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________________ देवशाल गुरुकी भाषा पूजा। इह मांति दीप प्रजाल कंजनके सुभाजनमा० । दोहा-स्वपर प्रकाशक जोति अति, दीपक तमकरि हीन । जासों पूजों परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ॥६॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुम्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं ॥ जो कर्म-ईधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसे। घर धूप तासु सुगन्धिताकरि सकल परिमलता हसे ॥ इह भाँति धूप चढ़ाय नित भवज्वलनमांहीं नहिं पा दोहा-अग्निमाहि परिमल दहन, चंदनादि गुणलोन । जासों पूजों परम पद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ७॥ ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं ॥ . लोचन सुरसना प्राण उर, उत्साहके करतार हैं। मोपै न उपमा जाय वरणी, सकल फलगुणसार हैं। सो फल चढ़ावत अर्थ पूरन, परम अम्रतरस स ॥०॥ दोहा-जे प्रधान फल फलवि, पंचकरण-रसलीन । जासों पूजों परम पद, देव शास्त्र गुरु तोन ॥८॥ ॐ ह्रीं देवाशास्त्रगुरुभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं॥ जल परम उज्जवल गंध अक्षत, पुष्प चरु दीपक धरू। वर धूप निरमल फल विविध, बहु जनमके पातक हरू । इहभांति अर्घ चढ़ाय नित भवि,करत शिवपङ्कति मा . दोहा-सुविधि अर्ध सँजोयके, अति उछाह मन कीन । जासों पूजों परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ॥ ८ ॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघेपदप्राप्तये अश्यं ॥ प्रय जयमाला देवशालगुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार ।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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