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प्रातःकालकी स्तुति। घोर विपतमें आन पड़ा हूं मेरा बेरा पार करो॥ ____ शिक्षाका हो घर घर आदर शिल्पकला संचार करो ॥५॥ मेलमिलाप बढ़ावें हम सब द्वेष भावी घटा घटी॥
नहीं सतावे किसी जीवको प्रती क्षीरकी गटागटी ॥ ६ ॥ मातपिता अरु गुरुजनकी हम सेवा निशदिन किया करें।
स्वारथ तजकर सुखदे परको आशिश सबकी लिया करें ॥७॥ आतम शुद्ध हमारा होवे पाप मेल नहिं चढ़े कदा ।।
विद्याकी हो उन्नति हममें धर्म ज्ञान हूं बढ़ सदा ॥८॥ दोऊ कर जोरे बालक ठाड़े करें प्रार्थना सुनिये दास ।।
सुखसे बीते रैन हमारी जिनमतका हो शीघ्र प्रकाश ॥ ८ ॥ मातपिताकी आज्ञा पालै गुरुकी भक्ति धरै उरमें ॥ रहें सदा हम करतब तत्पर उन्नति कर निज २ पुरमें ॥१०॥
(१०) सङ्कटहरण विनती हो दीनबन्धु श्रीपति करुणा निधानजी। अब मेरी व्यथा क्यों ना हरो वार क्या लगी ॥ टेक ॥ मालिक हो दो जहानके जिनराज आप ही। ऐबो हुनर हमारा कुछ तुम से छिपा नहीं। बेजान में गुनाह जो मुझ से बन गया सही। ककरी के चोर को कटार मारिये नहीं ॥ हो दीन० १॥ दुख हर्द दिलका आप से जिस ने कहा सही। मुशकल कहर बहर से लई है भुजा गही ॥ सब वेद
और पुराणमें परमाण है यही। आनन्द कन्द श्रीजिनन्द देव है तुही ॥ हो दीन० २ ॥ हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सतो। गंगामें गिराहने गही गज राज की गती। उस वक्तमें पुकार किया था तुम्हें सती। भयटारके उभार लिया हो कृपा पती॥ हो