________________
* श्रीचन्द्रप्रम सिनपूजा *
गणधरसे नहिं पार लहिं तौ को वरनल सार ॥१॥ पै तुम भगति हिये मम, प्रेरे अति उमगाय । नाते गाऊ सुगुण तुम तुमही होउ सहाय ॥२॥
छन्द पद्धति ( १६ मात्रा) जय चन्द्र जिनेन्द्र दयानिधान । भवकानन हानन दवप्रमान । जय गरभजनम मङ्गल दिनंद । भवि जीवविकाशन शर्मकंद ॥३॥ दशलक्षपूर्वकी आयु पाय । मनवांछित सुख भोगे जिनाय ॥ लखि कारण है जगते उदास । चिन्त्यों अनुप्रेक्षा सुखनिवास ॥ ४ ॥ तित लोकांतिक बोध्यो नियोग। हरि शिविका सजि धरियो अभोग ॥ ताप तुम चढ़ि जिनवन्दराय । ताछिनकी शोभाको कहाय ॥५॥ जिन अङ्ग सेत सित चमर ढार । सित छत्र शोस गलगुलकहार ॥ सित रतनजड़ित भूषण विचित्र । सित चन्द्रवरण चरौं पवित्र ॥६॥ सित तन द्युति नाकाधीश आप। सित शिविका कांधे धरि सुचाप ॥ सित सुजस सुरेश नरेश सर्व । सित चितमें चिन्तत जान पर्व ॥ ७॥ सित चन्दनगरते निकसि नाथ। सित वनमें पहुंचें सकलसाथ ॥ सितशिलाशिरोमणि स्वच्छछांह । सित तपतित धाखो तुम जिनाह ॥ सित पयको पारण परमसार । सित चन्द्रदत्त दोनों उदार ॥ सित करमें सो पयधार देत । मानों बांधत भवसिंधुसेत ॥६॥ मानों सुपुण्यधारा प्रतच्छ। तित अचरज पन सुर किय ततच्छ ॥ फिर जाय गहन सित तपकरत । सित केवल ज्योति जग्यो अनन्त ॥ लहि समवसरण रचना महान । जाके देखत सब पापहान ।। जहं तरु अशोक शोभै उतंग । सब शोफतनो चुरै प्रसंग ॥११॥ सुर सुमनवृष्टि नमतें सुहात। मनु मन्मथ तज