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________________ ३२२ जिनवाणी संग्रह। भिन्न भिन्न कहु आरती, अल्प सुगुण विस्तार ॥ १ ॥ चऊकर्मकी सठ प्रकृति नाशि । जीते अष्टादशदोषराशि । जे परम सगुण हैं अनंत धीर ।कहवतकेछयालिस गुण गंभीर ॥२ शुभ समवशरणशोभा अपार!शत इन्द्र नमत कर शीस धार देवाधिदेव अरहंत देव । बन्दो मनवचतन करि सु सेव ॥३॥ जिनकी धुनि है ओंकाररूप। निरक्षरमय महिमा अनूप । दश अष्ट महा भाषा समेत । लघु भाषा सात शतक सुचेत ॥४॥ सो स्यादवादमय सप्त भङ्ग । गणधर गूथे बारह सुअङ्ग। रविशशि न हरै सो तम हराय। सो शास्त्र नमों बहु प्रीति ल्याय। गुरु आचारज उवझाय साधु । तन नगन सनत्रय निधि अगाध। संसारदेह बैराग धार । निरवांक्षि तर्फे शिवपद निहार ॥ ६ ॥ गुण छत्तिस पच्चिस आठवीस । भवतारन तरन जिहाज ईस गुरुकी महिमा वरनी न जाय । गुरु नाम जपों मन बचनकाय ॥७॥ सोरठा-कीजे शक्ति प्रमान, शक्ति बिना सरधा धरै । 'द्यानत' सरधावान, अजर अमर पद भोगवै ॥८॥ ॐ हीं देवशास्त्रगुरुभ्यो महायं निर्बपामीति स्वाहा । (५६) बासतीथं कर पूजा भाषा। द्वीप अढ़ाई मेरु पन, अब तीर्थंकर बीस । तिन सबकी पूजा कर मनवच तन धरि शीस ॥१॥ ॐ ह्रीं विद्यमानबिंशतितीर्थंकरा! अत्र अवतर अतवर । तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सनिहितो भव भव । वषट् । इन्द्रफणींद्रनरेद्रबन्ध, पद निर्मलधारी। शोभनीक संसार, सारगुण हैं अविकारी।
SR No.010386
Book TitleJinvani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatish Jain, Kasturchand Chavda
PublisherJinvani Pracharak Karyalaya
Publication Year
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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