________________
* आलोचना पाठ *
ज या विधि कीनो ॥ ८॥ सपरस रसना घाननको। वस्ख कान विषय सेवनको ॥ बहु करम किये मनमानी । कछु न्याय अन्याय न जानी ॥ ६ ॥ फल पञ्च उदंबर खाये। मधु मांस मद्य चित वाहे ॥ नहि अए मूलगुणधारी । विसन जु सेये दुखकारी ॥१०॥ दुइ बीस अभख जिन गाये। सो भी निशदिन भुजाये । कछु भेदाभेद न पायो। ज्यों त्यों करि उदर भरायो ॥११॥ अनं. तान जु वधी जानो। प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो॥संचलन चौक. गै गुनिये । सब भेद जु षोड़श सुनिये ॥१२॥ परिहास अरति गति शोग। भय ग्लानि निवेद संजोग ॥ पनवीस जु भेद भये इम । इनके वश पाप किये हम ॥ १३ । निद्रावश शयन कराई । सुपने मधि दोष लगाई ॥ फिर जागि विषय वन धायो। नाना विध विषफल खायो॥ १४ ॥ किये हार हिार विहारा। इनमें तहि जतन विवारा ॥ विन देखी धरी उठाई। विन शोधी भोजन खाई ।। १५॥ तब ही परमाद सतायो। बहु विध विकलप उप. जायो ।। कछु सुधि बुधि नाहिं रही है। मिथ्या मति छाय गई है ॥ १६ ॥ मरजादा तुम ढिग लोनी। ताहू मैं दोष जु कीनी ।। भिन्न २ अब कैसे कहिये। तुम ज्ञान विषे सब पइये ॥ १७ ॥ हा हा मैं दुठ अपराधी। सजीवन राशि विराधी। थावरकी जतन न कीनो। उरमें करुणा नहि लीनी ।। १८॥ पृथिवी बहु खोद कराई। महलादिक जागां चिनाई। पुन विन गाल्यो जल ढोल्यो। पढातें पवन विलोल्यो ॥ १६ ॥ हा हा मैं अदयाचारी। वह हरितकाय जु विदारी ॥ या मधि जीवनिके खंदा। हम खाये धरि आनन्दा ।। २० ॥ हा में परमाद बसाई। बिन देखे अगनि