ भादों सुदी सप्तम दिन होइ । ता दिन व्रत कीजे भवि लोड ॥१६॥ प्रात समय जिन मन्दिर जाय । पूजा कथा सुनो मन लाय ॥ सब आरम्भ तजो दिन मान । संयम शील सजो गुणलान ॥ १७ ॥ मोर भये जिन दर्शन करो। शुद्ध मसन कीजे तब बरो। दुजो व्रत पूर्ववत करो । अश्विन बदि छठि पापनि हरो ॥ १८॥ तीजोत की उर धीर। अश्विन यदि रखि सुखकार ||कर उपवास पालो गुण एसी। बोपी