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जिनवाणी संग्रह। भिन्न भिन्न कहु आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥
चऊकर्मकी सठ प्रकृति नाशि । जीते अष्टादशदोषराशि । जे परम सगुण हैं अनंत धीर ।कहवतकेछयालिस गुण गंभीर ॥२
शुभ समवशरणशोभा अपार!शत इन्द्र नमत कर शीस धार देवाधिदेव अरहंत देव । बन्दो मनवचतन करि सु सेव ॥३॥
जिनकी धुनि है ओंकाररूप। निरक्षरमय महिमा अनूप । दश अष्ट महा भाषा समेत । लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥
सो स्यादवादमय सप्त भङ्ग । गणधर गूथे बारह सुअङ्ग। रविशशि न हरै सो तम हराय। सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय।
गुरु आचारज उवझाय साधु । तन नगन सनत्रय निधि अगाध। संसारदेह बैराग धार । निरवांक्षि तर्फे शिवपद निहार ॥ ६ ॥
गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस । भवतारन तरन जिहाज ईस गुरुकी महिमा वरनी न जाय । गुरु नाम जपों मन बचनकाय ॥७॥ सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै ।
'द्यानत' सरधावान, अजर अमर पद भोगवै ॥८॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महायं निर्बपामीति स्वाहा ।
(५६) बासतीथं कर पूजा भाषा। द्वीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा कर मनवच तन धरि शीस ॥१॥ ॐ ह्रीं विद्यमानबिंशतितीर्थंकरा! अत्र अवतर अतवर ।
तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सनिहितो भव भव । वषट् । इन्द्रफणींद्रनरेद्रबन्ध, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी।