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जिनवाणी संग्रह। विन कारण जगबन्धु बहुविधि बैर धरो जी ॥१०॥ अव आयो तुम पास सुन कर सुयश तुम्हारो। नीति निपुण महाराज कीजे न्याय हमारो॥ ११ ॥ दुष्टन देहु निकास साधुनको रख लीजे ॥ विनवे भूधरदास हे प्रभु ढोल न कीजे ॥ १२ ॥ (५) विनती नाथूराम जी कृत। दोहा-चौबीसो जिन पद कमल, बन्दन करों त्रिकाल ।
करो भवोदद्धि पार अब, काटो बहु विधि जाल ॥ १ ॥
छन्द ।
ऋषभनाथ ऋषि ईश तुम ऋषि धर्म चलायो। अजित अजित अरि जीत बसु विधि शिवपद पायो । संभव संभ्रम नाशि बहु भवि बोधित कीने। अभिनन्दन भगवान अभिरुचि कर व्रत दीने ॥ ३ ॥ सुमति सुमति वरदान दोजे तुम गुण गाऊ । पद्म-प्रभु पदपद्म उर धर शीश नवाऊ ॥ ४ ॥ नाथ सुपारस पास राखो शरण गहोंजी । चन्द्रप्रभू मुखचन्द्र देखत बोध लहोजी ॥ ५ ॥ पुष्पदन्त महाराज बिकसत दन्त तुम्हारे । शीतलशीतल बैन जग दुःखहरण उचारे । श्रेयान्सनाथ भगवान् श्रेय जगतको कर्ता। बासपूज्य पद वास दीजे त्रिभुवन भर्ता ॥७॥ बिमल बिमल पद पाय बिमल किये बहु प्राणी । श्रीअनन्त जिनराज गुण अनन्त के दानी ॥ ८॥ धर्मनाथ तुम धर्मतारण तरण जिनेश। शान्तिनाथ अघ ताप शान्ति करो परमेश॥ कुंथुनाथ जिनराज कुंथु आदि जिय पाले । अरह प्रभू अरि नाश बहु भव के अध टाले ॥१०॥ मलिनाथ भण मांहि मोह मल्ल क्षय कीमा । मुनिसुव्रत वृतसार मुनि गण