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जिनवाणी संग्रह।
छप्पय (छन्द) कोड़ी बुध बल हरे, कम्प गद करे कसारी। मकड़ी कारण. पाय कोढ़ उपजे दुख भारी। जुआं जलोदर जने फांस गल विधा बढ़ाये। बाल सबे सुरभंग बमन मात्री उपजावे ॥ तालुवे छिद्र बीछ भखत और व्याधि बहुकरहि सब । यह प्रगट दोष निश असनके परमव दोष परोक्ष फल जो अघ इहि भव दुख करे, परभव क्यों न करेय। डसत सांप पौड़े तुरत, लहर क्यों न दुख देय। सुवचन सुन डाहारजे, मूरख मुदित न होय । मणिधर फण फेरे सही, नहीं सांप नहीं होय ॥ सुववन सत गुरुके ववन, और न सुववन कोय । सत गुरु वही पिछानिये,जा उर लोम न होय॥५॥ भूधर सुषचन सांभलो,स्वपरपक्ष कर बौन । समुद्र रेणुका जो मिले, तोड़े तें गुण कौन ॥इति
(१७) श्रीरविब्रत कथा चौपाई-श्रीसुखदायक पार्स जिनेश।सुमति सुगति दाता परमेश ॥ सुमिरों शारद पद अरिवृन्द । तिनकर व्रत प्रगटो सानंद ॥१॥. वाणारस नगरी सुविशाल । प्रजापाल प्रगटो भूपाल ॥ मतिसागर तहां सेठ सुजान । ताका भूप करे सन्मान ॥ २ ॥ तासु त्रिया गुणसुन्दरि नाम । सात पुत्र ताके अभिराम ॥ षट् सुत भोग करें परणीत । बाल रूप गुण धर सुविनीत ॥ ३ ॥ सहस्रकूट शोभित जिन धाम । आये पति पति खंडित काम ॥ सुनि मुनि आगम हर्षित भये । सर्व लोग बन्दनको गये ॥ ४ ॥ गुरु वाणी सुनिके गुणवती । सेठिन तब जो करी बीमती ॥५॥ करुणा