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जिनवाणी संग्रह |
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हर रविकला भव शस्य कों अमृत भरो ॥ २ ॥ वस्त्राभरण विन शांति मुद्रा सकल सुरनर मन हरे । नाशाग्र दृष्टि विकार वर्जित निरखि छवि संकट टरे ॥ तुम चरण पंकज नख प्रभा नभ कोटि सूर्य प्रभा धरे । देवेन्द्र नाग नरेन्द्र नमत सुमुकुटमण द्युति विस्तरे ॥ ३ ॥ अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी तुम असाधारण लसे । तुम जाप पाप कलापनासे ध्यावते शिव थल वसे मैं से कुट्टग कुबोध अव्रत विरभ्रमो भववन सवे ॥ दुख सहे सर्व प्रकार गिर समसुख न सर्पप सम कवे ॥ ४ ॥ पर चाह दाह दहो सदा कबहूं न साम्य सुधा चखो | अनुभव अपूरव स्वादु बिन नित विषय रस चारो भखो || अब बसो मो उर में सदा प्रभु तुम चरण सेवक रहों वर भक्ति अतिदृढ़ होहु मेरे अन्य विभव नहीं यहीं ॥ ५ ॥ एकेन्द्रियादिक अन्तविक तक तथा अन्तर घनी । पाये पर्याय अनन्तवार अपूर्व सोनहिं शिव धनी ॥ ससृत भ्रमण ते थकित लखि निज दासकी लीजिये | सम्यक दरश वर ज्ञान चारित पथ
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विहारी कीजिये ॥ ६ ॥
( ३ ) विनती भूवर कृतः ।
गीता छन्द
पुलकंत नयन चकोर पक्षी हंसत उर इन्दीवरो । दुबुद्धि चकवी विलख बिछुड़ी निवड़ मिथ्या तम हरो || आनंद अम्बुज उमग उछरो अखिल आतम निरदले । जिम बदन पूरण चन्द्र निरखत सकल मन वांछित फले ॥ १ ॥ मुझ आज आतम भयो पावन आज विघ्न नशाइयो । संसार सागर तीर निवटो अखिल