________________
.१६४
* जिनवाणी संग्रह *
प्रभजिनद्राय अष्टकमदहनाय धूपं । अति उत्तमफल सु मंगाय, तुम गुन गावतु हों। पूजों तनमन हरषाय, विधन नशावतु हों। श्री. ॐ ह्रीं श्रीवद्रप्रभजिनेंद्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं । सजि आठो दरब पुनीत, आठों अङ्ग नमों । पूजों अष्टमजिन मीत, अष्टम अवनि गमों श्री० । ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभजिनेंद्राय अनर्ग्य पद प्राप्तये अयं ॥
पञ्चकल्याणक । छन्द तोटक-कलि पञ्चमचैत सुहात अलो । गरमागम मङ्गल मोद भली। हरि हर्षित पूजन मातु पिता। हम ध्यावत पावत शर्मसिता ॥१॥ ॐ ह्रीं चैत्रकृष्णपञ्चम्यां गर्भमङ्गलप्राप्ताय अर्ध । कलि पौष इकादशि जन्म लयो। सव लोक विषे सुखथोक भयो सुर ईश जजे गिरशोश तबैं। हम पूजन हैं नुत शीश अथै ॥२॥ ॐ हीं पौष कृष्णकादश्यां जन्ममङ्गलप्राप्ताय अर्घ । तप दुद्धर श्रीधर आप धरा। कलि पौष इग्यारसि पर्व वरा ॥ निज ध्यानवि लवलीन भये । धनि सो दिन पूजत विघ्न गये ॥ ३॥ ॐ ह्री पौषकृष्णकादश्यां निःक्रमणमहोत्सवमण्डिताय अघ । वर केवलभानु उद्योत कियो । तिहुं लोक तणों भ्रम मेट दियो । कलिफाल्गुण सप्तमि इंद्र जजे ॥ हम पूजहिं सर्व कलङ्क भजे ॥४॥ ॐ ह्रीं फाल्गुणकृष्ण सप्तम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय अर्घ । सित फाल्गुण सप्तमी मुक्ति गये । गुणवन्त अनन्त अवाध भये॥ हरि आय जजे तित मोदधरे। हम पूजत ही सब पाप हरे ॥५॥ ॐ ह्रीं फाल्गुणशुक्कसप्तम्यां मोक्षमङ्गलमण्डिताय अर्ध ।
जयमाला। दोहा-हे मृगांकअंकितवरण, तुम गुण अगम अपार ।