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जिनवाणी संग्रह। सुरपति स० ॥६॥ आनि पांडुकशिला पूर्व मुख थाप जिन । करहि अभिषेक उच्छाहसो अधिक तिन ॥ देखि प्रभु बदन छवि कोटि रवि बारतीं। शधिय सुरपति सहित कर० ॥ ७॥ जोजनह भाठ गम्भीर कलशा बने। चारि वौड़ाई मुख एक जोजन तने ॥ सहस अरु आठ भरि कलश शिर ढारतीं। शचियं सुरपति सहि ॥८॥ छत्र मणि स्वचित ईशान करतारहीं। सनत माहेंद्र दोऊ चमर शिर ढारहीं ॥ देव देवीय 'पुष्पांजलिय हारतीं। शचिय सुरपति सहित करत जिन० ॥ ८ ॥ जलसु चन्दन पुहप शालि चरु ले घरों । दीप अरु धुप फल अर्घ पूजा करों ॥ विडिका और नीरांजना बारतीं। शचिय सुरपति सहित कर० ॥१०॥ कियो शृगार सब अंग सामानसों। आनि मातहि दियो बहुरि जिनराजकों ॥ तृपत नहि होत Qग रूप नीहारतीं। शचियं सुरपति सहित करत जिन आर० ॥ ११ ॥ ताल मिरदंग धुनि सप्त सुर बाजहीं। नृत्य तांडव करत इन्द्र अति छाजहीं ॥ करत उच्छाहसों निजसु पद धारती। शविय सुरपति सहित कर० ॥१२॥ भव्य जन आय जिन जन्म उत्सव करें। आपने जन्मके सफल पातिक हरॆ ॥ भक्ति गुरुदेवकी पार उत्तारतीं। शविय सुरपति साहत करहि जिन आरती ॥१३॥ घत्ता-जिनवर पद पूजा भावसु हूजा, पूरण चित आनन्द भया। जयवन्त सु हजो आसा पूजो, लाल विनोदी भाल नया।
ओं ह्रीं अष्टादशदोषरहित षट् चत्वारिंशद्गुणसहित श्रीमदऽहत्परमेष्टिने पूर्णाघ निर्वपामीति स्वाहा। चौपाई-मंगल गर्भ समयमें जोय। मंगल भयो जन्ममें जोय ।