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जिनवाणी संग्रह |
दीन०३ || पावक प्रचण्ड कुण्डमें उमण्ड जब रहा। सीतासे सत्य लेनेको जब रामने कहा || तुम ध्यान धरके जानकी पग धारती तहां । तत्काल ही सर स्वच्छ हुआ कमल लहलहा || हो० || जब चीर द्रौपदीका दुशासनने था गहा सबरे सभा के लोग कहते थे हा हा हा | उस वक्त भीर पीरमें तुमने किया सहा । पड़दा ढका सती का सुयश जगत में रहा || हो० ॥ सम्यक्त शुद्ध शीलवन्ति चन्दनासती । जिस के नजीक लगती थी जाहर रती रती । बेड़ी में पड़ी थी तुमें जब ध्यावती हुती || तब बीरधीर ने हरी दुःख द्वन्द् की गती || हो ० ६ ॥ श्रीपालको सागर विखें जब सेठ गिराया । उसकी रमा रमने को आया था बेहया । उस वक्त के संकट सती तुमको जो ध्याया । दुःख द्वन्दफन्द मेटके आनन्द बढ़ाया || हो० । हरपेण की माता को जब शोक सताया। रथ जैनका तेरा
चले पीछे से बताया | उस वक्त के अनशन में सती तुमको जो ध्याया । चक्र ेश हो सुत उसके ने रथ जैन चलाया। हो० ८ ॥ जब अजना सतीको हुआ गर्भ उजाला । तब सासु ने कल क लगा घर से निकाला || बन वर्ग के उपसर्ग में सती तुमको चितारा । प्रभु भक्तियुत जानके भय देव निवारा || हो० ॥ सोमा से कहो जो तू सतो शील विशाला | तो कुम्भमें से काढ़ भला नाग हो काला | उस वक्त तुम्हें ध्यायके सती हाथ जो डाला । तत्काल ही वो नाग हुआ फलको माला || हो० १० ॥ जब राज-रोग था हुवा श्रीपाल राजको। मैना सती तप आपकी पूजा इलाज को || तत्काल ही सुन्दर किया श्रीपालराज को । वह राज भोगर गया मुक्तिराजको ॥ हो० ११ ॥ जब सेठ सुदर्शन को मृपा दाप