________________ 468 जिनवाणो संग्रह। ऐसा कहिये, नास न जाको होई॥ जल बद् बुद्वत् जीवन जगमें, आस नहीं इक दिनकी / काल बली मुख खोलत जोहै, बाट एक पल छिनकी // फिर जगमें, किससे मोह कीजे, कौन बस्तु थिर कहिये। ऐसे जग जंजाल जालमें, फँसकर बहु दुख लहिये // कूए भांग पड़ीको पीकर, सबने सुध बुध खोई / उत्तम नर भव क्षेत्र पायकर, बेल न सुखकी बोई // धर्म साध, परहित नहिं कीना, योंही जन्म गंवाया / मूढ पुरुषने रत्न अमोलक, सा. गर बीच डुबाया // सुख चाहत भी सुख नहिं पावत, दुख पाव संसारी / याका कारण, मोह अज्ञता, अरु मिथ्यात दुखारी // जो चाहे सुख, जिय संसारी, आपा परको जान / हित अनहित अरु पाप पुन्यका, सभी भेद पहिचान // विश्व प्रेम हिरदय बिच धारे, पर उपकारी होबै / पाप पंक आतम पर लागो संजम जलसे धोके // दर्शन: शान, सुचारित्र पाल, इच्छा भाव घटावै। पंच महावत धारण करके, जगसे मोह हटाबै // यह जग वस्तु समस्त विनासें, इनसे ममता त्यागे / आत्म चितवन कर, निजमनमें, आतम हितमें लागे॥ मैं आतम परमातम, विद् आनन्द रूप सुख रूपी। अजर अमर गुण शान शांतिमय हू आनद स्वरूपी / यह तन रूप स्वरूप न मेरो, मैं चेतन अविनाशी। ज्ञाता दृष्टा सुख अनन्त मय, हूं शिवपुर का वासी // मेरी केवल झान ज्योतिसे, भरम तिमर नस जावे। मैं ऐसा शुद्धात्म, चिदानन्द, जब यह जीव लखावे // तब ही कर्म कलंक बिनासे, जीव अमर पद पावै / मिले निराकुल सुखा अविनाशी, परमातम कहलाये // आबे कब वह शुभ दिन जब मम, शान "ज्योति" जग जाये। सत्य अमर आतम को पाकर, मम जियरा सुख पाये। दोहा-मेरी है यह भाषना, सुख पावे संसार / मिले निराकरता मु, हो आनन्द अपार /