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* पंचपरमेष्ठोकी आरती *
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श्री अरहंत परमगुरु, चौतिस अतिशय सहित बसें ॥ प्रातिहार्य वम् अतुल चतुष्टय, सहिय समवसृत मांहि लसैं। श्रुधा तृषा भय जन्म जरा मृत, रोग शोक रति अरति महा। विस्मय खेद म्वेद मद निद्रा, राग द्वेष मिल मोह दहा ॥ इन अष्टादश दोष रहिन नित, इन्द्रादिक पूजत आई ॥सब० ॥ दूजे सिद्ध सदा सुख. दाता, सिद्धशिलापर राजत हैं। सम्यक् दर्शन ज्ञान वाय अरु, सूक्ष्मपणाको छाजत है ॥ *गुरु लघु अवगहन शक्ति घर, बाधा. विन अशरीरा है। तिनका सुमर ण नित्य किये तें, शीघ्र नशत भव पीरा है ॥ या कारण नित चित्तशुद्ध कर, भजहु सिद्ध शिवके राई । सब० ॥ नीजे श्रीआवार्य परमगुरु छत्तिस गुणके धारी हैं। दर्शन ज्ञान चरण तप वीरज, पंचाचार प्रचारी है ॥ द्वादशतप दशधर्म गुप्तित्रय, षट् आवश्यक नित पालें। सब मुनिजनको प्रायश्चित दे, मुनिव्रतके दूषण टालें ॥ ऐसे श्रीआचार्य गुरुनकी, पूजा करिये चिन लाई । सब० ॥ चौथे श्रीउवझायकर णपंकजरज, सुखदा भविजनका । ग्यारह अंग सुपूव वतुदेश, पढ़ें पढ़ा। मुनि गनको ।। मुनिके सब आचरण आचर, द्वादश तपके धारी है। स्यादवाद सुखकारी विद्या, सब जगमें विस्तारी है ॥ ऐसे श्री. उवझाय गुरुनके, चरणकमल पूजहुँ भाई । सब०॥ पंचमि आरति सर्वसाधुकी, आठवीस गुण मूल धरें। पचमहाव्रत पंचसमितिधर, इन्द्रिय पांचों दमन करें ॥ षट् आवश्यक केशलोंच, इक बार खड़े भोजन करते। दांतन स्नान त्याग भू सोक्त, यथाजात मुद्रा धरते ॥ या विधि "पनालाल" पंवपद, पूजत भवदुख नश जाई । सब०॥