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गुरुपूजा।
३६३ अथ जयमाला। दोहा-कनककामिनी-विषयवश, दीस सब संसार ।
त्यागी वैरागीमहा, साधु सुगुनभंडार ॥ १ ॥ तीन घाटि नव कोड़ सब, बंदो सीस नवाय । गुन तिन अट्ठाईस लों, कहू आरती गाय ॥२॥
वेसरो छंद । एक दया पाल मुनिराजा, रागदोष द्वै हरन पर। तीनों लोक प्रगट सब देखें, चारौं आराधननिकर' ॥ पंच महाव्रत दुद्धर धारे, छहो दरब जानै सुहित। सप्तम गवानी मन लावें, पावे आठ रिद्ध उचितं ॥ ३॥ नवो पदारथ विधिसों भाख, बन्द दशों चरन शरन । ग्यारह शंकर जाने मान, उत्तम बारह बृत धरन। तेरह भेद काठिया चूरे, वौदह गुनथाणक लखिय। महाप्रमाद पंचदश नाशे, सोलकषाय सवै नखिय ॥ ४ ॥ बधादिक सत्रह सुतर लाखा, ठारह जन्म न मरन मुन' । एक समय उनईस परी. षह, बीस प्ररूपनिमें निपुनं ॥ भाव उदीक इकीलों जान, वाइस अभख न त्याग कर। अहिन्दिर तेईसों बदें, इन्द्र सुरग चौबीस बर॥ ५॥ पञ्चीसों भावन नित भाव', छह सौ अंग उपंग पढे । सत्ताइसों विषय विनाश, अट्ठाईसों गुण सु बढे । शीतलमय सर चौपटवासी, प्रोषमगिरिसम जोग धरै। वर्षा वृक्ष तर थिर ठाढ़े आठ करम हनि सिद्ध बरें ॥६॥ दोहा-कहो कहाँ लो भेद मैं, बुध थोरी गुन भूर।
हेमराज, सेवक हृदय, भकि करौ भरपूर ॥७॥ ओं ही प्राचार्योपाध्यायसर्वसाधु गुरुभ्यो अध्यं निर्यपामि ।