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* जिनवाणी संग्रह -
रिपु हैं हमरे हमरी बहु होन दशा कर पाई। दुःख अनन्त दिये हमको हर भाँतिन भांतिन खाद लगाई ॥ मैं इन बैरिनके बश है करिके भटको सु कहो नहिं जाई। बारही० ॥ ५ ॥ मैं इस ही भव काननमें भटको चिरकाल सुहाल गमाई । किश्चित् ही तिलसे सुखको बहु भांति उपाय करे ललचाई ॥ चार गते चिर मैं भटको जहां मेरु समान महा दुस्खदाई। बारही० ॥ ६ ॥ नित्य निगोद अनादि रहो सके तनकी जहां दुर्लभताई । ज्यों क्रम सो निकसो वह ते त्यों इतर निगोद रहो चिरछाई ॥ सूक्षम बादर नाम भयो जब ही यह भांति धरी पर्यायी। बारही० ॥ ७॥ जबहीं पृथ्वी जल तेज भयो पुनि मारुत होय बनस्पति काई । देह अधात धरी जब सूक्षम घातत बादर दीरघताई ॥ एक उदै प्रत्येक भयो सह धारण एक निगोंद बसाई। बारही० ॥ ८॥ इन्द्रिय एक रही चिरमें कब लब्धि उदै स्वयं उपशमताई । वे त्रय चार धरी जब इन्द्रिय देह उदै विकलत्रय आई ॥ पंचन आदि किधौं पर्यन्त धर इन इन्द्रियके त्रस काई । बारही० ॥ ६ ॥ काय धरी पशुकी बहु वार भई जल जन्तुनकी पर्याई । जो थल मांहि अकाश रहो चिर होय पखेरू पल लगाई ॥ मैं जितनी पर्याय धरीं तिनके वरणे कहुं पार न पाई । बारहो० ॥ १०॥ नरक मझार लियो अवतार परौ दुख भार न कोई सहाई । जो तिलसे सुख काज किये अघते सब नरकनमें सुधि आई ॥ ता तियके तनकी पुतली हमरे हियरा करि लाल भिराई ॥ बारही० ॥ ११॥ लाल प्रभा सु महीं नह हैं अरु शकर रेत उन्हार बताई। पङ्क प्रभा जु धुआंवत है तमसी सु प्रभासु महातम ताई । जोजन लाख जु षोडस पिण्ड तहां इकही