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________________ २१० * जिनवाणो संग्रह * ( यह मंत्र भी सात वार जपना ) अथ अकरादि प्रथम प्रकरण । अमन। जो परे तीन अकार । तो जानि सुखविस्तार । कल्याणमंगल होय । सम्मान बाढ़ सोय ॥ १ ॥ लक्ष्मी वसै नित धाम । व्यापारमें बहु दाम । परदेशमें धनलाभ। संग्राममें जयलाभ ॥२॥ नपद्वारमें सम्मान । संकट कटें प्रमान । सब रोग अरु दुर्भागि। ततकाल जावै भानि॥३॥ प्रगटें सकल कल्यान यामें न संशय जान । यह महा उत्तम अंक। फल अटल जासु निसंक ॥ ४॥ चौपाई छंद। अपर। दोअकारपर पर रकार । मध्यम फल है सुनो वि. चार । जो कारज चिंतो मनमाहिं । सो तौ शीघ्र होनको नाहि॥५॥ पूरब पाप उदय है जानि । सोई करत काजकी हानि । ताते इष्टदेव आराधि । कुलदेवीको पूजि सुसाधि ॥ ६ ॥ तासु जजन आराधन किये ! किंचित् होय काज सुनि हिये । मध्यम प्रश्न पत्रौ है येह । मति मानो यामें संदेह ॥ ७॥ पद्धड़ी छंद। अहं । जहँ दो अकारके अंत माहिं । हंकार पर सो शुभ कहाहि । धन धान्य समागम लाभ होय। परदेश गयो जो वहै सोय ॥८॥ नो मनवांछितकी सिद्धि जान । अरु मित्र बंधुसों प्रीति मान । तत्काल शत्रुको होय नास । सब विघ्न मिट अनयास तास ॥ ६ ॥ घरमें प्रगटै मंगलविभूति। तब पुण्यप्रभाव प्रबल अकृत । यह उत्तम प्रश्न सुनो पुमान । यों कहत केवली गुननिधान ॥ १०॥
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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