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विनतो।
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तत्व प्रकाशियो ॥ अव भई कमला किंकरी मुझ उभय भव निर्मल ठये। दुख जरो दुर्गति वास निवरो आज नव मंगल भयो ॥ २॥ मनहरण मूरति हेर प्रभुकी कौन उपमा ल्याइये । मम सकल तनके रोम हुलसे हर्ष और न पाइये । कल्याण काल प्रत्यक्ष प्रभुको लख जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्द महिमा कहत क्यों मुखसे वने ॥ ३ ॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको और बांछा ना रहो , मम सब मनोरथ भये पूरण रङ्क मानो निधि लही । अब होहु भवभव भक्ति तुम्हरी कृपा ऐसी कीजिये। कर जोर भूधरदास विनवे यही वर मोहि दोजिये ॥ ४॥ इति ॥
(४) विनती भूधरदास कृत। अहो जगत गुरु देव सुनिये अर्ज हमारी। तुम प्रभु दीन दयालु मैं दुखिया ससारी ॥१॥ इस भव वनके माहि काल अनादि गमायो । भ्रमत चतुति मांहि सुन्व नहिं दुग्ब बहु पायो ॥२॥कर्म महा रिपु जार ये कळकान करेंजी। मन माने दुग्व देह काहसे नाहि डर जा ॥ ३ ॥ कवह इतर निगोद कबहुं कि नर्क दिखावे । सुर नर पशुगति मांहि बहु विधि नाच नचावं ॥४॥ प्रभु इनको परसग भव भव मांहि बुरी जी। जा दुख देख देव तुमसे नाहि दुरो जी ॥५॥एक जन्मका बात कहि न सका सब स्वामी । तुम अनन्त पर्याय जानत अन्तर यामी ॥ ६ ॥ मैं तो एक अनाथ ये मिल दुष्ट घनेर किया बहुत बेहाल सुनिये साहब मेरे ॥ ७॥ ज्ञान महानिधि लूट रङ्क निवल कर डारी ! इन ही मो तुम मांहि हे प्रभु अन्तर पारो ॥८॥ पाप पुण्य मिल दोय पायन बेरी डारी। तन कारागृह मांहि मूद दियो दुख भारी॥॥ इनको नेक विगार मैं कुछ नाहि करोजी