________________
* हजारीकृत - लावनी #*
१३३
होत दुःख दर्शसे भगा || टेक || मह देवी नन्द धर्म कन्द कुलमें
माभिराजके सुर उगा । नृप कुमार नमत सुर खला ॥१॥ युगका निवार धर्मको संसारको तगा । बलु कर्मको जराय शिव पन्थ में लगा ||२|| अब तो करो शिताव मिहरवान दिल लगा । कहें दास हीरालाल दीजे मुक्तिका मगा ॥३॥
५८ हजारी कृत - मजल । ख्याल कर दिल मकार चेतन अजब करमने काई गतियां || || निगोद बस कर सुबोध खोया त्रिजग व नारक बनस्प तियां । कभी मनुष वा कभी सुरंग वा अनादि ते दिन बिताई रतियां ||२|| यह दुःख भर २ यतीम हवा न गोरकी कहुं सुनाई तियां पड़ा हूं अब तो उसोके दर पर लगें हजारी न यम की पनियां ॥३॥
५६ हजारीकृत - लावनी ।
॥
तुम देवनके देव हो, लोक धरो । मेरे रागादिक०
प्रभू भवसागर पार करो, मेरे रागादिक शत्रु हरो ॥ टेक ॥ तुम्हीं हो नित्य निरञ्जनदेव । कर इन्द्रादिक धारी सेव ॥ नामसे पाप टरें स्वयमेव । अरज बित दोजे हमारी पत्र || दोहा ॥ तुम सुमरनसे नाथजी, सीजे हमरो काज शिखिर महाराज || जगतमें तारन बिरद ||१|| जन्म मरणादि अनल भारी । चरण श्रुति करत सलिल भारी ॥ तालु मिट जात तापकारी । होत सुख भविवल भवि - कारी ॥ दोहा ॥ ऐसे तुम गुण अबिन्त वर, तालम कीजे मोय । मोहादिक अरि अति प्रबल तिनका दीजे खोय | आज तुम देखत काज सरो | मेरे० ||२|| कर्म बसु अगणित दुखदाई । तासु वश
1
H
1